पुरु-देव पुण्य कीर्तन
(१)
‘भक्’-तों को है आशा तुमसे ।
‘ता’रो क्यूँ रूठे हो हमसे ।।१।।
‘म’मता रखते हो माँ जैसी ।
‘र’चना हो तुम अपने जैसी ।।२।।
‘प्र’तिमा तुम करुणा, दया, क्षमा ।
‘णत’ विनत प्रणत नित नमो नमा ।।३।।
‘त’रि भगत लगा आते तुम तट ।
‘मौ’हित ना तुझ पे यूँ हि जगत् ।।४।।
‘लि’ख नाम भक्त देते सावन ।
‘म’रहम मरहम हों, इक भावन ।।५।।
‘नि’त भक्तों के मन की करते ।।
‘प्र’ति समय भक्त पीड़ा हरते ।।६।।
‘भा’रत प्रतिभा…रत भक्त तोर ।
‘ना’ खड़े आपके भक्त होड़ ।।७।।
‘मु’झको बस तिरा सहारा है ।
‘द्यो’तित तुमसे जग सारा है ॥८।।
‘त’कलीफ और पहिचानो तुम ।
‘कं’चन व कॉंच इक मानो तुम ॥९।।
‘द’र-पर तेरे जो आते हैं ।
‘लि’ख भाग हाथ खुद जाते हैं ॥१०।।
‘त’हजीब और तरतीब सिखा ।
‘पा’रमरता देते तुम विहँसा ॥११।।
‘प’तवार पोत शिव हाथों में ।
‘त’करार कहाँ तुम बातों में ॥१२।।
‘मो’रा मन देखे उठे झूम ।
‘वि’श्वेक आप पीछे हुजूम ॥१३।।
‘तान’स बह चाली दूध-गंग ।
‘म’न एक न उठती अब तरंग ॥१४।।
‘सम्य’क्-दर्शन तुम दृढ़ निमित्त ।
‘क’ल आज-एक कल्याण मित्र ॥१५।।
‘प्र’तिदिन माँगा हिसाब खुद से ।
‘नम’, पाया बेहिसाब खुद-से ॥१६।।
‘य’म ने रद बिच दाबी अंगुली ।
‘जि’द-बुरी, भली-जिद में बदली ॥१७।।
‘न’दिया सा दर्द बटा लेते ।
‘पा’से पलटे, पलटा देते ॥१८।।
‘द’र्पण सा मन, हन-जोड़-तोड़ ।
‘यु’ग भागा पीछे दौड़-दौड़ ॥१९।।
‘गम’ जा-के यम के गाँव दिखा ।
‘यु’ग-नाव न अपना पाँव रखा ॥२०।।
‘गा’या ‘कि गीत आतम भाया ।
‘दा’बा न किया, कर दिखलाया ॥२१।।
‘वा’सा तुम भक्त-हदय करते ।
‘लं’बा मग, रख पग तय करते ॥२२।।
‘बन’ पाहन मील न सोये तुम ।
‘म’न सावन नीर न रोये तुम ॥२३।।
‘भ’य रहित बना अपना जीवन ।
‘व’श अपने कर दिखलाया मन ॥२४।।
‘ज’ल जीवन जीवन में पाले ।
‘ले’ सबको सँग, सँग सब चाले ॥२५।।
‘प’वमान समान अहा निसंग ।
‘त’र गये ‘कि तर सत-भंग-गंग ॥२६।।
‘ताम’सता चली गई रोते ।
‘ज’ल जन्म लगाना क्या गोते ॥२७।।
‘ना’ना दुर्गति दीं छेद सभी ।
‘नाम’नी स्वर्ग-शिव केत तभी ॥२८।।
भक्ता-मर(प्) प्र-णत मौलि-
मणि(प्) प्र-भाणा-
मु(द्)-द्यो-तकं दलित-पाप-
तमो-वि-तानम् ।
सम्यक् प्र-णम्य जिन पाद-
युगं युगा-दा-
वा-लम्बनं भव जले
पततां जनानाम् ॥१॥
(२)
‘यह’ देख चुके कर अनुभव हम ।
‘संस्तु’ति गा तुम, गुम होते गम ॥१।।
‘त’ट लगती चाह अधूरी है ।
‘ह’सरत हो जाती पूरी है ॥२।।
‘स’रगम रहती परिणति डूबी ।
‘क’मियाँ बन जातीं हैं खूबीं ॥३।।
‘ल’हराता-दूर गगन परचम ।
‘वां’छा कर सके न आँखें नम ॥४।।
‘म’न-पोत परिंदा बन लौटे ।
‘य’म खाली हाथ भवन लौटे ॥५।।
‘तत्’त्वों से जुड़ा आप रिश्ता ।
‘व’हमों ने लिया नाप रस्ता ॥६।।
‘बो’झा हो गया धरा-साई ।
‘धा’गा सुलझा न गाँठ आई ॥७।।
‘दु’क्खों की आई शामत है ।
‘द’र्दों में आई राहत है ॥८।।
‘भू’लों ने खींचे पकड़ कान ।
‘त’ब तलक, प्रयाण न किये प्राण ॥९।।
‘बुद्’धी सर मानस हंस भाँत ।
‘धि’क्कार बदल, उपहार हाथ ॥१०।।
‘प’ङ्क्ति आये हर-दिल अजीज ।
‘टु’कड़े-टुकड़े पाई न चीज ॥११।।
‘भि’ड़ने न भिड़ाने का हो मन ।
‘ह’मसफ़र निराकुल-सहजो-पन ॥१२।।
‘सुर लोक’ उतर धरती आया ।
‘ना’मुकिन, फन-मुमकिन पाया ॥१३।।
‘थै’ला लागा जादुई हाथ ।
‘ह’म राज, राज की हुई बात ॥१४।।
‘स्त्रो’त आपका क्या गाया ।
‘त्रै’विद्-बुध संबोधन आया ॥१५।।
‘र’ग रक्त बने धावें सपने ।
‘जग’ ने सिर बैठाया अपने ॥१६।।
‘त’प मंदिर सिर कलशे छाये ।
‘त्रि’क सांझों ने जलसे पाये ॥१७।।
‘तय’ हुआ आसमाँ छू लेना ।
‘चित्’-हर सुर, नर खुशबू देना ॥१८।।
‘तह’ आना छू बिच मेधावी ।
‘रै’ना न तिमिर होना हावी ॥१९।।
‘रु’तबा कुछ हटके लगा भाग ।
‘दा’मन में रही न जगह दाग ॥२०।।
‘रै’ना सुन वैना-जिन बीते ।
‘ह’म-दर्द हुये नैना तीते ॥२१।।
‘स्त्रो’त हुआ ‘सुर-भी’ धारी ।
‘ष’ट्-पद खो गई गहल सारी ॥२२।।
‘ये’ जग, जग वो दोनों मेरे ।
‘कि’ छुये ही थे चरणा तेरे ॥२३।।
‘ला’सानी हाथ हुनर आई ।
‘हम’-राह स्वर्ग-शिव ठकुराई ॥२४।।
‘पिं’जरा मिल गया खुला पांखी ।
‘तं’द्रिल परिणति बगलें झाँकी ॥२५।।
‘प्रथ’मा में पढ़े अखर-ढ़ाई ।
‘मम’ जीवन लहर-खुशी छाई ॥२६।।
‘जि’न विनती में क्या हुये लीन ।
‘ने’त्रों की गिनती हुई तीन ॥२७।।
‘न’जराने में पारस पाया ।
‘द्रम’ द्रम मृदंग ने जश गाया ।।२८।।
यः सन्-स्तुतः सकल वाङ्-मय-
तत्त्व-बोधा-
दुद्-भूत बुद्धि पटुभिः
सुर-लोक-नाथैः ।
स्तो-त्रैर्-जगत्-त्रितय चित्त
हरै-रुदारै:
स्तोष्ये किलाह-मपि तं
प्र-थमम् जिनेन्द्रम् ॥२॥
(३)
‘बुद्’धी ने किया द्वार खट-खट ।
‘ध्या’या ‘कि तुम्हें विघटा संकट ।।१।।
‘बि’क चन्दन मोल गई माटी ।
‘ना’ लाठी लिये-पार घाटी ॥२।।
‘पि’क कूके घर, वन छोड़-आम ।
‘वि’श्वास विश्व अभिजित तमाम ॥३।।
‘बु’जदिली दिखाई दूर कोस ।
‘धार’ण मन करने लगा तोष ॥४।।
‘चि’त् जन-जन चोरी लगी हाथ ।
‘त’र परिणति धौरी लगी हाथ ॥५।।
‘पा’रा चढ़ता अब कभी नहीं ।
‘द’रिया चढ़ता अघ कभी नहीं ॥६।।
‘पी’ड़ा छू-मन्तर पल-अन्दर ।
‘ठ’ण्डक सी रहती दिल-अन्दर ॥७।।
‘स्तो’क, न ज्यादा जिनराया ! ।
‘तुम’ गान शगुन-गुण जिन गाया ॥८।।
‘स’न्तति यम, जनम विदग्ध बीज ।
‘मुद्’दत से खोई मिली चीज ॥९।।
‘य’ह क्या ‘फन-उधार’ जा बिखरा ।
‘त’रु सा उदार बनता हिवरा ॥१०।।
‘म’हसूस हुआ अहसास जवां ।
‘ति’नके तोड़े मॉं, बला हवा ॥११।।
‘रवि’ रश्मि प्रथम फेकें घर पर ।
‘ग’म, न झूठ भी देखे मुड़ कर ॥१२।।
‘त’स्वीर प्रसन्न रंग पाकर ।
‘त्र’स पा पर्याय गया थावर ॥१३।।
‘पो’थी आई पढ़ना कोरी ।
‘हम’-दम राधा शिरपुर गोरी ॥१४।।
‘बा’-बाजी लगी हाथ देखा ।
‘लं’बी खिंच चली हाथ रेखा ॥१५।।
‘वि’पदाओं से आया लड़ना ।
‘हा’सिये लिखा आया पड़ना ॥१६।।
‘य’ह लगा हाथ वो क्षितिज छोर ।
ज’म गई बात बिन वक्त मोर ॥१७।।
‘ल’ग पा रही न पश्चिमी हवा ।
‘सं’यम की ओर झुका मनवा ॥१८।।
‘स्थित’ प्रज्ञों में जुड़ा नाम ।
‘मि’थ्यात्व लगा दर मृत्यु धाम ॥१९।।
‘न’निहाल हो गया फन-साहस ।
‘दु’म दबा भागने को आलस ॥२०।।
‘बिं’दास घूम भीतर आता ।
‘ब’ल भुजा तीर सागर नाता ॥२१।।
‘मन’ को मनका मिल गया मीत ।
‘यह’ क्या, मन सहज हुआ विनीत ॥२२।।
‘क’ल्मष का ढ़ीला हाल-चाल ।
‘इच्’छा दीने हथियार डाल ॥२३।।
‘छ’तरी बदली बन चली, घाम ।
‘ति’तली-से जीवन रंग नाम ॥२४।।
‘जन’-मत पा सौ-फीसदी गया ।
‘ह’म-जोली गौरी दया-हया ॥२५।।
‘स’मकित बेदागदार-दामन ।
‘ह’कदार सार संसार सुमन ॥२६।।
‘सा’हस जागृत हित साधु-दिशा ।
‘ग्र’स, ग्रस पा रही न राहु दशा ॥२७।।
‘ही’…रा-रा…ही मंजिल पाया ।
‘तुम’ राही-शाही मिल आया ॥२८।।
बुद्ध्या विनापि वि-बुधार्-चित
पाद पीठ !
स्तोतुं समु(द्)-द्यत् मतिर्
वि-गत(त्)-त्रपो-हम् ।
बालं विहाय जल-संस्-थित-
मिन्दु-बिम्ब-
मन्यः क इच्-छति जनः
स-हसा(ग्)-ग्रही-तुम् ॥३॥
(४)
‘वक’ परिणति लय-आलय प्रयाण ।
‘तुम’ गुण गाथा क्या पड़ी कान ॥१।।
‘गु’म फानी हुई शरारत है ।
‘ना’दानी हुई नदारत है ॥२।।
‘न’ बढ़ायें डग, डग-मग सद्-गुण ।
‘गुण’ कार बढ़े जा रहे शगुन ॥३।।
‘स’रसुति माँ कण्ठ विनय रस्ते ।
‘मु’ह-बोले जग जोड़े रिश्ते ॥४।।
‘द्र’व बन बह चली दया नस-नस ।
‘श’बरी रख शबर कमाया जश ॥५।।
‘शां’ती से हुआ स्वयंवर है ।
‘क’रजा अब रहा न सिर पर है ।।६।।
‘कान’न तारीफ सुनाई दी ।
‘ता न’स पन-चीप बधाई दी ॥७।।
‘कस्’बा आदर्श इनाम नाम ।
‘ते’तीस-तीन-परिणाम शाम ॥८।।
‘क्ष’मता से बढ़ समता आई ।
‘म’मता न अहमता टकराई ॥९।।
‘ह’म डूब भक्ति तुम सर अथाह ।
‘सुर गुरु’ मुख निकला वाह-वाह ॥१०।।
‘प्र’त्येक मोर अंगुली घी-में ।
‘ति’कड़म भूला, बोलूॅं धीमे ॥११।।
‘मो’रा झुक झूमे बिन बदली ।
‘पि’क मधु ऋतु बिना हुई पगली ॥१२।।
‘बु’नकर के हाथ लूम धागा ।
‘द’म भरता पना-सूम, जागा ।।१३।।
‘ध’क-धक दिल एक हुई सरगम ।
‘या’दों ने लिये स्वयं सर-गम ॥१४।।
‘कल’धौत-स्वर्ण मेरी चाँदी ।
‘पा’ गया परिन्दा आजादी ॥१५।।
‘न’स-नस निवसा पापन-गल-फन ।
‘त’सरीफ ले गया पागल पन ॥१६।।
‘का’बिल गिनती में गया गिना ।
‘ल’ग शिल, कीमत पा गई हिना ॥१७।।
‘प’क चली बीरबल की खिचड़ी ।
‘व’रवश दी दैव बना बिगड़ी ॥१८।।
‘नो’नो सो ‘जी’ हो चालो है ।
‘ध’रती-धृति बदलो पालो है ॥१९।।
‘तन’ चेतन नीर-क्षीर हंसा ।
‘क्र’म लाँघ कर्म अवसर ध्वंसा ॥२०।।
‘च’क-मक बिन हुई रोशनी है ।
‘क्र’म छोड़ हुई निधि-अपनी है ॥२१।।
‘को’ने-कोने छाई मस्ती ।
‘वा’बत मेरे प्रकृति हँसती ॥२२।।
‘त’र परिणति साँझन हरी-हरी ।
‘री’ती गगरी क्या झुकी, भरी ॥२३।।
‘तुम’ पद-रज क्या माथे आई ।
‘ल’क्ष्मी लकीर माथे लाई ॥२४।।
‘मम’ मदद, विरद तुम कीनी है ।
‘बु’त मति अद्भुत कर दीनी है ॥२५।।
‘निधि’यों ने हाथ सकोचा ना ।
‘म’न भर दे दीना, सोचा ना ॥२६।।
‘भु’गतान न बाकी पाई है ।
‘जा भ’य दे दूर दिखाई है ॥२७।।
‘या’रों ने फिर धागा जोड़ा ।
‘म’न ने मन माना-पन छोड़ा ॥२८।।
वक्तुं गुणान्-गुण-समुद्र !
शशाङ्क-कान्तान्,
कस्-ते(क्) क्षमः सुर-गुरु(प्)-
प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।
कल्पान्त-काल प-वनोद्धत-
नक्र-चक्रं,
को वा तरीतु-मल-मम्बु-
निधिं भुजाभ्याम् ॥४॥
(५)
‘सो’ने अद्भुत फूटे सुगन्ध ।
‘हम’-शक्ल हुई मुस्कान-मन्द ॥१।।
‘त’क रहा टक-टकी लगा दौर ।
‘था’ दुखिया, अब सुखिया न और ॥२।।
‘पि’चकारी अलग रंग सबसे ।
‘तव भक्ति’ तान छेड़ी जब से ॥३।।
‘व’शि मन्तर वशीकरण आया ।
‘शा’नो-शौकत जादू छाया ॥४।।
‘न’न्हें डग मर्म-धर्म सीखा ।
‘मु’लजिम कटघरे कर्म दीखा ॥५।।
‘नी’ला आकाश, हरी धरती ।
‘श’शि बॉंटे अमृत दिखा फुरती ॥६।।
‘कर’ खोज समस्या लाता हल ।
‘तुम-स्त’व, लगता समय न पल ॥७।।
‘वं’शिका, वंश पाता रुतवा ।
‘वि’घनन-घन,थव-तव हवा, हवा ॥८।।
‘ग’ङ्गा आ निकली घर आगे ।
‘त’र नींद अभी सूरज, जागे ॥९।।
‘श’व छुआ पड़ाव न, शिव पाया ।
‘क’ङ्कर दिखलाई शिव आया ॥१०।।
‘तिर’ गई तरी कागज़ मेरी ।
‘पि’त-मात-जगत् दे कर फेरी ॥११।।
‘प्र’तिभा-रत प्रति भारत सदस्य ।
‘वृ’न्दावन गो, गोपाल दृश्य ॥१२।।
‘त’ह टिका सुधी, ऊपर आया ।
‘तह’ टिका न घी, ऊपर आया ॥१३।।
‘प्री’ती अनीति चित् चार कोन ।
‘त’न प्रीति विलाई आप मौन ॥१४।।
‘यात’रि पाँवन नापे वसुधा ।
‘म’न माफिक ‘ना-धिक्’ लुटा सुधा ॥१५।।
‘वी’णा ने पाये हाथ सदे ।
‘र’ण चितवन जित मन्मथ सजदे ॥१६।।
‘यम’ भाईं गुस्ताखियाँ मोर ।
‘वि’रली मम दृग्-शबनमी-कोर ॥१७।।
‘चा’मर क्या ढ़ोरे तुम आगे ।
‘र’ण छोड़ दौड़ औगुन भागे ॥१८।।
‘य’क आया नजर हिरासत में ।
‘मृ’दुता मिल गई विरासत में ॥१९।।
‘गी’ता-संचार-सार रग-रग ।
‘मृ’णमय-चिन्मय है अलग-अलग ।।२०।।
‘गे’रिक जा झूमे गगन ध्वजा ।
‘न’न्हें-मुन्हें मन भाँति भिंजा ॥२१।।
‘द्र’व्यों में द्रव्य आत्म भाई ।
‘म’न रखे पैर बच-बच काई ॥२२।।
‘ना भ’रम रहा, पद मिले निशाँ ।
‘ये’ क्या उजयाली हाथ निशा ॥२३।।
‘ति’थि पूर्णा, आये अतिथि द्वार ।
‘किं’चित् न ‘हेत-चित्’ चित्-गुबार ॥२४।।
‘निज’ और पराया गुमा भेद ।
‘शि’क्षा-चौ-पाई जुबां वेद ॥२५।।
‘शो’भा दिन दूनी और रात ।
‘ह’मदम, न पात में पात बात ॥२६।।
‘परिपाल’न बीड़ा मोर तोर ।
‘ना’ तोर अलावा और मोर ॥२७।।
‘रथ’ निस्वारथ ले लो पीछे ।
‘म’म शक्ति न, ले चालो खींचे ॥२८।।
सोऽहं त-थापि तव भक्ति
वशान्-मुनीश !
कर्तुन्स्-तवम् विगत शक्ति-
रपि(प्) प्रवृत्तः ।
प्री(त्)-त्यात्म-वीर्य-मविचार्य
मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज-शिशोः
परि-पाल-नार्-थम् ॥५॥
मॉं सरसुति गुण संस्तवन
(६)
‘अल’ सुबह कभी सोते न रहे ।
‘पल’ सुबह कभी खोते न रहे ॥१।।
‘श्रुत’ इक जनयिता अकेले तुम ।
‘म’न के सब हुये झमेले गुम ॥२।।
‘श्रु’त आप सँभाले जीवन है ।
‘त’कलीफ विहर, संजीवन है ।।३।।
‘व’रवश देता सब बना काम ।
‘ताम’सता हा ! विनशा तमाम ॥४।।
‘प’रिचय तत्त्वों से करवाता ।
‘रि’पु कौन ? हितैशी बतलाता ॥५।।
‘हा’लात बुरे देता सुलटा ।
‘स’त्-शिव-सुन्दर क्या-पन्थ बता ॥६।।
‘धा’रा-चिर-स्वाभिमान पूरे ।
‘म’नसूबे हा-भिमान चूरे ।।७।।
‘तव द’त्त ज्ञान धारा विचित्र ।
‘भक्’तन तुम मन करती पवित्र ॥८।।
‘ति’रछा-आड़ा कर ठीक वक्त ।
‘रे’ता-ऊर्-ध्वत्व करे प्रदत्त ॥९।।
‘व’धि-रन्धन बीच दिलाये हक ।
‘मु’रझाये दे चेहरे रोनक ॥१०।।
‘ख’त शिव राधा तक भिजा रही ।
‘री’ता घट अन्तर् भिंजा रही ॥११।।
‘कु’छ और पास निज लाती है ।
‘रु’त आत्म मिलन दिखलाती है ।।१२।।
‘ते’वर गुरूर दे चूर-चूर ।
‘ब’रकत वरदान प्रदत्त शूर ॥१३।।
‘लान’त दे जीवन से निकाल ।
‘मा-म’द-करना, दे सीख बाल ॥१४।।
‘यत्’-नन से जोड़ रही रिश्ता ।
‘को’ताही दिखा रही रस्ता ।।१५।।
‘कि’स्मत, न रूठने क्षण देती ।
‘लह’रें न उछलने मन देती ॥१६।।
‘कि’ल्विष का पत्ता काटे है ।
‘ल’ख-लख बधाईयाँ बाँटे है ॥१७।।
‘म’न बोझ उतार रखा सारा ।
‘धौ’री कर दी अन्तर्-धारा ॥१८।।
‘म’ग कण्टक करे सकल वारण ।
‘धु’व-तारक करे बीच तारन ॥१९।।
‘रम’ते निज में, मन के सच्चे ।
‘वि’द्वान सभी जिसके बच्चे ॥२०।।
‘रौ’थन करते, रौंदन डरते ।
‘ति’सना-मृग हट, मंजिल वरते ॥२१।।
‘त’कते न दूर, तकते न पास ।
‘च’रणन भी-माँ बन रहें दास ॥२२।।
‘चामर’ तक रहे राह, सारे ।
‘चा’दर इन टकें चाँद-तारे ॥२३।।
‘रु’तवा कुछ जिनका रहा अलग ।
‘क’रुणा झरने झरते रग-रग ॥२४।।
‘लि’क्खा जिन भाग गगन छूना ।
‘का’ञ्चन-मणि जोग सभा होना ॥२५।।
‘निक’ले ‘कि पन्थ, न-पास-पाई ।
‘रै’ना न रहे जीवन छाई ॥२६।।
‘क’ब फरक गैर रखने वाले ।
‘हे’ ! निरख पैर रखने वाले ॥२७।।
‘तु’म और तुम्हारी माँ अद्भुत ।
‘ह’म तुम्हें ढ़ोक देते नित-प्रत ॥२८।।
अल्प(श्)-श्रुतं श्रुत-वतां
परि-हास-धाम,
त्वद्-भक्ति-रेव मुखरी-
कुरुते बलान्-माम् ।
यत्-कोकिलः किल मधौ
मधुरं विरौति,
तच्-चाम्र-चारु-कलिका-
नि-करैक हेतुः ।।६।।
(७)
‘तव त’त्त्व देशना शिव सुख-कर ।
‘संस्’-कारों का अंकुरण अपर ॥१।।
‘त’हजीब सिखाने वाली है ।
‘वे’दना मिटाने वाली है ॥२।।
‘न’फरत विघटाने वाली है ।
‘भ’गवान् बनाने वाली है ॥३।।
‘व’र-हित-उपदेशक एक यही ।
‘सन्’-तति-भव छेदक एक यही ॥४।।
‘त’रणी शिव और न यही एक ।
‘ति’रनी दिव और न यही एक ॥५।।
‘सन्’-तान-कादि बरसा प्रसून ।
‘नि’यमित दे बिन अन्तर शुकून ॥६।।
‘बद’ हाल-हाल दे बदल सकल ।
‘धं’धा गोरख-हर, अटकल हल ॥७।।
‘पा’पन-पन दे मढ़ माथे रज ।
‘पं’ड़ित-पंड़ित दे मरण सहज ॥८।।
‘क्ष’य होता पाप कषाय-दौर ।
‘ना’-तम पाता विस्तार और ॥९।।
‘क्ष’त्रिय-पन चिर-विस्मृत थाती ।
‘य’म, संयम, नियम बनें साथी ॥१०।।
‘मु’स्कान मिले, मृदु कर्ण-बोल ।
‘पै’से से चीज मिले अमोल ॥११।।
‘ति’नके कर टूक नजर हरती ।
‘श’श गफलत चूर-चूर करती ॥१२।।
‘री’ पन समूल कर चूर-चूर ।
‘र’द-नूर बिखेरे दूर-दूर ॥१३।।
‘भा’ भान समान सप्रेम भेंट ।
‘जाम’न नव-नव दे मरण मेंट ॥१४।।
‘आ’सान बना राहें देती ।
‘क्रा’न्ती ला जीवन में देती ॥१५।।
‘त’प-तरणी देती लगा पार ।
‘लो’केषण करके दर किनार ॥१६।।
‘क’ल, मूड़ न दे चढ़ने हरगिज ।
‘म’गरूर न बनने हरगिज ॥१७।।
‘लि’क्खी बद-किस्मत सोने दे ।
‘नी’लाम न अस्मत होने दे ॥१८।।
‘ल’ख लख माँ श्रुत तुमको प्रणाम ।
‘म’न वचन काय से आठ याम ॥१९।।
‘शे’रे-माँ श्रुत ! तुमको प्रणाम ।
‘ष’ट काय जीव मा-हनन-धाम ॥२०।।
‘मा’-हनन-धर्म माथे अबीर ।
‘शु’क्लन लेश्या धर धीर-वीर ॥२१।।
‘सूर’ज इक आज जैन शासन ।
‘यां’चादि राज विद् माँ-माहन ॥२२।।
‘शु’भ-मंगल-कर, भव-पार-यान ।
‘भिन्’-नार्त, रौद्र संसार ध्यान ॥२३।।
‘न’ कभी करते पल-गजस्-नान ।
‘मि’लते करते नित ज्ञान-ध्यान ॥२४।।
‘व’रताब मित्र अरि एक भाँत ।
‘शार’द सेवा रत दिवस-रात ॥२५।।
‘व’नशी नित चैन बजाते वो ।
‘र’तियाँ नम नैन बिताते जो ॥२६।।
‘मन’ इनका सोचे बुरा नहीं ।
‘ध’न इन्हें चाहिये जरा नहीं ॥२७।।
‘का’गा धोने न मलें साबन ।
‘रम’ते ग्रीषम-ठण्डी-सावन ॥२८।।
त्वत्-सन्स्-तवेन भव सन्तति-
सन्-निबद्धं,
पापं क्षणात्-क्षय-मुपैति
शरीर-भाजाम् ।
आ(क्)-क्रान्त लोक-मलि-नील-
मशेष-माशु,
सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-
मन्-धकारम् ॥७॥
गुरु देव गुण सुमरण
(८)
‘मत’-अनेकान्त-धन तर खींसा ।
‘वे’गों से छुड़ा चुके पीछा ॥१।।
‘ति’थि बिन जा-आयें, अतिथि इतर ।
‘ना’चें न नचायें अंगुली पर ॥२।।
‘थ’र-थर कॅंपने की बात नहीं ।
‘त’न पर नहिं,कुछ भी हाथ नहीं ॥३।।
‘व’न्शज-जप, जिनका ओम्-ओम् ।
‘संस्’-कारित जिनका रोम-रोम ॥४।।
‘त’प-तप दहते नव कर्म-पूर्व ।
‘व’रदानी है छैय्या अपूर्व ॥५।।
‘नम’ते, ज्यों बेंत निरख अन्धर ।
‘म’ति, सन्मति इक बाहर-अन्दर ॥६।।
‘ये’ रहते आपे में हरदम ।
‘द’म देने, भरते कहाँ कदम ॥७।।
‘मा’या कब फाँस सकी इनको ।
‘र’ति रख कब पाश सकी इनको ॥८।।
‘भय’ देख इन्हें झाँके बगलें ।
‘ते’वर डर देख इन्हें भग लें ॥९।।
‘त’ब, जब, अब, बना रखी सबसे ।
‘नु’क्ता-चीनी न चखी कब से ॥१०।।
‘धि’क् सुना कान कब नहीं याद ।
‘या’त्री यह फिर शशि-भान बाद ॥११।।
‘पि’क बोल मधुर इन विरद अतः ।
‘त’ह-दिल करते जन मदद, पता ॥१२।।
‘व’र देते कला बहत्तर हैं ।
‘प्र’श्नों से परे, अनुत्तर हैं ॥१३।।
‘भा’-वाणी तम अन्तर् हरती ।
‘त’कते इक टक अम्बर, धरती ॥१४।।
‘चे’तन थिर बैठ निरखते हैं ।
‘तो’ते, क्यों कर कब उड़ते हैं ॥१५।।
‘ह’रि तज, भजते हरि खूब डूब ।
‘रिस’ते रिश्तों से गये ऊब ॥१६।।
‘य’जते भजते इक आत्म राम ।
‘ति’हुकाल त्रियोग तिन्हें प्रणाम ॥१७।।
‘स’र और लिया अपने बोझा ।
‘ता-म’ठ परमात्म न जा खोजा ॥१८।।
‘न’हिं अकल लड़ानी अपनी है ।
‘लि’क्खी संहिता पग नपनी है ॥१९।।
‘नी’चे अपने से, उन्हें लखें ।
‘द’ल-दल नपने इक पैर रखें ॥२०।।
‘ले’ फैंके नभ तरफी न धूल ।
‘सु’मनों-से रह लें बीच शूल ॥२१।।
‘मुक्’ताफल बनें, छुयें पत्थर ।
‘ता’रीफ करें नर, उरग, अमर ॥२२।।
‘फ’न सिवा उठाने फन विद् सब ।
‘ल’ड़ते अधिकार न, हित करतव ॥२३।।
‘द्यु’ पड़े राह में चाहें ना ।
‘ति’ष्णा-सरिता अवगाहें ना ॥२४।।
‘मु’श्किलें भले खे लें किश्ती ।
‘पै’ना दिमाग, पैनी दृष्टि ॥२५।।
‘ति’रका यह तीन कहे गुरु से ।
‘न’खरे न चढ़ाये सिर शुरु से ॥२६।।
‘नू’-नच पल कब आदरते हैं ।
‘द’म-तलक कहाँ दम भरते हैं ॥२७।।
‘बिन’ लाठी इन बाना ओड़ा ।
‘दुह’रा जीना पीछे छोड़ा ॥२८।।
म(त्)-त्वेति नाथ ! तव संस्-
तवनं मयेद,
मा-रभ्यते तनु-धियापि
तव(प्)-प्र-भावात् ।
चेतो हरि(ष्)-ष्यति सतां
नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल(द्) द्युति मु-पैति
ननूद-बिन्दुः ॥८॥
(९)
‘आस्’-था क्यों कर डगमग होगी ।
‘ता’-उम्र जिये बन-कर जोगी ॥१।।
‘मत’ कब इनके घर का अपने ।
‘व’शि चरण-चिह्न देखे सपने ॥२।।
‘स’त्ता से करते नहीं बात ।
‘व’र-सत्ता जो आ गई हाथ ॥३।।
‘न’-दिया कह परिणति होड़ रूप ।
‘मस्’-तक विसराई दौड़-धूप ॥४।।
‘त’करीबन थमने के करीब ।
‘स’ब रहें सुखी, जपते सदीव ॥५।।
‘मस्-तक फिर, उर पहले सोचें ।
‘त’क भी त्रुटियां ना आलोचें ॥६।।
‘दोष’न-कोसन दिन रैन-दूर ।
‘म’ग-एक-पथिक दृग-जैन-नूर ॥७।।
‘त’ह लाते खूब बटोर शाम ।
‘व’कवास, पास बक, कहॉं ठाम ॥८।।
‘त’क रहा खड़ा जो दूर द्वेष ।
‘सं’सार चुलुक अब रहा शेष ॥९।।
‘क’ल होगा इन सपने जैसा ।
‘था’ कल इनका अपने जैसा ॥१०।।
‘पि’चकारी रंग गुलाल यही ।
‘ज’ग वर्तमान गोपाल यही ॥११।।
‘ग’लती से भी गलती न चुनें ।
‘ता-म’नन करें जो पढ़ें-सुनें ॥१२।।
‘दु’ख-हर्ता सौख्य प्रदाता हैं ।
‘रि’द्धी-सिद्धी इक दाता हैं ॥१३।।
‘ता’ना शाही इनको न रुचे ।
‘नि’र-हंकारी साधू पहुँचे ॥१४।।
‘हन’ना तो, इनको कर्म स्वयम् ।
‘ति’र्यंच न लेना नरक जनम ॥१५।।
‘दू’षण अपने विघटाते हैं ।
‘रे’खा औरन न मिटाते हैं ॥१६।।
‘सह-सर’ अन्तर् संजीवन दें ।
‘कि’स्से सँग-सँग ढ़ंग जीवन दें ॥१७।।
‘रण’ जन्म-मरण-अर नाद-शंख ।
‘ह’थियार पात्र-जल, मोर-पंख ॥१८।।
‘कु’छ पाना ? नि:संदेह नहीं ।
‘रु’पये-पैसे से नेह नहीं ॥१९।।
‘ते’रा मेरा न सींचते हैं ।
‘प्र’श्नों से नहीं खींझते हैं ॥२०।।
‘भै’रवी राग इक सुर-पंचम ।
‘वन-उपवन एक दिवस निशि-तम ॥२१।।
‘पद’ की न तनिक भी इन्हें चाह ।
‘मा’या दाबे इनकी न छाह ॥२२।।
‘क’ल रवानगी, है इन्हें ज्ञात ।
‘रे’शम न लगाते कभी हाथ ॥२३।।
‘सु’इ-धागा फन अपनाते हैं ।
‘ज’ल जैसे घुल मिल जाते हैं ॥२४।।
‘ल’द सकी बुराई ऊपर ना ।
‘जा’गा इंसा अर भूपर ना ॥२५।।
‘नि’कलें यह, पर्व मनातीं हैं ।
‘वि’दिशा सब दिशा बुलातीं हैं ॥२६।।
‘का’रा तन इन्हें न अब रहना ।
‘स’च कड़वे रहते, क्या कहना ॥२७।।
‘भा न’हीं भान, इन माथ भांत ।
‘जि’तना इन पास न और हाथ ।।२८।।
आस्ताम् तवस्-तवन-मस्त
समस्त-दोषम्,
त्वत्-सङ्कथाऽपि जगतां
दुरि-तानि हन्ति ।
दूरे स-हस्र-किरणः
कुरुते प्रभैव,
पद्मा-करेषु जल-जानि
विकास-भाञ्जि ॥९॥
(१०)
‘ना त’कें कभी पल भी पर-धन ।
‘यद्’-यपि करीब भव मानव मन ॥१।।
‘भु’वि भूषण इनको कहें सभी ।
‘तम’-तमा रहे, देखा न कभी ॥२।।
‘भु’वि हुई धन्य, पाई इनको ।
‘व’न नीरवता भाई इनको ॥३।।
‘न’खरे ना दिखला रही धरा ।
‘भू’तल है इनसे हरा-भरा ॥४।।
‘ष’ट् ऊन, पून धर चरित अपर ।
‘ण’वकार चले अंगुली ऊपर ॥५।।
‘भू’लों से सीखा करते हैं ।
‘त’र-अन्तर पीड़ा हरते हैं ॥६।।
‘ना’हीं कर वाद-विवाद रहे ।
‘थ’पकी दे सुला प्रमाद रहे ॥७।।
‘भू’ शयन करें रजनी पिछली ।
‘तैर’न दें सर-मानस-मछली ॥८।।
‘गु’र सब, चाहे इन उर रहना ।
‘नैर’त्य विदिश्-दिश्-सब कहना ॥९।।
‘भु’वि व्रत जिनकी चर्चा वह, यह ।
‘वि’धिवत् जिनकी चर्या यह, वह ॥१०।।
‘भ’ल-मानस पना जुड़ा जाता ।
‘वन’-मानस पना दिखा जाता ॥११।।
‘तम’ वाली निशि, उजयाला दिन ।
‘भि’जवाते रहते, अपना पन ॥१२।।
‘ष’ट् कोण गोल करना आया ।
‘टु’कड़ा ना, इन्हें पूरा भाया ॥१३।।
‘वन’ घूम न आना फुरसत में ।
‘तह’ देख, दिखाना फिदरत में ॥१४।।
‘तुल’ते न बॉंट ये अपने ले ।
‘यायावर खोजी अलबेले ॥१५।।
‘भ’गवन् पन इनसे दूर नहीं ।
‘वन’-नन्दन कल इक नूर यही ॥१६।।
‘ति’तली निर्भीक मिले इनसे ।
‘भ’वरे को सीख मिले इनसे ॥१७।।
‘व’र वसे न उर इन अभिलाषा ।
‘तो’ला पल-पल न छुआ मासा ॥१८।।
‘न’व पुरा विधावन आभरणा ।
‘नु’शरण जग करे, रखें चरणा ॥१९।।
‘ते’जाब, आब कह रहे न छू ।
‘न’भ-जल-थल लुटा रहे खुशबू ॥२०।।
‘किम्’ आदि न मन में उठें प्रशन ।
‘वा’सर-निश निज में रहें मगन ॥२१।।
‘भूत’र-पिशाच देते सजदा ।
‘या’दृश् न किसी का भी जलवा ॥२२।।
‘श्रि’त-आश्रित श्रुत अनुभव अपने ।
‘तम’गे इक-शिव देखें सपने ॥२३।।
‘य’ह भव न हाथ फिसले तातैं ।
‘इ’त-उत दी विसरा सब बातें ॥२४।।
‘ह’र वक़्त भक्त बन इक साधा ।
‘ना त’न को दिया भाव ज्यादा ॥२५।।
‘म’तलब से रखें न कुछ मतलब ।
‘स’च पूछो इनके अपने सब ॥२६।।
‘मम’ छोड़ बात करते हम की ।
‘क’रते न हाथ अंगुली यम की ॥२७।।
‘रो’शन इन से ही जहां आज ।
‘ति’रने भौ-जल यह इक जहाज ॥२८।।
ना(त्)-त्यद्-भुतं भुवन भूषण !
भूत-नाथ !
भूतैर्-गुणैर्-भुवि भवन्त
मभिष्-टुवन्तः ।
तुल्या भवन्ति भ-वतो
ननु तेन किं वा,
भूत्या(श्)-श्रितं य इह नात्म-
समम् करोति ॥१०॥
(११)
‘दृष्’-टान्त दिये इन ‘दिये’ भाँत ।
‘ट’करार दूर जा खड़ी हाथ ॥१।।
‘वा’जिब लें, मुश्किल भले राह ।
‘भवन’न-पाहन ‘जिन’ बनें चाह ॥२।।
‘त’कदीर बनाने वाले हैं ।
‘म’न धीर थमाने वाले हैं ॥३।।
‘नि’ष्काम ! न चाहें ये सुख को ।
‘मे’हमाँ हैं ,माने ये दुख को ॥४।।
‘ष’ट् कर्म मर्म-विद् पुरु अनुचर ।
‘वि’द्वान बीच गुरु आसन पर ॥५।।
‘लो’लुपता छोड़ चुके पीछे ।
‘क’ञ्चन कल दौड़ चुके पीछे ॥६।।
‘नी’तिन व न्याय ओडे़ वाना ।
‘यम’ हार दिलाना है ठाना ॥७।।
‘ना’-चीज कहॉं खींची रेखा ।
‘नय’नों ने मुड़ न कभी देखा ॥८।।
‘त्र’स विराधना आदरते ना ।
‘तो’हीन किसी की करते ना ॥९।।
‘ष’ट् को प्रायश: छटा कहते ।
‘मु’द प्रमुदित मुदित सदा रहते ॥१०।।
‘प’लड़े यह इक जग-सभी दूज ।
‘या’राने इन दिश्-विदिश् गूँज ॥११।।
‘ति’नका भी रखा न गैरों में ।
‘ज’न्नत इक इनके पैरों में ॥१२।।
‘नस’ पकड़ इन्होंने ली मन्मथ ।
‘य’म-द्वार छोड़ आये स्वारथ ॥१३।।
‘चक्षु’न इन इनके वशीभूत ।
‘ह’र-क्षण धन कमा रहे अटूट ॥१४।।
‘पी त’म गये निराले रवि है ।
‘वा’रे दें कर न्यारे, कवि है ॥१५।।
‘प’रसों, अरे ! न सोचें कल की ।
‘यह’ बात नहीं सोचें हल्की ॥१६।।
‘श’श भाँत न रखते आँख कान ।
‘शि’ष्यत्व छुये गुरु बात मान ॥१७।।
‘क’र रखा हाथ के हाथ काज ।
‘र’ख रखा हाथ-पे-हाथ आज ॥१८।।
‘द्यु’ति लख जन शशि विरला मानें ।
‘ति’रने की जन्म कला जानें ॥१९।।
‘दुग’ना श्रम लें, जितना भी दें ।
‘ध’धके ‘कि हुताशन ना घी दें ॥२०।।
‘सिन्’-धो भौ सूखे लिये शपथ ।
‘धो ह’रिक कालिमा रहे अथक ॥२१।।
‘क्षा’रेक क्षीर सागर का जल ।
‘रम’ गये, हुआ न, सुन कोयल ॥२२।।
‘ज’नमत निष्पक्ष-पक्ष इनके ।
‘ल’व लें उड़ान न ‘पक्ष’-मन-के ॥२३।।
‘म’न कर न रहा गल हाथ खरी ।
‘जल’ भुन न रहा सुन बात खरी ॥२४।।
‘नि’रसक-अघ, गंग-जमुन पानी ।
‘धे’नू माँ भाँत अमृत-दानी ॥२५।।
‘र’सना-रस…ना इक चलें पन्थ ।
‘सि’लसिला शुरु, छूना अनन्त ॥२६।।
‘तुम’ रुकी जुबाँ कह आप रही ।
‘क’मतर न शब्द-पथ नाप रही ॥२७।।
‘इच्’-छा न आप झाँसे आते ।
‘छे त’था छे सुभावन भाते ॥२८।।
दृष्-ट्वा भ-वन्त म-निमेष-
वि-लोक-नीयं,
ना(न्)-न्यत्र-तोष-मु-पयाति
जन(स)-स्य चक्षुः ।
पी(त्)-त्वा पयः शशि-कर(द्)-
द्युति-दुग्ध-सिन्धोः,
क्षारं जलं जल-निधे-
रसितुं क इच्छेत् ? ॥११॥
(१२)
‘यै:’सान इन्हें करना आया ।
‘शां’ती पल-पलक न विसराया ।।१।।
‘त’सरीफ ‘कि रखिये कहते ना ।
‘रा’स्ता भी नपिये, कहते ना ।।२।।
‘ग’हराया फिर फिर स्वाभिमान ।
‘रु’क चले, न कह पाया जहान ।।३।।
‘चि’न्तन ‘भी’-धन धन-धन धन-धन ।
‘भि’क्षुक जीवन धन-धन धन-धन ।।४।।
‘प’ढ़ रहे दूसरी कक्षा में ।
‘र’हते माँ अष्टक रक्षा-में ।।५।।
‘मानु’ज आदर्श लिये जीवन ।
‘भि’द जाये जिया न कहें वचन ।।६।।
‘सत’-पूर्व अहिंसा अनुगामी ।
‘वं’शज मति इक हंसी-नामी ।।७।।
‘निर’जरा-जरा चाले न राह ।
‘मा’फिक मन करते कर्म दाह ।।८।।
‘पि’ञ्जर घर देह नेह तोड़ा ।
‘तस्’-कर मत्सर पीछे छोड़ा ।।९।।
‘त्रि’पुरारी कल बनने वाले ।
‘भु’ज-बल भौ-जल तरने वाले ।।१०।।
‘व’र्णों से राग व रोष नहीं ।
‘नै’नों में लव आक्रोश नहीं ।।११।।
‘क’ल सिर न छोड़ते काज-आज ।
‘ल’म्बी राखें जिन्दगी राज ।।१२।।
‘ला’ हँसी-खुशी डालें झोली ।
‘म’तलब भरी न बोलें, बोली ।।१३।।
‘भू’लें, करके उपकार आप ।
‘त’न फूले-फले, न करें जाप ।।१४।।
‘ता’रीख समाँ पहली अखीर ।
‘वन’ तपन एक सरवर समीर ।।१५।।
‘त’रबतर सभी सुर-‘भी’ विचार ।
‘ए’कल सपने न करें विहार ।।१६।।
‘व’चनावली शुक मीठी मिसरी ।
‘ख’नखन-पैसन फैशन विसरी ।।१७।।
‘लु’क छिप न, चाल ले शेर बढ़ें ।
‘ते’रह न तीन के फेर पड़े ।।१८।।
‘पय’-वैन-जैन माँ-सराबोर ।
‘ण’वकार जपे सब काम छोड़ ।।१९।।
‘वह’ लोक और किनका इनका ।
‘पृथ्’वी तिनका-तिनका इनका ।।२०।।
‘व्या’पार शगुन-सद्-गुण करते ।
‘म’न तनिक मलाल न आदरते ।।२१।।
‘यत्’-नन हित सित रत्नन तमाम ।
‘ते’रस क्या चौदश आठ याम ।।२२।।
‘स’ब काम बना देते बिगड़े ।
‘मा’लूम अरे ! मासूम बड़े ।।२३।।
‘न’व-नव ले विधा रहे समझा ।
‘म’न उलझन बने, रहे सुलझा ।।२४।।
‘प’रचम न किसी का झुका रहे ।
‘म’हिमा माँ, गा चित् चुरा रहे ।।२५।।
‘न’ भाग लेते, न भाग लेते ।
‘हि’वरा हर कर सुराख़ लेते ।।२६।।
‘रू’खा न कभी भी दें जबाब ।
‘प’ढ़ रखी खूब कोरी किताब ।।२७।।
‘मस्’ती जो की कल याद सभी ।।
‘ति’ल-सी तैरीं गलतीं न कभी ।२८।।
यैः शान्त-राग-रुचिभिः
पर-माणु-भिस्-त्वं,
निर्मा-पितैस्-त्रि-भुवनैक
ललाम-भूत ! ।
ता-वन्त एव खलु ते(प्)-
प्य-णवः पृथिव्यां,
यत्ते समान-मपरं
न हि रूप-मस्ति ॥१२॥
(१३)
‘वक्’ता सद्धर्म अकेले हैं ।
‘त्र’स नाड़ी इक अलबेले हैं ।।१।।
‘मक्’खी, ले नर्मी रहे उड़ा ।
‘व’चनन न घोलते पन कड़वा ।।२।।
‘ते’रह पंथी न बीस पंथी ।
‘सुर’-इक जग कथित रहित ग्रन्थी ।।३।।
‘न’दिया से बहते कब थकते ।
‘रो’कड़ न बही-खाता रखते ।।४।।
‘र’ह सन्त, बन्ध नव मना करें ।
‘ग’द-गद उर जिन वन्दना करें ।।५।।
‘ने’कन के भाग संवारे हैं |
‘त्र’स थावर, बने सँभाले हैं ।।६।।
‘हा’र्दिक खुश, देख और बढ़ते ।
‘रि’तुअन बनता, न मिले लड़ते ।।७।।
‘नि:’ शेष जुबां-जश गाता है ।
‘शेष’हि भक्तों में आता है ।।८।।
‘नि’श्चित अहि-अघ भागें देखा ।
‘र’व रूप मोर इन सुन केका ।।९।।
‘जि’न्दा-दिल ओड़ रखा लिवास ।
‘त’ज निज, पर रहे निकाल फाँस ।।१०।।
‘ज’श-पल, पल-अपजश इक समान ।
‘गत’-विकल, विकल मद, मोह, मान ।।११।।
‘त्रि’शला सुत हृदय रहे विराज ।
‘त’क रहे अथक इक-टक स्वराज ।।१२।।
‘यो’जित हर काम नियोजित इन ।
‘प’हले-से ठीक-ठाक अर-छिन ।।१३।।
‘मा’खन सा मन हर-इक प्रदेश ।
‘नम’ अंतरंग गत राग-द्वेष ।।१४।।
‘बिम्’-बन शशि बिम्ब दिखे फीका ।
‘बं’किम भ्रू-जुगल बड़ा नीका ।।१५।।
‘क’तराता देख इन्हें अनंग ।
‘लं’कारन मण्डित अंग-अंग ।।१६।।
‘क’रते कम-पल विश्राम नाम ।
‘म’न रखे हाथ अपने लगाम ।।१७।।
‘लि’क्खा इन भाग सलोना है ।
‘नम’, इन्हें न नीर बिलौना है ।।१८।।
‘क’विता जिन, देरी हान रची ।
‘वनि’ता इन बेड़ी मान तजी ।।१९।।
‘शा’वक खेलें माँ गोद अरज ।
‘कर्’-तव्य निभायें मान फरज ।।२०।।
‘स’र-गम जड़ चेतन पहचानें ।
‘यह’ कला बहत्तर वह जानें ।।२१।।
‘य’दवा’-तदवा चरिया विरक्त ।
‘द्वा’दश-द्वादश-जिन-देव भक्त ।।२२।।
‘स’त जुग, कलिजुग शिव शर्म तूर्य ।
‘रे’णुका प्रथम जिन-धर्म सूर्य ।।२३।।
‘भ’र रहे जखम-पर बन मरहम ।
‘व’र बरषा सहज करें हरदम ।।२४।।
‘ति’हु-साँझ सपन छू अर कुछ लें ।
‘पा न’वल राज आगम उछलें ।।२५।।
‘डु’ल-मुल न, रखें डग जमा-जमा ।
‘प’र-भव हित राखें कमा-कमा ।।२६।।
‘ला’इलाज गद अपहरते हैं ।
‘श’र्तिया भवातप हरते हैं ।।२७।।
‘कल्प’ना लोक से मोड़ा मुख ।
‘म’न बना, रोग लख छोड़ा सुख ।।२८।।
वक्त्रं क्व ते सुर-न-रोरग-
नेत्र-हारि,
निःशेष-निर्-जित जगत्-
त्रि-तयो-पमानम् ।
बिम्बं कलङ्क मलिनं
क्व निशा-करस्य,
य(द्)-द्वासरे भवति पाण्डु-
पलाश-कल्पम् ॥१३॥
(१४)
‘सं’सारी, चुभी हृदय गाली ।
‘पू’नम इक इन्हें अमाँ काली ।।१।।
‘रण’ छेड़ रखा इन्द्रिय-विषयन ।
‘मं’जूर न पर निर्भर इक-क्षण ।।२।।
‘ड’र-डर आया करना न काम ।
‘ल’ड़-भिड़ भाया करना न काम ।।३।।
‘श’म-कर न और इनके जैसा ।
‘शां’ती राखो इन सन्देशा ।।४।।
‘क’रनी जैसी, रखते कथनी ।
‘क’थनी वैसी रखते करनी ।।५।।
‘ला’गत वगैर करते धंधा ।
‘क’मती न चले चलता अंधा ।।६।।
‘ला’गा न किसी के पीछे मन ।
‘प’ल गुजर रहे संगत सज्जन ।।७।।
‘शु’भ रखे भावना उर सदीव ।
‘भ्रा’न्ती मैंटे ले ज्ञान दीव ।।८।।
‘गु’स्सा ‘कि चढ़े सिर रुख मोड़ें ।
‘ना स’र पर रख कर पग दौडें ।।९।।
‘त्रि’क् गारव-खाली ‘जहां’ एक ।
‘भु’वि गौरव-शाली अहा ! एक ।।१०।।
‘व’र-माल लिये शिव रमा खड़ी ।
‘नम’ ऐसे गये, बनी बिगड़ी ।।११।।
‘त’प, किया निखालस वचनों को ।
‘व’सनों को छोड़ा व्यसनों को ।।१२।।
‘लं’का इक सोन, भौन मरघट ।
‘घ’र निकले माटी बनने घट ।।१३।।
‘यन्’-त्रों सी न जिन्दगानी है ।
‘ति’नका न गवाते पानी है ।।१४।।
‘ये’ उजियारे, जग तम काला ।
‘सं’सार इन विघटने वाला ।।१५।।
‘श्रि’त संश्रित निज, पर विरत जगत ।
‘ता-स’मय स्वपर हित निरत-जगत् ।।१६।।
‘त्रि’क् रत्न सनेही दूर कमी ।
‘ज’र जोरू नेह सुदूर जमीं ।।१७।।
‘ग’फलत थव, लव न प्रवेश आप ।
‘दी’वा उर भक्ति-जिनेश आप ।।१८।।
‘शव’ तोड़ा रिश्ता शिव जोड़ा ।
‘र’क्खा ‘कि तलक जोड़ा-छोड़ा ।।१९।।
‘ना’सा आगे कब तकते हैं ।
‘थ’र-हर न डोल पग रखते हैं ।।२०।।
‘मे’हर करने में इक माहिर ।
‘कम’तर न दिया है जग-जाहिर ।।२१।।
‘कस्’-तूरी हित अब गये ठहिर ।
‘तान’स कर भागमभाग बहिर ।।२२।।
‘नि’ष्कम्प एक जन त्रिभुवन में ।
‘वा’रण हित मचे न रण मन में ।।२३।।
‘र’द दाबे अंगुली दीखे ना ।
‘य’ज हरगिज चुगली सीखे ना ।।२४।।
‘ति’ल देह नेह आतम रसिया ।
‘सं’वेग भाव परिपूर्ण जिया ।।२५।।
‘च’न्दन सी दें घिस भी खुशबू ।
‘र’हमत इन वरपा जहां सुकूं ।।२६।।
‘तो’ड़ें न, जोड़ लें बस जिसको ।
‘य’म नियम रँग रँगें दिश्-दिश् को ।।२७।।
‘थे ष’ट्क ऊन हत पाप ताप ।
‘ठं’डक हित जिन-पद पास आप ।।२८।।
सम्पूर्ण-मण्डल-शशाङ्क
कला-कलाप-
शु(भ्)-भ्रा गुणास् त्रि-भु-वनं
तव लङ्-घयन्ति ।
ये सं(स्)-श्रितास् त्रि-ज-ग-
दी(श्)-श्वर नाथ-मेकं,
कस्तान् नि-वा-रयति सञ्-
चरतो यथेष्-टम् ॥१४॥
(१५)
‘चित्र’न चल करते मन न चपल ।
‘म’न मन्दिर झूमें, बिन हलचल ।।१।।
‘कि’ञ्चित न मढ़ा सिर और दोष ।
‘म’न-के खिसकाते साथ होश ।।२।।
‘त्र’स-जहां निढ़ाल, निहाल आप ।
‘य’म बना सवाल, जबाब आप ।।३।।
‘दि’न सजग बिताते अलग रात ।
‘ते’तीस असादन झिटक हाथ ।।४।।
‘त्रि’जगत इक भगत लगे ताँता ।
‘द’र खाली यही न लौटाता ।।५।।
‘शां’ती सुख-चैन प्रदाता हैं ।
‘ग’त-गद-मद श्रुत विख्याता हैं ।।६।।
‘ना भि’क्षु-भिक्षु अनबन इन में ।
‘र’ख पैर नगन चलते दिन में ।।७।।
‘नी’रवता दिल धस बसी हुई ।
‘तम’, आगे-इन बस हँसी हुई ।।८।।
‘म’स्तूल घूम फिर आ बैठे ।
‘ना’सा रख दृग् अन्तर् पैठे ।।९।।
‘ग’गरी अमि जैन रहे झलका ।
‘पि’छला भूले, मन अब हल्का ।।१०।।
‘म’ञ्जूर अरज करते सब-की ।
‘नो’ मान-फरज खेते सब की ।।११।।
‘न’त विनत चलें, पर छोड़ दूब ।
‘वि’द् जगत् लोक-व्यवहार खूब ।।१२।।
‘का’दे जग बीच कनक भाँती ।
‘र’श्मो रिवाज हर-इक साथी ।।१३।।
‘मार’ण-तारण न समय खोते ।
‘गम’ बाँट, साथ औरन रोते ।।१४।।
‘कल’ काँधे करें न चल दुनाल ।
‘पा’ आज दुहे, दोगला काल ।।१५।।
‘नत’ करें प्रार्थना दुख हरते ।
‘का’ला न किसी का मुख करते ।।१६।।
‘ल’ग मुँह न बड़न करते बातें ।
‘म’र्याद महल न ढ़हे, तातें ।।१७।।
‘रु’कना ‘भौ औ’ हैं उनमें ना ।
‘ता’रीख न देते, लेते ना ।।१८।।
‘च’रणन ढ़ोले जल-कण खारे ।
‘लि’क्खा दें भाग चाँद-तारे ।।१९।।
‘ता’-दिन बैठे, पल कब टिकते ।
‘च’कवे छक मुख जिन-शशि तकते ।।२०।।
‘ले’ना न एक, ना देना दो ।
‘न’यना माफिक सावन भादों ।।२१।।
‘किं’चित न गृद्धता जगह जिया ।
‘मन्’-दिर, बैठे बस बना दिया ।।२२।।
‘द’फना दें, ना दें बात तूल ।
‘रा’हों के कभी न बनें शूल ।।२३।।
‘द्रि’,अद्रि शिखर चूमें चरणा ।
‘शि’क्षक इक सम्यक् आचरणा ।।२४।।
‘ख’र्चा रखते आमद से कम ।
‘रम’ जाते थमते जहाँ कदम ।।२५।।
‘च’रणन रख इन मस्तक देना ।
‘लि’ख मन-मानी किस्मत लेना ।।२६।।
‘तम’-विहँसे-भीतर, निकल पड़े ।
‘क’खहरा दूसरा-सकल पढ़े ।।२७।।
‘दा’यरा प्रेम कुछ रखें बड़ा ।
‘चित्’ किया चार खाने झगड़ा ।।२८।।
चित्रं-किमत्र यदि ते(त्)-
त्रि-दशाङ्ग-नाभिर्-
नीतं मना-गपि मनो
न विकार मार्गम् ।
कल्पान्त-काल मरुता
चलि-ता-चलेन,
किं मन्-दराद्रि-शिखरं
चलितं कदाचित् ॥१५॥
(१६)
‘निर्’-लेप आईने के आगे ।
‘धू’मिल न हो फिर नृभव, जागे ।।१।।
‘म’धु-हास मन्द क्या देते हैं ।
‘व’श में दुनिया कर लेते हैं ।।२।।
‘रति’ दूर, यदपि तन कामदेव ।
‘र’खते अखण्ड ब्रमचर सदैव ।।३।।
‘प’ङ्कती जगदम्ब प्रथम बैठे ।
‘वर’-बिन माँगे, आते देते ।।४।।
‘जि’तना देते, कब लेते हैं ।
‘त’ब, अब बस दिखते देते हैं ।।५।।
‘तै’राक ! देर लें साध डूब ।
‘ल’ख, लख-मन जग-से रहे ऊब ।।६।।
‘पू’रण भवि-मंसा कहलाते ।
‘रह’नुमा अहिंसा में आते ।।७।।
‘कृत स’कल कृत्य भा-रत दयाल ! ।
‘नम’ नमित विकल-स्वारथ कृपाल ! ।।८।।
‘ज’र जरजर देख न करें शोक ।
‘गत’ नोंक-झोंक गत रोक-टोक ।।९।।
‘त्र’य जगत न इन जैसा कोई ।
‘य’श अपयश इक समान दोई ।।१०।।
‘मि’ट्टी उपचार निरत देखे ।
‘दम’ भरते कब पर्वत देखे ।।११।।
‘प्र’कृती सँग रहते दिवस-रात ।
‘क’चरा मन फेंका सिन्धु भाँत ।।१२।।
‘टी’का जिन-शासन माथ आज ।
‘क’रते कब पर्दाफाश-राज ।।१३।।
‘रो’पे, दें पौध न मुरझाने ।
‘सि’र माथ न दें सलवट आने ।।१४।।
‘गम’के क्यों जीवन रोगों में ।
‘यो’वन कब बीता भोगों में ।।१५।।
‘न’त-नयन, वयन-मित विरले हैं ।
‘जा’गरण स्वपर हित निकले है ।।१६।।
‘तु’म-सहते सहज, कहाँ कहते ।
‘म’हफूज कोट स्वातम रहते ।।१७।।
‘रू’पक खींचा दिखता सजीव ।
‘ता’-पहर रहें तर अप्प दीव ।।१८।।
‘मच’ रहा न कोलाहल मन में ।
‘लि’क्खें इतिहास बाल-पन में ।।१९।।
‘ता’रीफ और पुल गढ़े चलें ।
‘च’ल और धकाते बढ़े चलें ।।२०।।
‘ला’ देते लुटा, और पा लें ।
‘ना म’लने पड़े हाथ, चालें ।।२१।।
‘दी’दार आप का क्या कहना ।
‘पो’षण पा जाते है नयना ।।२२।।
‘प’ड़ बस इन जाये एक नजर ।
‘रस्’-ता शिव-दिव आसान सफर ।।२३।।
‘त’न में रहें, न होके तन्मय ।
‘व’न में रहें, न खोके चिन्मय ।।२४।।
‘मसि’ बूँद न करें शून विरथा ।
‘ना’ बना मिटायें घर-सिक्ता ।।२५।।
‘थ’र और, और ये बनें चीप ।
‘ज’ल से जल, भेंटें रत्न-दीप ।।२६।।
‘गत’ भटक ! निकट भौ-जल तट के ।
‘प्र’तिभा कुछ रखें अलग हट के ।।२७।।
‘का’टें चाँदी यह कई शरद ।
‘शह’नाई गा इन रही विरद ।।२८।।
निर्धूम वर्ति र-पवर्-जित-
तैल-पूर:,
कृत्स्-नम् जगत्-त्रय मिदं
प्र-कटी-क-रोषि ।
गम्यो न जातु मरु-तां
चलि-ता-चलानां,
दी-पोऽपरस्-त्व-मसि नाथ !
जगत्-प्रकाशः ॥१६॥
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