=पाठशाला-चालीसा=
चलो पाठशाला चलते हैं ।
सुनते बुझे दिये जलते हैं ।।
तोता गिनी पीलु विद्याधर ।
बनें पढ़ यहीं विद्यासागर ।।1।।
नीम पड़े कड़वा बन जाता ।
ईख पड़े मीठा मन भाता ।।
और वही आषाढ़ी-पानी ।
सीप पड़े मोती लासानी ।।2।।
सीप पाठशाला कलि-काला ।
आ, पढ़ने दो अपना लाला ।।
पानी की कीमत ही कितनी ।
ले मोती कीमत लो जितनी ।।3।।
पान जब तलक नम रहता है ।
‘मोड़ो’ मन-माफिक कहता है ।।
सूख चला दो टूक बनेगा ।
पर हरगिज अब मुड़ न सकेगा ।।4।।
पान सरीखे बच्चे अपने ।
मोड़ समय से, पूरो सपने ।।
सँभलो दाल गला ना पाये ।
हवा पश्चिमी पान सुखाये ।।5।।
टेड़े-मेड़े पत्थर रहते ।
पर्वत से आ जाते बहते ।।
यहाँ-वहाँ से पड़ जल धारा ।
अभिनन्दित जन जन के द्वारा ।।6।।
पत्थर इतने पैने होते ।
चुभते ही उड़ते हैं तोते ।।
उन्हें पाठशाला ले आओ ।
ले जा मठ-मन्दिर पधराओ ।।7।।
जुड़ा बाँस वैशाखी नाता ।
पौधा बन तरु ताने छाता ।।
वरना धूल चटाती पवना ।
सपना रहता छूना गगना ।।8।।
चल धीमे धीमे ही आती ।
मंजिल भाग भागती आती ।।
छुयें-क्षितिज, ये गणित न लागे ।
‘भाग’ पाठशाला बढ़-भागे ।।9।।
चर्चित माटी-माधौ माटी ।
हाथ कुम्हार कभी पड़ जाती ।।
पार आग दरिया कर आये ।
सारी दुनिया सिर बैठाये ।।10।।
बाँस स्वप्न था ‘वाॅस’ कहाना ।
हुआ शिल्पि का इक दिन आना ।।
स्वर सा रे गा मा पा धा नी ।
निकले ई-स्वर शुरू कहानी ।।11।।
काँच पाठशाला में आता ।
पढ़-लिखकर आदर्श कहाता ।।
ठगी रह गई ठगिनी माया ।
सार्थक नाम दर्प-ना पाया ।।12।।
माटी मोल रुई बिकती है ।
बन धागा कीमत बढ़ती है ।।
करघा किरपा ताना-बाना ।
वस्त्र अमोलक पहनें राणा ।।13।।
ऐसी वैसी न पाठशाला ।
बना सुफेद कोयला काला ।।
दिन दूना चौगुणा रात में ।
मोल दे बढ़ा बात-बात में ।।14।।
पढ़ा पाठशाला में कछुआ ।
यथा नाम गुण तथा ‘क’-छुआ ।।
‘क’ मतलब कख-हरा पढ़ा है ।
तभी विनत खरगोश खड़ा है ।।15।।
पढ़ी पाठशाला में मछरी ।
जा गहरे पानी में उतरी ।।
वहाँ जहाँ ना पहुँचे फन्दा ।
चले न यम मनमाना धन्धा ।।16।।
पढ़ी पाठशाला में चींटी ।
हरगिज कभी लकीर न पीटी ।।
बिना धकाये द्वार न आये ।
गिर-गिर चढ़ फिर नभ छू जाये ।।17।।
पढ़ी पाठशाला में ‘रब्बर’ ।
गलती और मिटाने तत्पर ।।
हर बारी कुछ कम हो जाती ।
बनता, पेज ‘इमेज’ बढ़ाती ।।18।।
पढ़ी पाठशाला में मारुत ।
तभी न साध रही है स्वारथ ।।
ले काँधे फूलों की खुशबू ।
करा रही दिश्-विदिश् गुफ्तगू ।।19।।
पढ़ी पाठशाला में नदिया ।
रेख-नेक-दिल मण्डित गदिया ।
खुद अपना पानी कब पीती ।
आश मिलन सागर ले जीती ॥20।।
पढ़े पाठशाला में पौधे ।
प्रेम लुटाते बग़ैर सौदे ।।
अपने फल खुद कभी न खाते ।
लिये पेड़ बन पर-हित छाते ।।21।।
पढ़ा पाठशाला में चन्दन ।
नू-नच-बिन ना-गिन अभिनन्दन ।।
भीलिन झगड़ा मोल न लेता ।
घिसे, उसे भी महका देता ।।22।।
पढ़ी पाठशाला माँ गैय्या ।
पर-हित नाचे ता था थैय्या ।।
पेट काट बछड़े का अपने ।
पूरे ग्वाल-बाल के सपने ।।23।।
पढ़ा पाठशाला में तोता ।
राम-नाम हर जुबाँ न होता ।।
सर-नजूम बनता अवगाहे ।
पिंजरे पलक न रहना चाहे ।।24।।
पढ़े पाठशाला में कपड़े ।
लें आपस में मोल न झगड़े ।।
खा के धूप पड़ रहे फीके ।
रंग-रूप हित औरन नीके ।।25।।
पढ़ा पाठशाला मे घोड़ा ।
पर-हित ठोक नाल पग दौड़ा ।।
यही न ‘आइ-लगाम’ लगा के ।
सहजो संयत फन अपना के ।।26।।
पढ़ी पाठशाला में भूमी ।
पर-हित बन चकरी सी घूमी ।।
खोदें पानी मीठा देती ।
उगले हीरे मोती खेती ।।27।।
पढ़ी पाठशाला पनडूबी ।
सर्दी भले रहे जल डूबी ।।
डुबो अंगुलिंयाँ औरन घी में ।
पार लगा देती चुटकी में ।।28।।
पड़ी पाठशाला में चिड़िया ।
रचा घौंसला इतना बढ़िया ।।
निशाँ नेह निस्पृह इक थाती ।
बच्चे उड़े, स्वयं उड़ जाती ।।29।।
पढ़ी पाठशाला में काकी ।
मुँह-देखी से सुदूर काफी ।।
पाल रही कोकिल का लाला ।
काली भले, न मनुआ काला ।।30।।
पढ़ी पाठशाला में माई ।
कब करतब से जिया चुराई ।।
रग-रग धारा करुणा बहती ।
कब कहती, बढ़ सरहद सहती ।।31।।
पढ़े पाठशाला में पापा ।
पाप राह बढ़ते जी काँपा ।।
जीवन शिशु का झुलस न जाये ।
सिर्फ आग लेने घर आये ।।32।।
पढ़ी पाठशाला में दादी ।
गोद उतार गोद दादा दी ।।
क्या तो, मूल न, राशि बियाजा ।
जन जन दादी नाम नवाजा ।।33।।
पढ़ें पाठशाला बाबा जी ।
डग भरते पाने बा-बाजी ।।
जिन्हें धर्म पहले फिर पैसे ।
जल से भिन्न कमल के जैसे ।।34।।
पढ़ी पाठशाला में जीजी ।
दे अशीष दुनिया जुग जी…जी ।।
चुगल चपाती जिसे न भाती ।
गुस्सा पी जाती, गम खाती ।।35।।
पढ़ा पाठशाला में भाई ।
कहा एक सुर बहना भाई ।।
भा…ई क्या गुरु-देव बताते ।
प्रतिभा…रत भारत सहजादे ।।36।।
पढ़ी पाठशाला में भाभी ।
दुगुणी गुणी और आभा भी ।।
यानि ‘कि सोना सुगंध वाला ।
‘चरण-सीय’ तब लखन शिवाला ।।37।।
पढ़ा पाठशाला में पन्ना ।
कहा न यूँ ही मूल अगण्णा ।।
अखर निकर तो छोड़ो भाई ।
पार लगाई, आखर-ढ़ाई ।।38।।
पढ़े पाठशाला निर्ग्रन्था ।
अरुक अथक बढते शिव-पन्था ।।
रुक पानी गन्दा बन जाता ।
बहता पानी तीर्थ कहाता ।।39।।
नाप पाठशाला नभ भाँती ।
आते-आते हाथ न आती ।।
फिर-के खग मस्तूल दिखाये ।
मौन ‘देव-त:’ मुझे सुहाये ।।40।।
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