वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=आचार्य भक्ति=
“पूजन”
आचार्य नमन आचार्य नमन
वच सत्य भाव निर्मल पिछान ।
जब-तब छेड़ी गुण सिद्ध तान ।।
रत गुप्त, मुक्त क्रोधाद अगन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।१।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन् !
अत्र अवतर संवौषट इति आवाह्नन ।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन् !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन् !
अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधिकरणम्
जिन शासन दीप प्रकाशमान ।
मन भावन गत ऋज शिव प्रयाण ।
रत मूल कर्म रज उन्मूलन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।२।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
व्रत गत प्रमाद, सन्तुष्ट संघ ।
सित समकित अवहित मन तरंग ।।
विरचित तन अंग अंग गुण मण ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।३।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
संसार ताप विनाशनाय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चित आशा चित, उत्पथ विनष्ट ।
शोभत व्यवहार हृदय प्रशस्त ।।
निष्पाप निलय-प्रासुक तप-धन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।४।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अक्षय पद प्राप्ताये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
जित परिषह निष्किरिया प्रमाद ।
बहु दण्ड पिण्ड मण्डल विघात ।।
पद, हस्त, योग इन्द्रिय मुण्डन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।५।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
काम बाण विनाशनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रद-कष्ट दुष्ट लेश्या विहीन ।
उन्निद्र अविचलित सांझ तीन ।।
जित करिन् करण युत मल पटलन ।।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।६।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
क्षुधारोग विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गत शठ, मत्सर, मद, राग, लोभ ।
सद्भावन अतुलित विगत शोक ।।
नवकार अखण्डित श्रुत मन्थन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।७।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गारव विभिन्न अपध्यान शून ।
गणनीय पुण्य सद्ध्यान पून ।।।
सम्पून निरोधन कुगत गमन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।८।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अष्ट कर्म दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तरुमूल योग अभ्राव-काश ।
आताप योग मासोपवास ।।
बहुजन हितकर चर्या धन-धन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
मोक्ष फल प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
थिर जोग कलुष प्रतिफल विमुक्त ।
कृत मुकुल हस्त नित सविध भक्त ।।
हित ‘सहज-निराकुल’ सौख्य सदन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=विधान प्रारंभ=
जय जयतु जयतु आचारज
सिद्धों का नाम सुमरते ।
व्रत समिति गुप्ति आदरते ।।
काषाय हन्त नन्ता कज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।१।।
जिन शासन दीप अनोखे ।
आसामी गुण रत्नों के ।।
सक्षम जर्जर कर्मारज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।२।।
धन ! गुण मण विरचित देहा ।
षट् द्रव्य विगत सन्देहा ।।
अशरण इक शरण अकारज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।३।।
तप उग्र मोह अपहारी ।
चित चित्त आश अविकारी ।।
जल जगती विभिन्न आपज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।४।।
सह परिषह मुण्डन मण्डन ।
बहु दण्ड पिण्ड मण्डल हन ।।
गत क्रिया प्रमादन तापज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।५।।
बुत तनुत्सर्ग जित निद्रा ।
मल पाटल तन, हत तन्द्रा ।।
जित विजित पंच करणा गज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।६।।
स्वाध्याय सतत चित पावन ।
गत मद-मत्सर जित आसन ।।
सद्भावन, विभावनातज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।७।।
पीछा दुध्यानन छूटा ।
निर्झर सिद्ध्यान अनूठा ।।
गत-कुत्सित भव अब खारज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।८।।
तरुमूल योग बरसा क्षण ।
अभ्रावकाश आतापन ।।
बहुजन हितकर चर्या व्रज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।९।।
अवहित वाणी मन काया ।
परिणाम न कालुष भाया ।।
गल सौरव्य निराकुलता स्रज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।१०।।
सिद्ध-गुणस्-तुति-निरता-
नुद्भूत-रुषाग्नि-
जाल-बहुल-विशेषान् ।
गुप्तिभि-रभि-सम्पूर्णान्-
मुक्ति-युतः सत्य-
वचन-लक्षित-भावान् ।।१।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सूरि वन्दना ।।
निरतिचार व्रत ।
सिद्ध नाम रट ।।
क्रोध संध ना ।
सूरि वन्दना ।।१।।
दीव जिन धरम ।
नींव शिव सदम ।।
रज अनन्त ना ।
सूरि वन्दना ।।२।।
देह गुण मणिन ।
सहज-नेह गण ।।
दर्श मन्द ना ।
सूरि वन्दना ।।३।।
अनतरंग जप ।
मोह भंग तप ।।
रति कुपन्थ ना ।
सूरि वन्दना ।।४।।
मण्ड मुण्ड दश ।
दण्ड पिण्ड वश ।।
अलस गंध ना ।
सूरि वन्दना ।।५।।
देह लिप्त रज ।
जेय अक्ष गज ।।
निद्र-तन्द्र ना ।
सूरि वन्दना ।।६।।
शिव सुन्दर सत् ।
सुरत श्रुत सतत ।।
सिद्ध आसना ।
सूरि वन्दना ।।७।।
आर्त रौद्र हन ।
धर्म शुक्ल धन ।
कुगत बंध ना ।
सूरि वन्दना ।।८।।
अभ्र शीत पल ।
आतप तरुतल ।।
मन स्व-छन्द ना ।
सूरि वन्दना ।।९।।
भाव कलुष गुम ।
भावना कुटुम ।।
निराकुल मना ।
सूरि वन्दना ।।१०।।
मुनि-माहात्-म्य-विशेषान्-
जिन-शासन-सत्-प्रदीप-
भासुर-मूर्तीन् ।
सिद्धिं प्रपित्-सु-मनसो
बद्ध-रजो-विपुल-
मूल-घातन-कुशलान् ।।२।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सूरि सूर्य से आगे
रटना सिद्ध लगाते ।
निरतिचार व्रत नाते ।।
अन्त नन्त अरि लागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।१।।
दिव्य दीव जिन शासन ।
भव्य जीव शिव साधन ।।
दुरित दाब दुम भागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।२।।
गुण-मणि रचित शरीरा ।
निर्णय-तत्व ! गभीरा ।।
टूक न ‘लर’ हित धागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।३।।
जप तप हित हन मोहन ।
चेतस आश निरोधन ।।
सांझन जागे जागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।४।।
दश मुण्डन श्रृंगारी ।
प्रासुक पिण्ड अहारी ।।
सह परिषह मन पागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।५।।
जित अख गज जित निन्द्रा ।
अविचल अभिजित तन्द्रा ।।
लेश्या अशुभ अभागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।६।।
ज्ञान ध्यान अनुरागी ।
आसन-सिद्ध विरागी ।।
मनस् दुनाल न दागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।७।।
ध्यान रौद्र आरत ना ।
धर्म शुक्ल ध्यां गहना ।।
धन्य पुण्य बड़भागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।८।।
वृक्ष मूल, आतापन ।
जोग अभ्र आराधन ।।
कृत जनहित बिन नांगे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।९।।
भावन कलुष भगाया ।
अचल वचन मन काया ।
धर्मलाभ बिन मांगे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।१०।।
गुण-मणि-विरचित-वपुषः,
षड्द्रव्य-विनिश्-
चितस्य धातृन्-सततम् ।
रहित-प्रमाद-चर्यान्,
दर्शन-शुद्धान्
गणस्य संतुष्टि करान् ।।३।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सूर सा तेज टपकता है
णमो सिद्धाणं रट लागी ।
सदा परिणत जागी जागी ।।
नन्त अनुबन्धन कटता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।१।।
अबुझ जिन शासन संदीपा ।
चाह मोति शिव मन सीपा ।।
कर्म विष बिरछा डिगता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।२।।
रचित गुण रूप मणिन देहा ।
द्रव्य षट् रञ्च न संदेहा ।।
निरालस भाव प्रकटता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।३।।
उग्र तप तापस हन मोहन ।
दृष्टि-नासा आशा-रोधन ।।
पाप संताप विघटता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।४।।
न सिर मुण्डित, मुण्डन मण्डन ।
विजित परिषह प्रमाद खण्डन ।।
पिण्ड प्रासुक इक रिश्ता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।५।।
जेय गज-इन्द्रिय जित तन्द्रा ।
देह मल-पटल विजित निद्रा ।।
मन अशुभ लेश्या हटता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।६।।
अतुल ! पुन काय ! सिद्ध आसन ।
सतत स्वाध्याय चित्त पावन ।।
नदारत मत्सर-शठता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।७।।
आर्त दुर्ध्यान रौद्र खो’री ।
धर्म सद्ध्यान शुक्ल झोरी ।।
बन्ध दुर्गतियन टलता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।८।।
मूल-तरु, आतप आराधा ।
जोग अभ्रावकाश साधा ।
चरित घन, मयूर जनता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।९।।
अविचलित मन काया वाणी ।
रवानी भाँत सरित पानी ।।
कही तो यही ‘सहजता’ है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।१०।।
मोहच्-छिदुग्र-तपसः
प्रशस्त-परिशुद्ध-हृदय-
शोभन व्यवहारान् ।
प्रासुक-निलया-ननघा-
नाशा विध्वंसि-
चेतसो हतकुपथान् ।।४।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जयतु जय सूरीश्वर
सिद्ध रटना ।
शुद्ध चरणा ।
मान हट ना, ज्ञान भी…तर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।१।।
अबुझ ज्योती ।
शिव बपौती ।
उदक मोती, झलक भीतर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।२।।
संदृष्ट धन ।
संतुष्ट गण ।
तन पुष्ट गुण, मण सुधीवर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।३।।
उपवास व्रत ।
वनवास नित ।
चित आश चित, कण्ठ ‘भी’ स्वर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।४।।
गण्य पुन धन ।
मुण्ड मण्डन ।
दण्ड खण्डन, पिण्ड स्वीकर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।५।।
विजित निद्रा ।
विगत तन्द्रा ।
जित गजेन्दा अख, महीतल ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।६।।
सतत श्रुत रत ।
मद विनिर्गत ।
दुरित उपरत, रोशनी अर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।७।।
दुर्ध्यान हट ।
सद्ध्यान पथ ।
सुन ध्यान सत्, दृग तृती’तर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।८।।
वृक्ष प्रावृट् ।
अभ्र चतु पथ ।
आतप निरत, भय सभी हर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।९।।
अविचल अतुल ।
सुख ‘निराकुल’ ।
रे मिला कुल, दो यही वर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।१०।।
धारित-विलसन्-मुण्डान्-
वर्जित-बहुदण्ड-
पिण्ड-मण्डल निकरान् ।
सकल-परीषह-जयिनः,
क्रियाभि-रनिशं
प्रमादतः परि-रहितान् ।।५।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जय जयतु सूर जय
सिद्धों का सिमरन ।
धन मूलोत्तर गुण ।।
अनुबन्ध नन्त क्षय ।
जय जयतु सूर जय ।।१।।
जिन शासन दीवा ।
चाह शिव अतीवा ।।
तय कर्म रज विलय ।
जय जयतु सूर जय ।।२।।
गुण मण विरचित तन ।
सन्तुष्टिकर गण ।।
अटल तत्व निर्णय ।
जय जयतु सूर जय ।।३।।
वासा दृग् नासा ।
नाशा चित आशा ।।
जप तप सदय हृदय ।
जय जयतु सूर जय ।।४।।
दण्ड पिण्ड खण्डन ।
दश मुण्डन मण्डन ।।
सकल परिषह विजय ।
जय जयतु सूर जय ।।५।।
जल्ल मल्ल देहा ।
लेश्य शुभ सनेहा ।।
अभिजित इभ इन्द्रिय ।
जय जयतु सूर जय ।।६।।
नित श्रुत आराधन ।
चित चित सिद्धासन ।।
भाव प्रशस्त प्रशय ।
जय जयतु सूर जय ।।७।।
ध्यान शुभ समर्थन ।
ध्यान अशुभ निरसन ।।
गण्य पुण्य संचय ।
जय जयतु सूर जय ।।८।।
जोग अभ्र आतप ।
वृक्ष मूल तर जप ।।
जनहित चरित अभय ।
जय जयतु सूर जय ।।९।।
मन, वच, तन अवहित ।
यम संयम अब हित ।।
सुख ‘निराकुल’ अछय ।
जय जयतु सूर जय ।।१०।।
अचलान् व्यपेत-निद्रान्,
स्थान-युतान्-कष्ट-
दुष्ट-लेश्या-हीनान् ।
विधि-ना-नाश्रित-वासा,
नलिप्त-देहान्
विनिर्-जितेन्द्रिय-करिणः ।।६।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आचार्य श्री मेरे ।।
रट सिद्ध नाम लागी ।
यम संयम अनुरागी ।।
अनुबन्ध-नन्त फेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।१।।
दीपक जिन शासन के ।
इच्छुक शिव राधन के ।।
खुद हट चले अंधेरे ।।
आचार्य श्री मेरे ।।२।।
सन्तुष्ट संघ साधो ।
धन दृष्ट श्रवण भादों ।।
षट् द्रव्य न बहुतेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।३।।
तप उग्र मोह नाशी ।
गिर, कन्दर वन-वासी ।।
वश कब आश अछेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।४।।
मुण्डन मुण्डन मण्डन ।
दण्डन पिण्डन खण्डन ।।
जागृत सांझ सवेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।५।।
जित निन्द्रा अविकल ।
कार्योत्सर्ग अचल ।।
मल पटल देह घेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।६।।
नित रत स्वाध्याया ।
उपरत मद माया ।।
झट आसन रीझे ‘रे ।
आचार्य श्री मेरे ।।७।।
दुर्ध्यान निरोधन ।
सध्यान शिरोमण ।।
सुर’ भी पुण्य बिखेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।८।।
जोग अभ्र, तरुतर ।
आतप सूर प्रखर ।।
विरद विदिश् दिश् डेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।९।।
थिर मन, वच, काया ।
दया हाथ दाया ।।
सौख्य ‘निराकुल’ टेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।१०।।
अतुला-नुत्-कुटिका-सान्-
विविक्त चित्ता-
न-खण्डित-स्वाध्यायान् ।
दक्षिण-भाव-समग्रान्,
व्य-पगत-मद-राग-
लोभ-शठमात्सर्यान् ।।७।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दर्शन सूरि बलिहारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ।।
सिमरण सिद्ध आठो याम ।
संयम, यम, नियम निष्काम ।।
परिणत पाप संहारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।१।।
शासन जैन जगमग दीव ।
राधा मुक्ति ब्याह करीब ।।
जड़ तरु कर्म हिल चाली ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।२।।
गुण मण रचित दिव्य शरीर ।
निश्चत द्रव्य षट् जल तीर ।।
शशि बिच रिक्ष अनगारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।३।।
जप तप हेत मोह विनाश ।
विरहित पाप विगलित आश ।।
प्रासुक निलय अविकारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।४।।
परिषह विजित मण्डन मुण्ड ।
वर्जित दण्ड मण्डल पिण्ड ।।
रहित प्रमाद व्रत धारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।५।।
इंद्रिय जित विजित उपसर्ग ।
निन्द्रा रहित कायोत्सर्ग ।।
देह विलिप्त मल वाली ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।६।।
पावन मन, सतत स्वाध्याय ।
आसन सिद्ध मन्द कषाय ।।
मत्सर तिमिर तिमिरारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।७।।
आरत रौद्र दुर्ध्यां हान ।
भावित धर्म शुक्ला ध्यान ।।
गत गारव निरतिचारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।८।।
आतप जोग पादप मूल ।
तप अभ्रावकाश समूल ।।
चरिया लोक हितकारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।९।।
थिर मन, काय थिर, थिर वाक् ।
उपरत मद कलुष परिपाक ।।
‘सहजो’-सौम्य अधिकारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।
करुणा, क्षमा भण्डारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।१०।।
भिन्-नार्त-रौद्र-पक्षान्,
संभावित-धर्म-
शुक्ल-निर्मल हृदयान् ।
नित्यं पिनद्ध-कुगतीन्,
पुण्यान् गण्यो-दयान्
विलीन-गारव-चर्यान् ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
फिरें णमो सिद्धाणं मनके ।
धनी मूल-गुण उत्तर-गुण के ।।
क्रोध नन्त अनुबन्ध विडारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।१।।
जिन शासन के दीप निराले ।
राधा मुक्ति चाहने वाले ।।
समरथ उनमूलन भवकारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।२।।
गुण मणि विरचित दिव्य शरीरा ।
सिन्धु द्रव्य षट् विनिश्च तीरा ।।
शशि बिच संघ चतुर्विध तारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।३।।
साध उग्र तप मोह विनाशी ।
गिरि, कन्दर, वन शून निवासी ।।
अबकि चित्त चित् खानन चारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।४।।
मण्डन मुण्डन ऊरध रेता ।
जित परिषह उपसर्ग विजेता ।।
दृग् न चार उद्दिष्ट अहारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।५।।
अभिजित इन्द्रिय रूप गजेन्द्रा ।
तन मल पटल, अचल जित निन्द्रा ।।
दुष्ट कष्ट प्रद लेश्य संहारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।६।।
गत मत्सर निर्लोभ विरागी ।
आसन सिद्ध जगत बड़भागी ।।
‘रे स्वाध्याय अखण्डित धारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।७।।
पीछा आर्त रौद्र ध्यां छूटा ।
धर्म शुक्ल सद्ध्यान अनूठा ।।
पुण्य सातिशय-पांत अगारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।८।।
वृक्षमूल, आतपन जोगा ।
दृढ़ अभ्रावकाश संजोगा ।।
बहुजन हित कर चरित्र निराला ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।९।।
लासानी मन, काया, वाणी ।
भावन कलुष न नाम निशानी ।।
सौख्य ‘निराकुल’ देने वाला ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।
जय जयकारा, जय जयकारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।१०।।
तरु-मूल-योग-युक्ता
नवकाशा-ताप
योग-राग-सनाथान् ।
बहुजन-हितकर-चर्या-
नभया-ननघान्-
महानु-भाव-विधानान् ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।
सिद्ध सुमरण ।
बुध क्रोध हन ।।
सत् वचन लखन सुमन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।१।।
दीप दिव स्वर ।
नींव शिव घर ।।
कर्म कण नुक्षण क्षरण ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।२।।
जेय मन-गण ।
देह गुण मण ।।
स्वनुभवन सदन सजन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।३।।
तप उग्रतर ।
जप अग्रसर ।।
आश मन विजन गमन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।४।।
मुण्ड मण्डन ।
पिण्ड शुध धन ।।
जित विघन दुगन दुगन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।५।।
तन पटल मल ।
उन्निन्द्र पल ।।
वश करण करिन् करण ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।६।।
सतत श्रुत रत ।
विगत अठ मद ।।
जितासन वरन वरन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।७।।
दुर्ध्यान गुम ।
सद्ध्यान द्रुम ।।
पुण्य तन भुवन भुवन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।८।।
अभ्र, आतप ।
मूल-तरु तप ।।
हित भुवन चरण वरण ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।९।।
सुख ‘निराकुल’ ।
रुख मिला कुल ।।
कलुष मन हरण शरण ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।१०।।
ईदृश-गुण-सम्पन्नान्,
युष्मान्-भक्त्या
विशा-लयास्-थिर-योगान् ।
विधिना-नारत-मग्र्यान्,
मुकुली-कृत-हस्त-
कमल-शोभित-शिरसा ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर
सिद्ध वन्दना निरत ।
छिद्र संध ना विरत ।।
दोष रोष कोस दूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।१।।
दीप अहिंसा धरम ।
दक्ष ध्वंस रज करम ।।
चाह ब्याह मुक्ति हूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।२।।
नेह छोड़-स्वार्थ गण ।
देह जोड़ गुण मणिन ।।
द्रव्य षट् विनिश्च तूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।३।।
अस्त मोह उग्र तप ।
मन प्रशस्त प्रणव जप ।।
आश-पाश ध्वंस चूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।४।।
झुण्ड मुण्ड मण्डनन ।
दण्ड पिण्ड खण्डनन ।।
सहन परी-षहन पूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।५।।
तन विलिप्त मल-पटल ।
अलस सुप्त, प्रण अटल ।।
विजित करण करिन् क्रूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।६।।
अखण्ड स्वाध्याय धन ।
खण्ड मद कषाय पन ।।
सिद्धासन दिव्य नूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।७।।
आर्त रौद्र ध्यान हट ।
धर्म शुक्ल ध्यान पथ ।।
धन्य पुण्य गण्य भूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।८।।
ताप अभ्र योग अर ।
वृक्ष मूल योग धर ।।
चर्चा जन हित प्रपूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।९।।
अवहित तन, मन, वचन ।
सुमरण आवीचि क्षण ।।
सौख्य ‘निराकुल’ अदूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।१०।।
अभि-नौमि-सकल-कलुष
प्र-भवो-दय-जन्म
जरा-मरण-बंधन मुक्तान् ।
शिव-मचल-मनघ-मक्षय,
मव्याहत-मुक्ति-
सौख्य-मस्-त्वि ति सततम् ।।११।।
अंचलिका
इच्छामि भंते !
आ-यरिय-भत्ति-
काउस्-सग्गो कओ
तस्सालो-चेउं
सम्म-णाण, सम्म-दंसण
सम्म-चारित्त-जुत्ताणं
पञ्च-विहा-चारणं
आ-यरि-याणं, आया-रादि
सुद-णाणो-वदेस-याणं, उवज्झा-याणं, ति-रयण-गुण-पालण-रयाणं, सव्व-साहूणं,
णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि,
वंदामि, णमस्-सामि,
दुक्खक्-खओ, कम्मक्-खओ,
बोहिलाहो, सुगइ-गमणं, समाहि-मरणं,
जिण-गुण-सम्पत्ति होउ मज्झं ।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=जयमाला=
सिद्धों का कर थवन रहे हैं ।
कर कषाय उप शमन रहे हैं ।।
गुप्ति मुक्ति जुत परिचय प्राञ्चल,
मन का दे सत् वचन रहे हैं ।।१।।
मुनि पुगंव शिव सुख अभिलाषी ।
देह दीप जिन धर्म प्रकाशी ।।
कुशल बद्ध रज मूल विघातन,
सूरि चरण तिन पाप विनाशी ।।२।।
गुण-मणि रचित देह दृग्-धारी ।
विबुध द्रव्य षट् गण मनहारी ।।
चर्या रहित प्रमाद सूरि तिन,
चरण वन्दना मङ्गल कारी ।।३।।
प्रासुक निलय कुशल व्यवहारा ।
मृग-तृष्णा चित् नाशन-हारा ।।
अनघ-मोह-छिद्-तप, हत-उत्पथ,
सूरि चरण तिन नमन हमारा ।।४।।
लसित मुण्ड दश सजग गभीरा ।
गत बहु-दण्ड-पिण्ड गण, धीरा ।।
अभिजित परिषह सकल सूरि तिन,
‘पद वारिज’ रज भव जल तीरा ।।५।।
विगत अशुभ लेश्या संंज्ञानी ।
तन अलिप्त जिन, अविचल ध्यानी ।।
कायोत्सर्ग वास गिरि, कन्दर,
सूरि जितेन्द्रिय शम-रस सानी ।।६।।
रत स्वाध्याय सतत अभिरामी ।
आसन सिद्ध, सरल परिणामी ।।
अतुल, अमल, अपगत, मद माया,
राग-लोभ भावी शिव गामी ।।७।।
भिन्न पक्ष दुर्ध्यान विरागी ।
पुण्य ! पिधान-कुगति बड़भागी ।।
निरत ध्यान शुभ विगलित गारव,
सूरि चरण तिन मन अनुरागी ।।८।।
विभव समेत पाप भयभीता ।
बहु हितकर चर्या भय-रीता ।।
समय मूल-तरु आतप तप-तप
योग अभ्र अवकाश व्यतीता ।।९।।
नेतृ-श्रमण थिर मन वच काया ।
रहित त्रिगद किल्विष मति जाया ।।
पग दें, पथ-पाथेय मुझे आ-
चार्य हेत इस थवन उपाया ।।१०।।
प्राप्त हृदय श्रुत प्रतिभाशाली ।
प्रशम प्राप्त मति हंस निराली ।।
विदित लोक थिति पूर्व दृशोत्तर,
विहत आश लौकिक वैताली ।।११।।
प्रभो प्रश्न सह पर मनहारी ।
गुण निधि पर निन्दा अपहारी ।।
हित मित वचनस्-पष्ट देव आ-
चार्य विहर लें पीर हमारी ।।१२।।
वृत्ति विशुद्ध वचन, मन, काया ।
हृदय ज्ञान खिल ग्रन्थ समाया ।।
पन्थ प्रवर्तन सद्-विधि रत मन,
जिनका पर प्रतिबोधन आया ।।१३।।
विद् व्यवहार लोक गृह करुणा ।
निस्पृह निर्मद मृदुता-भरणा ।।
यति पति सिंह आचार्य सुजन जन,
गुरु भव जल वे तारण-तरणा ।।१४।।
तप-निधान व्रत, रज विहीन हैं ।
स्वपर मत विभावन प्रवीण हैं ।।
गुण गभीर, ‘गुरु’ पार जलधि श्रुत,
तिन्हें समर्पित साँझ तीन हैं ।।१५।।
निरत पन विधाचार करण में ।
कुशल शिष्य उपकार करण में ।।
गुण छत्तीस निलय संदर्शक,
‘गुरु’ समर्थ भव-पार करण में ।।१६।।
पाप कर्म सारे खिर जाते ।
जन्म किनारा यम कर जाते ।।
कहें कहाँ तक, बन्धु ससंयम,
सिन्धु कृपा ‘गुरु’ भव तिर जाते ।।१७।।
निरत होम व्रत मन्त्र भावना ।
क्रिया साधु नित निरत साधना ।।
ध्यान अग्नि होत्रा-कुल तप-धन,
धनिक कर्म रत षटाराधना ।।१८।।
वसन शील गुण आयुध कर में ।
कहाँ भा यथा, शशि-दिनकर में ।।
मोक्ष द्वार भट कपाट पाटन,
श्री गुरु वर अनुचरा-नुचर मैं ।।१९।।
शिव पथ का करते प्रचार हैं ।
नायक दृक्, अवगम उदार हैं ।।
सिन्धु-चरित गुरु करें कृपा वे,
जोड़ हाथ हम, खड़े द्वार हैं ।।२०।।
*दोहा*
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सूरि मुनि नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़, नत माथ ।।२१
सूरि पञ्च आचारज धारी ।
ज्ञान, चरित्र, दृक्-धर अविकारी ।।
उपदेशक श्रुत ज्ञान भान उव-
झाय साधु गुण मण अधिकारी ।।२२।।
तिन गुरु-देव करूँ सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत,
सम्पद वरण समाधि मरण हो ।।२३।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भगवन्
अनर्घ पद प्राप्तये
जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
*आरती*
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
हाथ में दीपों की थाली ।
जगमगाती ज्योती वाली ।।
उतारूँ आरतिया में आज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
जोर की बरसा मूसलधार ।
बूँद बाणों सा करे प्रहार ।।
गरजती बिजली सींह दहाड़ ।
सहज सहते तरु-मूल विराज ।।
पुण्य में अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
हाथ में दीपों की थाली ।
जगमगाती ज्योती वाली ।।
उतारूँ आरतिया में आज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
चले, कर साँय-साँय पवमान ।
राख जल हरे-भरे खलिहान ।।
तब खड़े जो चौराहे आन ।
मिल गये तारण-तरण जहाज ।।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
हाथ में दीपों की थाली ।
जगमगाती ज्योती वाली ।।
उतारूँ आरतिया में आज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
दूर तरु, नाम निशान न छाह ।
धरा उगले अंगारी दाह ।।
तब धरी जिनने पर्वत राह ।
ढ़ोक, सुन ली मेरी आवाज ।।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
हाथ में दीपों की थाली ।
जगमगाती ज्योती वाली ।।
उतारूँ आरतिया में आज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
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