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तीर्थंकर चालीसा

वृहद चालीसा-अजितनाथ

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

अजित
‘वृहद्-चालीसा’

दोहा
मुकुट बद्ध राजा सभी,
खडे़ माथ रख हाथ ।
जन्म समय तब पड़ चला,
नाम ‘अजित’ तुम सार्थ ।।

चौपाई
‘जम्बू’ पूर्व-विदेहा विरली ।
वत्सिक देश सुसीमा नगरी ।।
भव यह पिछला तीजा जानो ।
नाम विमल वाहन पहचानो ।।१।।

वर्ण, स्वर्ण के जैसा दीखे ।
ग्यारह-अंग इन्होंने सीखे ।।
थे मांडलिक यहाँ पर राजा ।
बाद श्रमण भव-जलधि-जहाजा ।।२।।

शगुन नेक सद्‌-गुण आभरणा ।
व्रत सिंह निष्क्रीड़ित आचरणा ।।
धन ! प्रायोपगमन सन्यासी ।
विमान वैजयन्त अधिशासी ।।३।।

‘गर्भ-पर्व’ छह महीने पहले ।
रत्न बरसने लगे रुपहले ।।
लिये हाथ में भेंट अनोखी ।
माँ सेविका देवि-देवों की ।।४।।

सार्थ नाम धर आप समाना ।
नृप ‘जित-शत्रु’ सुमित्र जहाना ।।
नगर अयोध्या अर रजधानी ।
नाम देवि विजया पटरानी ।।५।।

सपने लगे हुये से अपने ।
देखे माँ ने सोलह सपने ।।
मानो कोई बाल पुकारे ।
“जागो माँ हम आये द्वारे”।।६।।

गर्भ ज्येष्ठ तिथि मावस श्यामा ।
नाम रोहिणी रिख अभिरामा ।।
कुल इक्ष्वाकु-प्रदीप कहाये ।
कौशल देश स्वर्ग से आये ।।७।।

माघ शुक्ल दिन दशमी जनमे ।
स्वर्ग उतर आया भू छिन में ।।
योग प्रजेश जन्म विख्याता ।
वृषभ राशि जुड़ चाला नाता ।।८।।

नाम रोहिणी रिख अवतारी ।
आभा तप्त स्वर्ण मनहारी ।।
शचि आई, बालक को लाई ।
अवतारी भव-एक कहाई ।।९।।

हिवरा फूला नहीं समाया ।
बाल गोद सौधर्म थमाया ।।
पार रुप कब नेत्र सफीने ।
नेत्र हजार इन्द्र ने कीने ।।१०।।

ऐरावत की किस्मत जागी ।
सेवा हाथ भागवत लागी ।।
रच सुमेर अभिषेक अनोखा ।
सुर-गण पुण्य कमाया चोखा ।।११।।

पैर उखड़ते दीखे यम के ।
नृत्य किया ताण्डव फिर जमके ।।
यादगार ये दृश्य अनूठे ।
फबे चिन्ह गज पाँव अँगूठे ।।१२।।

बढ़ने लगे दूज चन्दा से ।
निष्कलंक शशि पूनम भासे ।।
दर्श मात्र अपहारक-पीडा ।
धनु ‘अध-शत-चउ’ तुंग शरीरा ।।१३।।

वय लख अठ-दश पूर्व कुमारा ।
पूर्व बहत्तर लख वय धारा ।।
निमित्त उल्का पात बनाया ।
यह संसार जान के माया ।।१४।।

बारह सभी भावना भाये ।
देव तभी लौकान्तिक आये ।।
”विरला थामे केतु-अहिंसा”।
लगे बाँधने सेतु-प्रशंसा।।१५।।

बिन ओड़े दैगम्बर-बाना ।
भ्रम व्रत-मन्दिर कलश चढ़ाना ।।
देव-शास्त्र-गुरु का कहना है ।
संयम भव-मानव गहना है ।।१६।।

सिर्फ न लोचन, मन-मन भाई ।
नाम सुप्रभा शिविका आई ।।
राजा अजित पधारे आ के ।
हर्षाये सुर-असुर उठा के ।।१७।।

पुर परिजन ने दूर तलक आ ।
किया विदा निज-नैन-उदक ला ।।
नगर अयोध्या जाना-माना ।
नाम सहेतुक तप उद्याना ।।१८।।

मुँह लग वृक्ष गगन बतियाई ।
भो ! चउपन सौ धनुष उँचाई ।।
साथ सहस राजे महराजे ।
तर सप्तच्छद आन विराजे ।।१९।।

‘णमो सव्व सिद्धाणं’ बोला ।
दिया उतार राजसी चोला ।।
पंच मुष्टी लुंचन अपना के ।
खड़े हो गये ध्यान लगा के ।।२०।।

दीक्षा शुक्ल माघ तिथि नवमी ।
अपराह्निक छवि रवि खर रशमी ।।
रिक्ष रोहणी दीक्षा न्यारा ।
षष्टम भक्त नियम उर धारा ।।२१।।

विसर पूर्व-भव-तापस शेखी ।
लगा टक-टकी नासा देखी ।।
कर अफसोश दोष-कृत पिछले ।
हरकत बिना तीन दिन निकले ।।२२।।

रखे दर्श-मुनि हित बेशबरी ।
मनहर बड़ी अयोध्या नगरी ।।
हेत पारणा आये स्वामी ।
राजा ब्रह्मदत्त इक नामी ।।२३।।

नवधा भक्ति से पड़गाया ।
गो-क्षीरान्न अहार कराया ।।
पुण्य सातिशय अबकि बोने ।
पञ्चाश्चर्य किये देवों ने ।।२४।।

बीते वर्ष द्वादशी श्वासा ।
गले उतार ध्यान परिभाषा ।।
बस अन्तर्मुहूर्त इक लागा ।
सुप्त चतुष्टय-अनन्त जागा ॥२५।।

शुक्ल ग्यारसी पौष्य निराली ।
अपराह्निक बेला सुखकारी ।।
नियम धारणा धारी बेला ।
नखत रोहिणी वाली बेला ।।२६।।

विपिन सहेतुक छव लासानी ।
सप्त-वर्ण तर केवलज्ञानी ।।
ऊँचाई धनु मानस्तंभा ।
‘चउ-पन सौ’ धुनि माँ जगदम्बा ।।२७।।

कोट उँचाई यही बताई ।
चैत्य ‘वृक्ष’ सिद्धार्थ गुसाईं ।।
गिरि-तोरण भी इतने ऊँचे ।
इतने ऊँचे ध्वज नभ गूँजे ।।२८।।

वेदिस्-तूप न इससे ज्यादा ।
विस्तृत इतने ही प्रासाद ।।
कोट, वेदि सम-शरणा साँची ।
पृथु ‘अध शत तेरस’ धनु वाँची ।।२९।।

‘शत छ: तीस’ धनुष गिर चौड़े ।
तूप अर्ध ‘शत’ चउ अर थोड़े ।।
अध ‘युज’ ‘दशिक’ प्रमाण सभा का ।
कोस छियालिस मान सभा का ।।३०।।

सिंहासन पद्मासन माड़े ।
चौषठ चँवर लिये सुर ठाड़े ।।
छतर तीन सिर-ऊपर डोलें ।
देव-दुन्दुभि मिसरी घोलें ।।३१।।

भामण्ड़ल भव-भव दर्पण है ।
झिर लग गंधोदक बर्सण है ।।
मन्द-मन्द चाले पवमाना ।
पुष्प-वृष्टि नन्दन बागाना ॥३२।।

तर अशोक तर छटा निराली ।
ध्वनि शिव-स्वर्ग भिंटाने वाली ।।
गुण अनुरूप नाम सम शरणा ।
वैर छोड़ बैठे सिंह-हिरणा ।।३३।।

सहज केवली सहस्र बीसा ।
पूर्व अर्ध ‘शत’ सप्तक तीसा ।।
शत चुरानवे अवधि प्रकाशा ।
गणि ‘नव-नाम’ रसिक दृग् नासा ।।३४।।

विक्रिय चौ-सौ, बीस हजारा ।
वादि चार सौ, हजार-बारा ।।
‘विपुल’ नाम गुण तथा विराटा ।
गुरु हजार दो इक सौ साठा ।।३५।।

गणि सिंह-सेन घाट वैतरणी ।
प्रमुख आत्म गुप्ता माँ गणनी ।।
फिर लख तीन बीस हज्जारा ।
‘नाम सगर’ मुख श्रोतृ पुकारा ।।३६।।

लाख-तीन सुधि श्रावक शोभें ।
पाँच-लाख श्राविका सुशोभें ।।
महायक्ष ‘यग-यक्ष’ सुनो जी ।
नाम रोहिणी ‘यक्षि’ चुनो जी ।।३७।।

निस्पृह सिखला आखर-ढ़ाई ।
मास पूर्व ली सभा विदाई ।।
तिथि सित चैत्र पञ्चमी मोखा ।
प्रात रोहिणी रिक्ष अनोखा ।।३८।।

कूट सिद्ध-वर गिर सम्मेदा ।
मुद्रा कायोत्सर्ग समेता ।।
जा पहुँचे शिव समय मात्र में ।
ऋषि-गण सिद्ध हजार साथ में ।।३९।।

चौरासी केवली अनबद्धा ।
सहस सतत्तर अर सौ सिद्धा ।।
कहूँ कहाँ तक पार न आता ।
‘सहज-निराकुल’ मौन सुहाता ।।४०।।

‘दोहा’
इनका, उनका हो चला,
सुनते बेड़ा पार ।
नजर उठाकर देख लो,
मुझको भी इक बार ।।
ॐ ह्रीं श्री अजित नाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।

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