भक्ता-मर-स्तोत्र
शाब्दिक बृहद् हाईको
(१)
‘भक्त’ भगवन् का रिश्ता ।
सिर्फेक न रिश्ता रिसता ।।१।।
‘अमर’ देव नाम बस ।
साँची तो तिहारो जश ।।२।।
‘प्रणत’ पुरु, गुरु, प्रति…माँ हुये ।
आसमाँ छुये ।।३।।
‘मौलि’ ।
चेहरा लख दर्पण-नख आप अमोल ।।४।।
‘मणि’-चिन्ता गो-काम ।
और क्या सिवा भगवत् नाम ।।५।।
‘प्रभा’ दूनी हो जाती ।
हुई क्या दृष्टि-भगवन् साथी ।।६।।
‘उद्योत’ हाथ ।
टिकते ही भगवन् समक्ष माथ ।।७।।
‘दलित’ माटी ।
पा गुरु-कृपा बन सुराही जाती ।।८।।
पाप’ ‘कि नापें रस्ता आप से ।
जुड़ा रिश्ता आप-से ।।९।।
‘तम’ भागता ।
जिया, नाम भगवत् दिया जागता ।।१०।।
‘वितान’ भक्ति भगवत् छेड़ी ।
और क्या जादू छड़ी ।।११।।
‘सम्यक्’ दर्शन ।
आ झाँकना भगवन् नख दर्पण ।।१२।।
‘प्रणम्य’ ।
गम्य, अगम्य श्री भगवत् दर्शन धन्य ।।१३।।
‘जिन’ दर्शन आप सा ।
आगे लागे न धन पैसा ।।१४।।
‘पाद’ पदम तोर ।
अनन्य शिव सदम मोर ।।१५।।
‘युग’ भगवन् भक्त टूटा ।
समझो ‘कि भाग फूटा ।।१६।।
‘युगादि’ एक खिवैय्या ।
धूप जहाँ दो, तुम छैय्या ।।१७।।
‘अवलम्बन’ देना निर्दाम ।
सिर्फ आपके नाम ।।१८।।
‘भव’ पूर्ति को मानौ जन्म मिला ।
आपको भुला ।।१९।।
‘जल’ जाती हा ! जलन ।
क्या तुमसे लागी लगन ।।२०।।
‘पतित’ आज भी हो रहे पार ।
पा हाथ तुम्हार ।।२१।।
‘जन’ जन की भलाई ।
तुम्हें बस करनी आई ।।२२।।
भक्ता-मर(प्) प्र-णत मौलि-
मणि(प्) प्र-भाणा-
मु(द्)-द्यो-तकं दलित-पाप
-तमो-वि-तानम् ।
सम्यक् प्र-णम्य जिन पाद-
युगं युगा-दा-
वा-लम्बनं भव जले
पततां जनानाम् ॥१॥
(२)
‘संस्तुत’ किस से न ।
आप चर्चित किस किस्से न ।।१।।
‘सकल’ लोक ।
नाम और और ले, दे तुम्हें ढ़ोक ।।२।।
‘वाङ्मय’ आप ।
‘मैं’ मैल धो, मन को करे निष्पाप ।।३।।
‘तत्त्व’ बताये आपके ।
जात वैरी भव-ताप के ।।४।।
‘बोध’ तुम्हारा दीया जहाँ ।
रहता न क्रोध वहाँ ।।५।।
‘उद्भूत’ हुआ विराग ।
छुआ नहीं आप ‘कि राग ।।६।।
‘बुद्धि’ दर पे तोरे ।
बॅंटती भर भर कटोरे ।।७।।
‘पटु’ हो तुम ।
करने में बटुएँ की ठण्डी गुम ।।८।।
‘सुर’ बैठाना ।
तुम्हें ले के पोथी न पड़ा सिखाना ।।९।।
‘लोक’ व्यौहार निभाना तुम्हें ।
मिला विरासत में ।।१०।।
‘नाथ’ अनाथ ।
प्रमाप आप न है, न होगा, न था ।।११।।
‘स्तोत्र’ तुम्हारा ।
शोक…
थोक या स्तोक देता सहारा ।।१२।।
‘जगत’ कोई ।
तो आप इस उस जगत दोई ।।१३।।
‘तय’ सीझना ।
या ! हुआ क्या ? ऊपर आप रीझना ।।१४।।
‘चित्त’ हरण करने वाला ।
चित्र आप निराला ।।१५।।
‘हर’ जन को ।
निजी माना, तुमने गैर किन को ।।१६।।
‘उदार’ जिया ।
सिर्फ आप पास न उधार लिया ।।१७।।
‘तोष’ पहले आप भक्त का ।
फिर जा दरख़्त का ।।१८।।
‘किल’-किल ने तुम्हें पाया ।
समेटी ‘कि आप माया ।।१९।।
‘अहम्’ रहता ।
सफेद झूठ, जहॉं अर्हम् रहता ।।२०।।
‘प्रथम’ आये ।
वो, गिना जो आप के भक्तों में जाये ।।२१।।
‘जिनेन्द्र’ सेव ।
दे भर छलकती आनन्द जेब ।।२२।।
यः सन्-स्तुतः सकल वाङ्-मय-
तत्त्व-बोधा-
दुद्-भूत बुद्धि पटुभिः
सुर-लोक-नाथैः ।
स्तो-त्रैर्-जगत्-त्रितय चित्त
हरै-रुदारै:,
स्तोष्ये किलाह-मपि तं
प्र-थमम् जिनेन्द्रम् ॥२॥
(३)
‘बुद्धि’ वृद्धि में सिवा आप करुणा ।
कौन शरणा ।।१।।
‘बिना’ तोर ।
न आने वाला, क्षितिज संसार छोर ।।२।।
‘विबुध’ होने के लिये ।
काफी ढ़ाई आखर दीये ।।३।।
‘अर्चित’ आप ।
रफा-दफा ‘के आप अर्जित पाप ।।४।।
‘पाद-पीठ’ ये तुम ।
रक्खी ‘कि सिर दरद गुम ।।५।।
‘समता’ खूब जि…आ बसे गहरे ।
दे आप फेरे ।।६।।
‘उद्यत’ आप सेव ।
भागी आती ‘कि थमें कुटेव ।।७।।
‘मति’ मानी वो अनुपम ।
जो सिर्फ दिवानी तुम ।।८।।
‘विगत’ छल भगवत् सुमरण ।
दे सु…मरण ।।९।।
‘त्रप’ राखना आप अलावा ।
कोई जाने न बाबा ।।१०।।
‘अहम्’ ‘कि गुम हो, तुम हो माहिर ।
जग जाहिर ।।११।।
‘बाल’ बच्चे लें आप चित् चुरा ।
मन्द मन्द मुस्कुरा ।।१२।।
‘विहाय’ आप ।
कौन समझे और गाय संताप ।।१३।।
‘जल’ जो तेरी प्रीत पाया ।
हार भी, जीत आया ।।१४।।
‘संस्थित’ मन आप ध्यान ।
लगता जा आसमान ।।१५।।
‘इन्दु’ अमृत बाँटे ।
मिस नख आ तुम अंगूठे ।।१६।।
‘बिम्ब’ फल से ।
लव आप खुले ‘कि मने जलसे ।।१७।।
‘मान्य’ पहले तुमरे भक्त ।
फिर जा कहीं वक्त ।।१८।।
‘इच्छाएँ’ ।
हाथ हाथ ।
पा आशीर्वाद ।
ऽमाँ हाथ आएँ ।।१९।।
‘जन’ जो आप भक्त में आते ।
भय एक न खाते ।।२०।।
‘सहसा’ भी जो आप मिले ।
जाये खो, न पता चले ।।२१।।
‘ग्रह’ लागें न तिन्हें ।
अशीषे आप आ गृह जिन्हें ।।२२।।
‘तुम’ सबके हो, रहो ।
तुम्हारा मैं हूॅं, था, रहूॅंगा ।।२३।।
बुद्ध्या विनापि वि-बुधार् चित
पाद पीठ !
स्तोतुं समु(द्)-द्यत् मतिर्
वि-गतत् त्रपो-हम् ।
बालं विहाय जल-संस्-थित-
मिन्दु-बिम्ब-
मन्यः क इच्-छति जनः
स-हसा(ग्) ग्रही-तुम् ॥३॥
(४)
‘बक’ फन लें लेता राह ।
लेते ही आप पनाह ।।१।।
‘तुम’ न कहाँ ।
जीवन जीवन ना, तुम न जहाँ ।।२।।
‘गुण’ न कौन ।
दीव आप करीब औगुण कौन ।।३।।
‘गुण-समुद्र’ ।
ताँकें न झाँकें आप, स्वप्न भी छिद्र ।।४।।
‘शशांक-कान्त’ दिन गुम ।
ऽनुदिन दुगुण तुम ।।५।।
‘कसते’ आप न ढ़ीला छोड़ते ।
बे-जोड़ जोड़ते ।।६।।
‘क्ष्मा’ सिर्फ नाम भू ।
अवतार क्षमा आप हूबहू ।।७।।
‘सुर’ देवी-माँ आ कण्ठ वसे ।
आप आप सेव से ।।८।।
‘गुरु’ हो तुम ।
सार्थ मॉंगो काम-गो, पुरु ओ ! तुम ।।९।।
‘प्रति-माँ’ माँ न एक ।
माँ एक एक आप प्रतिमा ।।१०।।
‘बुद्ध’ न बोधि-वृक्ष नीचे ।
रखते ही अक्ष नीचे ।।११।।
‘कल’-बल न किया ।
दुख आप ने आ हर लिया ।।१२।।
‘पान’ उठाया बीड़ा ।
आप ‘के-बल’ हरण-पीड़ा ।।१३।।
‘काल’ देखे न तरेर दृग् ।
हो आप जिसके जग ।।१४।।
‘पवमान’ छू पॉंवन आप ।
बने दवा समान ।।१५।।
‘उद्यत’ हित पाप ।
हो न मन, हो नमन आप ।।१६।।
‘नक्र-चक्र’ हो भले ।
ऊ-पार भक्त-आप विरले ।।१७।।
‘तरि’ ऊ-पार जाती लग ।
भक्तों का पुण्य अलग ।।१८।।
‘अमल’ आज्ञा की क्या भगवन् ।
हुआ अमल मन ।।१९।।
‘अम्बु’ पे लिक्खा, ले नाम-आप ।
छोड़े अमिट छाप ।।२०।।
‘निधि’ सकल रतन ।
एक फल भक्ति भगवन् ।।२१।।
‘भुज’ के बल ।
तराना जानते हो, आप केवल ।।२२।।
वक्तुं गुणान्-गुण-समुद्र !
शशाङ्क-कान्तान्,
कस्-ते(क्) क्षमः सुर-गुरु(प्)-
प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।
कल्पान्त-काल प-वनोद्धत-
नक्र-चक्रं,
को वा तरीतु-मल-मम्बु-
निधिं भुजाभ्याम् ॥४॥
(५)
‘सोऽहं’ लगाई रट ।
अहम्-वहम से ले निपट ।।१।।
‘थापी’ जी मूर्ति भगवन् यहाँ ।
धन्य जीवन वहाँ ।।२।।
‘तव भक्ति’ ।
दे जाये, अपूर्व सी जी अद्भुत शक्ति ।।३।।
‘वश’ तुम्हारे ।
‘के तोड़े जा सकते आस्मां के तारे ।।४।।
‘मुनिन’ सिर-मौर तुम ।
गुणिन चित् चोर तुम ।।५।।
‘कर्ता’-पन खो जाता ।
ज्यों-ही आप से नाता हो जाता ।।६।।
‘स्तवन’ तोर ।
बिन शोर, दे व्यूह विघन तोड़ ।।७।।
‘विगत’ भय करने वाला ।
आप का जय कारा ।।८।।
‘शक्ति’ ।
प्रकट कुछ मायने हट, कर के भक्ति ।।९।।
‘प्रवृत्त’ नेक काम ।
‘कि भगवन् जी ले हाथ थाम ।।१०।।
‘प्रीति’ क्या जुड़ी भगवन् से ।
बिछुड़ी भीति मन से ।।११।।
‘आत्म’ विश्वास ‘बढ़ता जाता ।
आप जुड़ता नाता ।।१२।।
‘वीर्य’ अनन्त ।
तीर्थक भगवन्त ।
सेवा का मेवा ।।१३।।
‘विचार’ गंग-धार से हुये ।
रंग आप क्या छुये ।।१४।।
‘मृगी-मृगेन्द्र’ समोशरण साथ ।
जोड़ के हाथ ।।१५।।
‘नाभि’ नन्दन निराले हैं ।
भुवन रखवाले हैं ।।१६।।
‘जिन’ श्री निज होती जाती ।
भक्ति ‘कि भगवत् भाती ।।१७।।
‘शिशु’ गोद माँ क्या पाते ।
दुख सारे ही भूल जाते ।।१८।।
‘परी’ कमल सहस्र-दल लिया ।
आप को दिया ।।१९।।
‘पालने’ में, ‘रे पूत के लक्षण ।
क्या ? आज्ञा भगवन् ।।२०।।
‘अर्थ’ बढ़ता ।
चरण आप आप अर्घ चढ़ता ।।२१।।
सोऽहं त-थापि तव भक्ति
वशान्-मुनीश !
कर्तुन्स्-तवम् विगत शक्ति-
रपि(प्) प्रवृत्तः ।
प्री(त्)-त्यात्म-वीर्य-मविचार्य
मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज-शिशोः
परि-पाल-नार्-थम् ॥५॥
(६)
‘अल्प’ भी भक्ति भगवन् ।
गई देखी हुई तरण ।।१।।
‘सुत’ कृपा माँ पा ।
मापा न जा सके ‘कि रखे आपा ।।२।।
‘श्रुत’ वानों में औरौर ।
नाम भक्तों का शिर-मौर ।।३।।
‘परिहास’ ने भक्तों को चुना ।
ऐसा, देखा न सुना ।।४।।
‘धाम’ उसके हुये चारों ।
मानो न जिसकी माँ रो ।।५।।
‘बदमास’ मैं ।
कुछ करो ‘कि पाऊॅं छू आकाश मैं ।।६।।
‘भक्ति’ चन्दन ।
ला खड़े कर देती घर भगवन् ।।७।।
‘ऐव’ कुटेव ।
ठहर-पाती भक्ति ‘कि देव देव ।।८।।
‘मुखरी’ भक्त शबरी हेत भक्ति ।
वगैर शक्ति ।।९।।
‘रूठे’ भगवन् भक्त कभी,
तो पल एक ।
उल्लेख ।।१०।।
‘बला’ न सीखी कला ।
भक्त वक्त ‘कि ले बरगला ।।११।।
‘नमा’ कि बेंत लो फिर खड़ा ।
बट अड़ा उखड़ा ।।१२।।
‘कोकिला’ कण्ठ शंखावर्ती ।
किसी की तो देन भक्ति ।।१३।।
‘कल-रव’ में किल-किल बदली ।
भक्ति विरली ।।१४।।
‘मधु’ मास में कोकिला ।
आकाश में भक्तौर मिला ।।१५।।
‘मधुर’ बोली ।
हर वक्त, तो भक्त की हमजोली ।।१६।।
‘रोती’ सूरत भक्त की ।
मजाल न ऐसी वक्त की ।।१७।।
‘आम’ जाते है बन खास ।
रह के भगवन् पास ।।१८।।
‘चारु’ हॉं ! होते ।
भगत भगवत् पे चालू न होते ।।१९।।
‘लिखा’ फुर्सत में आते भाग ।
भक्त सोने सुहाग ।।२०।।
‘नेकेक’ कोई ।
जहां दोई ।
तो भक्त वो ।
दरख्त औ ।।२१।।
‘है तू’ इधर उधर ।
नजर ले जाऊॅं जिधर ।।२२।।
अल्प(श्)-श्रुतं श्रुत-वतां
परि-हास-धाम,
त्वद्-भक्ति-रेव मुखरी-
कुरुते बलान्-माम् ।
यत्-कोकिलः किल मधौ
मधुरं विरौति,
तच्-चाम्र-चारु-कलिका-
नि-करैक हेतुः ।।६।।
(७)
‘वत्स’ मैं, और तुम मेरी मॉं गैय्या ।
खिवैय्या नैय्या ।।१।।
‘वन’ रुदन ।
‘भक्त’ हाथ रेखा में पाता न बन ।।२।।
‘भव’ भ्रमण थम जाता ।
जुड़ा ‘कि आप से नाता ।।३।।
‘सन्तति’ भौ न आगे बढ़े ।
आखर क्या ढ़ाई पढ़े ।।४।।
‘सन्निबद्ध’ मॉं बेटे ऐसे ।
नमक-उदक जैसे ।।५।।
‘पाप’ समीप आप न देर टिके ।
जा दूर दिखे ।।६।।
‘क्षण’ मनुआ ।
आप नाम छुआ ‘कि काम हुआ ।।७।।
‘क्षय’ निधत्ति निकाचित पाप ।
जै बोली क्या आप ।।८।।
‘उपकार’ दो एकौर कर हाथ ।
रख लो साथ ।।९।।
‘शरीर’ पौडा काना ।
बने देते बो धर्म भू आ ना ।।१०।।
‘भा’ दूनी दिन, बढ़े चौगुनी रात ।
पा आप साथ ।।११।।
‘आका’ मेरे, दो हुकुम कोई बोले ।
तू गोद में जो ले ।।१२।।
‘लोक’ उसका सारा ।
मिला तुम्हारा जिसे सहारा ।।१३।।
‘अलसुबह’ हिस्से आई ।
निस्पृह जै क्या लगाई ।।१४।।
‘नील’ गगन ।
छुये अंगुली से तो भक्त भगवन् ।।१५।।
‘शेष’ ले जिह्वा हजार ।
सिन्धु गुण न आप पार ।।१६।।
‘आशुतोष’ यूं ही ।
राखना बनाये कृपा आगे भी ।।१७।।
‘सूर्य’ किरणें फीकी ।
कहाँ भा आप माथे सरीखी ।।१८।।
‘भिन’ भिन खो जाती भौ ।
लागते ही भगवन् से लौं ।।१९।।
‘शर्वरी’ तम जहां ।
भगवन् तुम पूर्ण चन्द्रमा ।।२०।।
‘अँधेरा’ झूठ सफेद ।
भगवन् के खुल्ले क्या नेत्र ।।२१।।
त्वत्-सन्स्-तवेन भव सन्तति-
सन्-निबद्धं,
पापं क्षणात्-क्षय-मुपैति
शरीर-भाजाम् ।
आ(क्)-क्रान्त लोक-मलि-नील-
मशेष-माशु,
सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-
मन्-धकारम् ॥७॥
(८)
‘मत’ बदल जाना ।
तुम्हारे सिवा कोई मेरा ना ।।१।।
बेटी पंसद माँ को न बेटा कम ।
स्याही कलम ।।२।।
‘नाथ’ आप सा कोई ।
जहां दोई ।
है ना होगा, ना था ।।३।।
‘तव संस्तव’ लिखना ।
‘रे पानी पे पानी लिखना ।।४।।
‘नम’ नैन न देख पाते ।
भगवन् भक्त बताते ।।५।।
‘मार’ पड़ती थारी-म्हारी,
न्यार ।
श्री जी दरबार ।।६।।
‘भय’ का काम तमाम ।
भगवन् का लेती ही नाम ।।७।।
‘तन’ नीरोग ।
नाम आप क्या,
जुड़ा क्षण संयोग ।।८।।
‘धिया’ आकाश छूती ।
छूती क्या आप भक्ति अनूठी ।।९।।
‘पीते’ गुस्से को जाना ।
पड़ा न आप भक्त सिखाना ।।१०।।
‘प्रभाव’ तुम ।
तलक नाव, ताव तनाव गुम ।।११।।
‘बात’ कभी न पाई लग ।
भगवन् भक्त अलग ।।१२।।
‘चेतो’ कहना न पड़े ।
भक्त कक्षा दूसरी पढ़े ।।१३।।
‘हरष’ होता ।
क्या भक्त भगवन् का दरश होता ।।१४।।
‘इतिहास’ ‘कि बना ।
देखा भक्तों ने ज्यों ही सपना ।।१५।।
‘सदा’ भगत ।
नाम तभी पड़ता पता भगत ।।१६।।
‘नलिनी’ मुझे पकड़ राखा ।
भक्त कीर न भाखा ।।१७।।
‘दले’ छाती पे भक्त मूंग न सुना ।
क्या कहूॅं पुनः ।।१८।।
‘मोती’ भगवन् ।
सीप भक्त प्रदीप ज्योती भगवन् ।।१९।।
‘फल’ न चाहे ।
भक्त कर्मन-सर ‘के अवगाहे ।।२०।।
‘द्वितीय’ दिया अद्वितीय बना ।
क्या तेरा कहना ।।२१।।
‘पेटी’ दीखती भरी ।
श्री जी पकड़ी ज्यों ही अंगुली ।।२२।।
‘सूद’ अहसां बढ़ता ।
और सिर भक्त उठता ।।२३।।
‘बिन्दु’ भक्त, श्री जी समन्दर ।
जानें, क्या चले अन्दर ? ।।२४।।
म(त्)-त्वेति नाथ ! तव संस्-
तवनं मयेद,
मा-रभ्यते तनु-धियापि
तव प्र-भावात् ।
चेतो हरि(ष्)-ष्यति सतां
नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल(द्) द्युति मु-पैति
ननूद-बिन्दुः ॥८॥
(९)
‘आस’ पास ही रहे आते भगवन् ।
भक्त माँ बन ।।१।।
‘ताम’ झाम से रहते बच्चे ।
भक्त भगवन् सच्चे ।।२।।
‘बंसत’ खोता न जीवन से ।
जुड़ ‘के भगवन् से ।।३।।
‘अस्त’ होता है भान ।
न होता वक्त भक्त भगवान् ।।४।।
‘दोष’ भगवन् भक्त देखें ।
ऐसे ‘कि लेंस न दिखें ।।५।।
‘कथा’ ।
भगवन् आप की ।
आप ही, दे विघटा व्यथा ।।६।।
‘थापी’ मूरत भगवन् अन्तरंग ।
दे जमा रंग ।।७।।
‘जगत’ ।
जगत् दोई ।
कोई, भगवत् और भगत ।।८।।
‘दुरित’ सांप वल्मीक दिखे ।
आप मोर क्या दीखे ।।९।।
‘माहन्त’ ग्रन्थ, भगवन्त सेवा ।
श्री अनन्त देवा ।।१०।।
‘दूर’ भगवन् भक्त पलक-से जा ।
फिर जाते आ ।।११।।
‘सहस्र’ नैना ।
देख भगवन् तुम्हें छक पाये ना ।।१२।।
‘किरण’ भक्त भान भगवन् ।
एक न दूजे बिन ।।१३।।
‘रूठे’ भगवन् न रहे ज्यादा ।
भक्त रहते नादॉं ।।१४।।
‘भाव’ खाते न मिले ।
भगवन् भक्त होते विरले ।।१५।।
‘पद्मासन’ ‘कि ध्याये ।
भक्त-भगवन् दौड़ते आये ।।१६।।
‘आ कर’ देखो भक्त जिया ।
खोज तो मन्दिर लिया ।।१७।।
‘जलसे’ मन जाते ।
भक्त पास क्या भगवन् आते ।।१८।।
‘जानी’ मानी ।
दे मेंट भक्ति भगवन् ‘कि आनी जानी ।।१९।।
‘बिका’ बिकेगा भी नहीं ।
रिश्ता भक्त भगवन् कभी ।।२०।।
‘सभा’ तिहार ।
एक, न जहां प्यार ।।
घुला व्यापार ।।२१।।
‘जी’ लागत ना ।
भक्त भगवन् एक दूजे के बिना ।।२२।।
आस्ताम् तवस्-तवन-मस्त
समस्त-दोषम्,
त्वत्-सङ्कथाऽपि जगतां
दुरि-तानि हन्ति ।
दूरे स-हस्र-किरणः
कुरुते प्रभैव,
पद्मा-करेषु जल-जानि
विकास-भाञ्जि ॥९॥
(१०)
‘नाता’ भगत भगवत् भॉंता ।
ना है, ना होगा, ना था ।।१।।
‘अदभुत’ बेटे माँ ।
लड़ते कहते मैं जिस्म तू जॉं ।।२।।
‘भुवन’ सूना सूना ।
भक्त भगवन् पा सोना सोना ।।३।।
‘भूषण’ फीके सब ।
भक्त भगवन् सरीखे कब ।।४।।
‘भूत’ भविष्यत वर्तमान ।
और क्या भक्त भगवान् ।।५।।
‘नाथ’ तुम, मैं किंकर तेरा ।
ध्यान रखना मेरा ।।६।।
‘भौ तैर’ जाते ।
भगवन् बार तीन जो घेर आते ।।७।।
‘गुण’-धागे दो कच्चे ।
हैं बँधे भक्त भगवन् पक्के ।।८।।
‘भी’ भींजी वाणी भगवत् ।
भगतेक कल्याणी जगत् ।।९।।
‘भौ अन्त’ ।
लागे दीखने ।
क्या दीखने लागे निर्ग्रन्थ ।।१०।।
‘अभिनय’ से दूर भगत ।
इतिहास तभी रचत ।।११।।
‘बनती’ खूब ।
भक्त भगवन् चप्पू वा पनडूब ।।१२।।
‘तुलसी’ चौरा ।
भक्त और भगवन् कलशी डोरा ।।१३।।
‘भगवत्’ भक्त, बोलूॅं तो ।
एक सिक्के के पहलू दो ।।१४।।
‘मनुआ’ दे खो मस्ती ।
आ के भगवन् भक्तों की बस्ती ।।१५।।
‘किताब’ न दृग् लगाते ।
भक्त जीत खिताब लाते ।।१६।।
‘भूत-प्रेत’ छू पाया भक्त को ।
नहीं आया वक्त वो ।।१७।।
‘आश्रित’ भक्त भगवन् पर ।
बीज वृक्ष अपर ।।१८।।
‘इह’ लोकादि भै-सत्ता एकाध ना ।
भक्त साध-ना ।।१९।।
‘तव-मम’ न भजा ।
भक्त भगवन् जिस्मो एक जाँ ।।२०।।
‘करो’ हमार मदद ।
ए ! निवार दीन दरद ।।२१।।
ना(त्)-त्यद्-भुतं भुवन भूषण !
भूत-नाथ !
भूतैर्-गुणैर्-भुवि भवन्त
मभिष्-टुवन्तः ।
तुल्या भवन्ति भ-वतो
ननु तेन किं वा,
भूत्या(श्)-श्रितं य इह नात्म-
समम् करोति ॥१०॥
(११)
‘दृष्टि’ हटाये न हटे ।
रूप आप जर्रा हट के ।।१।।
‘वै-भव’ पाता न बन ।
जी भगवन् कर अर्पण ।।२।।
‘अनिमेषों’ में आयें ।
भगवन् भक्त क्या दिख जायें ।।३।।
‘बिलोना’ पानी न हुआ ।
भक्त हस्ते भगवन् दुआ ।।४।।
‘नियम’ ।
भक्त भगवन्
मिलते ले नयन नम ।।५।।
‘ना’ दें भगत और भगवत् ।
पैसे अहमीयत ।।६।।
‘सन्तोषी’ खूब ।
भक्त सर-अध्यात्म सन्तों सी डूब ।।७।।
‘उप-कार’ ।
दे पहुंचा भगत को भगवत् द्वार ।।८।।
‘अति’ भगवत् भगत करें ।
मिलें, या ‘के बिछुरें ।।९।।
‘नच’ कहता न कोई ।
पै माने तो बेटे मॉं दोई ।।१०।।
‘छू’ आती हवा ।
भगवन् चरण क्या, बनती दवा ।।११।।
‘प्रीत’ पुरानी ।
भगवन् भक्त,
कहे वक्त कहानी ।।१२।।
‘पा यह’ लूँ, पा वह लूँ ।
जलाते न भक्त रक्त यूं ।।१३।।
‘श्रम-सीकर’ छू भक्त पायें ।
पोंछ भगवन् जायें ।।१४।।
‘दो तीन’ चार पाँच ।
आई न भक्त भगवन् आँच ।।१५।।
‘दुग्ध’ सागर जल ।
हाथ भगवन् भक्त केवल ।।१६।।
‘सिन्धु’ उमड़े भगत ।
ज्यों ही दिखे चाँद भगवत् ।।१७।।
‘क्षार’, पा अन्त ।
देह,
लगाते सेव आ भगवन्त ।।१८।।
‘जल’ रहते भले ।
पै कमल से भक्त विरले ।।१९।।
‘जलन’ दूर चलन ।
कोहनूर भक्त भगवन् ।।२०।।
‘धैर्य’ गहने ।
खूब भगवन् भक्त रहें पहने ।।२१।।
‘इच्छा’ जायका भूली सी भक्त जुबां ।
भगवन् कृपा ।।२२।।
दृष्-ट्वा भ-वन्त म-निमेष-
वि-लोक-नीयं,
ना(न्)-न्यत्र-तोष-मु-पयाति
जनस्य चक्षुः ।
पी(त्)-त्वा पयः शशि-कर(द्)-
द्युति-दुग्ध-सिन्धोः,
क्षारं जलं जल-निधे-
रसितुं क इच्छेत् ? ॥११॥
(१२)
‘ये’ थमी जमीं टिका आसमाँ ।
दुआ दे रही जो माँ ।।१।।
‘शान’ में लागे चाँद चार ।
पा प्रभु का दरबार ।।२।।
‘रागिनी’ ।
रफ्ता रफ्ता,
छू जाये भक्त को अनगिनी ।।३।।
‘रुचि’ भक्त ज्यों भगवन् से ।
नाग-न त्यों चन्दन से ।।४।।
‘पर-मानूँ’ मैं ।
कहा, कहाँ तू रमा, परमाणु में ।।५।।
‘सचाई’ ।
भक्त भगवन्,
आपस न कभी छिपाई ।।६।।
‘निर्माण’ होता ।
पास भगवन् भक्त निर्-मान होता ।।७।।
‘तैस’ में आना ।
कहे न भगवन् को अभी पिछाना ।।८।।
‘बनक’ जुदा सी ।
माई कुछ कुछ भाई खुदा सी ।।९।।
‘ललाई’ ।
दिखे ‘कि लो भगवन् भक्त चेहरे छाई ।।१०।।
‘भूलें’ और जो भूलें ।
तो भगवन् आ आंखों में झूलें ।।११।।
‘तनाव’ बोले ताव ।
मिली न अभी भगवन् छांव ।।१२।।
‘वक’ म-छली ।
भगवन् भक्त मत हंस विरली ।।१३।।
‘प्रण’ ।
न देते भगवन्,
रहे भक्त न लिये बिन ।।१४।।
‘पृथ्वी’ आकाश, पानी, अग्नि, वायु ।
है सभी में तो तू ।।१५।।
‘तेरे’ मेरे ।
हैं न भगवन् किसके,
जगत् तो घेरे ।।१६।।
‘समान’ ।
किये वगैर अपने,
न माने भगवान् ।।१७।।
‘परम्परा’ न टूटी ।
भक्त भगवन् भक्ति अनूठी ।।१८।।
‘नहले’ किया दहला हाथ ।
कब न भक्त याद ।।१९।।
‘रूप रुपये’ दूर ।
भगत और भगवत् नूर ।।२०।।
‘मस्त’ खुद में रहते ।
न कहते, भक्त सहते ।।२१।।
यैः शान्त-राग-रुचिभिः
पर-माणु-भिस्-त्वं,
निर्मा-पितैस्- त्रि-भुवनैक
ललाम-भूत ! ।
ता-वन्त एव खलु ते(प्)-
प्य-णवः पृथिव्यां,
यत्ते समान-मपरं
न हि रूप-मस्ति ॥१२॥
(१३)
‘वख्तर’ भक्ति पहिन ।
भक्त लेते जीत भौ रण ।।१।।
‘बातें’ न खत्म भगवन् भक्त ।
खत्म मिलन वक्त ।।२।।
‘तेवर’ कुछ कुछ बदलें ।
भक्त भगवन् मिलें ।।३।।
न ‘रो’ बेटू ।
मॉं भी ढूंढ़े बेशबरी से न सिर्फ तू ।।४।।
‘रग रग’ में रक्त ।
बहता नाम भगवान् भक्त ।।५।।
‘नेत्र’ से लागी धार ।
पा लो भगवन् पांव पखार ।।६।।
‘हारी’ मैं हारी’ ।
बिटिया कहे वहां से महतारी ।।७।।
‘निःशेष’ रूप से ।
मैं तुम्हारा हूॅं, क्या है हमारा तू ।।८।।
‘निशा’ पैरों के “आई” छोड़ ।
आ सकें ‘कि बच्चे दौड़ ।।९।।
‘जै न’ चाहिये ।
फैलाये हाथ बेटे “मात” के लिये ।।१०।।
‘जगराता’ ।
न पर्व पै मनाना,
माँ को सिर्फ आता ।।१२।।
‘मैं मान’ ।
मॉं न मेरे वश में,
और सारा जहान ।।१३।।
‘तय’ भगवन् भक्त मिलन ।
नम ‘कि ये नयन ।।१४।।
‘जिन बिम्ब’ में ।
दे दिखाई झलक अपनी हमें ।।१५।।
‘कलंक’ बच्चे चेहरे देख पाई ना ।
माँ आई…ना ।।१६।।
‘मलिन’ मन ।
कहे न मिल पाये अभी भगवन् ।।१७।।
‘करिश्मा’ देखा ।
भक्त भगवन् पास न चश्मा देखा ।।१८।।
‘यद्वा’ तद्वा न चाले ।
भक्त भगवन् मन्जिल पा ले ।।१९।।
‘सरे’ आम ।
जो कोई,
तो होती भक्ति न बदनाम ।।२०।।
‘भगवती’
माँ,
‘कि बेटा सदा देता, आती भागती ।।२१।।
‘पा…पा’ दिलाते ।
न ‘कि साई…कल तू याद दिलाते ।।२२।।
‘प्रयास’ वक्त ।
फूट डल न पाती,
भगवत् भक्त ।।२३।।
‘कल्पना’ से ।
न भीगें,
भक्त भगवन् कल-पना से ।।२४।।
वक्त्रं क्व ते सुर-न-रोरग-
नेत्र-हारि,
निःशेष-निर्-जित जगत्-
त्रि-तयो-पमानम् ।
बिम्बं कलङ्क मलिनं
क्व निशा-करस्य,
य(द्)-द्वासरे भवति पाण्डु-
पलाश-कल्पम् ॥१३॥
(१४)
‘पूर्ण’ बनना ।
बने भक्त बिना,
न देखा न सुना ।।१।
‘मण्डल’ भक्त ।
दे किसी का,
जंगल भी साथ वक्त ।।२।।
‘शशांक’ चीन चीन ।
सुधा बाँटें श्री जी रात-दीन ।।३।।
‘कला कलाप’ गिनती ।
चन्द्रमा माँ अनगिनती ।।४।।
‘शुभ्र’ चांदनी न लागे ।
परिणति सुमन आगे ।।५।।
‘गुण’ हरेक ।
भगवन् झोली भक्त डालें आ देख ।।६।।
‘त्रि भौन’ घूमे ।
मिल भगवन् भक्त सा कौन झूमे ।।७।।
‘तबला’ वंशी, घुंघरू ।
बाजे ‘के ए ! भक्त झूम तू ।।८।।
‘लंघन’ कहाँ रास ।
भक्त भगवन् के उपवास ।।९।।
‘यन्त्र-वत्’ होगा और जीवन ।
पास साधो भी’धन ।।१०।।
‘ये’ जिन्दगी दी तुमने ।
नाम तेरे ही की हमने ।।११।।
‘संस्कार’ दिये माँ दीये से ।
करो ना जुदा हिये से ।।१२।।
‘ताश’-महल जिन्दड़ी ।
अजूबा कैसे पल ठहरी ।।१३।।
‘जगदीश्वर’ वो ।
हैं सुनते जग-दार्त स्वर जो ।।१४।।
‘नाथ’ ! मैं तेरी पांवन धूल ।
जाना मुझे न भूल ।।१५।।
‘एकता’ बन्द मुट्टी ।
काफी करने बन्धन छुट्टी ।।१६।।
‘कश्ती’ भगवन्,
महंगी नहीं ।
ज्यादा सस्ती भी नहीं ।।१७।।
‘तानते’ ‘कि ना चीज टूटे ।
भगवन् भक्त अनूठे ।।१८।।
‘निभाना’ आया कितना माँ को ।
बच-पन जा झांको ।।१९।।
‘संसार’ बचे चुलुक भर ।
भक्ति भगवत् कर ।।२०।।
‘न थे शठ’ ।
है शठ न होंगे,
पास जो ‘ध्यां’ त्रेसठ ।।२१।।
सम्पूर्ण-मण्डल-शशाङ्क
कला-कलाप-
शु(भ्)-भ्रा गुणास् त्रि-भु-वनं
तव लङ्-घयन्ति ।
ये सं(स्)-श्रितास् त्रि-ज-ग-
दी(श्)-श्वर नाथ-मेकं,
कस्तान् नि-वा-रयति सञ्-
चरतो यथेष्-टम् ॥१४॥
(१५)
‘चित्र’ बेटे का बनाया ।
बना मॉं का, जाने क्या माया ।।१।।
‘कीमत’ जा न सकती आँकी ।
गर तस्वीर माँ की ।।२।।
‘यदि’ होती न माँ ।
न धरती होती, न होता आस्मां ।।३।।
‘तेतीस’ तीस तरफ ।
किरदार ए माँ सिरफ ।।४।।
‘आँगन मेरे भी’ ।
मेरे भगवन् ओ ! आओ तो कभी ।।५।।
‘विनीत’ बेंत बोल ।
नहीं टका भी अकड़ मोल ।।६।।
‘मनाक् भी’ कैसा ही ।
न रखती चश्मा माँ नाक कभी ।।७।।
‘मनो भाव’ ले बखूबी पढ़ ।
भले माँ अनपढ़ ।।८।।
‘विकार’ नाग न टिके देखा ।
सुन भगवन् केका ।।९।।
‘माँ रग’-रग बही ।
वही करुणा मारग सही ।।१०।।
‘कल्पना’ थमें ।
कल-पना ज्यादा ही कुछ इसमें ।।११।।
‘काला’ गोरा न रखता मायने माँ को ।
न यूं आंको ।।१२।।
‘मरते’ बेटे माँ इक दूजे पर ।
गूंजें अम्बर ।।१३।।
‘चले’ एक ना ।
आगे एक दूजे के,
बेटे और मां ।।१४।।
‘आँच…
न ताँकी, न झांकी ।
आस पास बेटे के मॉं थी ।।१५।।
‘लेन’ देन न आता ।
माई पनीले नैनन नाता ।।१६।।
‘किं’-कर्त्तव्य-वि-मूढ़ दिखाया भक्त ।
न आया वक्त ।।१७।।
‘मंदिर’ आ भी-तर टटोलो ।
मुट्ठी बने न खालो ।।१८।।
‘कद्र’ करना ।
बोने हो के भी ऊंचा कद करना ।।१९।।
‘शिखर जी’ से अमोल ।
दो माँ मुख आशीष बोल ।।२०।।
‘चरित’ कसा न ढ़ीला ।
बड़ी माँ की अपार लीला ।।२१।।
‘कदाचित्’ खाई ।
धोखा पाई मौक़ा न खिलाई माई ।।२२।।
चित्रं-किमत्र यदि ते(त्)-
त्रि-दशाङ्ग-नाभिर्-
नीतं मना-गपि मनो
न विकार मार्गम् ।
कल्पान्त-काल मरुता
चलि-ता-चलेन,
किं मन्-दराद्रि-शिखरं
चलितं कदाचित् ॥१५॥
(१६)
‘निर्धन’ तेरा अपना बन, मालो-माल ।
तत्काल ।।१।।
‘अधम’ दिये लगा पार ।
खड़ा मैं भी तेरे द्वार ।।२।।
‘वक्त’ वर्तमां ।
भूत व भावी सिर्फ भक्त वर्धमां ।।३।।
‘पा…रब’ ।
दिन-दिन क्या ?
अब छिन-छिन परब ।।४।।
‘जीत’ दे हार ।
हार दे जीत, रीती व्यापार प्रीत ।।५।।
तेल हेत न पेलते रेत भक्त ।
पाबन्द वक्त ।।६।।
‘पूर्व’ पश्चिम दक्षिणोत्तर ।
बेटे माँ अनुत्तर ।।७।।
‘कृति’ मॉं ।
प्रतिकृति माँ,
बच्चे बच्ची सच्ची प्रतिमा ।।८।।
‘मंजे’ रहते ।
भगवन् भक्त खूब मजे रहते ।।९।।
‘गर्मी’ में जैसे शीतल पवन ।
श्री गुरु शरण ।।१०।।
‘दमड़ी’, टका, पाई ।
फिर,
बच्चों को पहले माई ।।११।।
‘गटती’ खूब भगवन् भक्त ।
चले पता न वक्त ।।१२।।
‘करो’ कुछ न कहना,
“पड़ा”
माई ।
अखर ढ़ाई ।।१३।।
‘गम्म’ दिश्-दिश् ये बात ।
क्या होगी माँगी माँ ने मुराद ।।१४।।
‘न जात’-पात की बात ।
सीधा गुरु ने दिया हाथ ।।१५।।
‘तुम’ खुशियों की रुत हो ।
बहुत अद्भुत हो, माँ ।।१६।।
‘रुतवा’ साथ माँ हाथ अनोखा ।
दे खो ना मौका ।।१७।।
‘चलाना’ ।
एक न अपनी आई मां,
और आईना ।।१८।।
‘दीपों’ का पर्व होता अपना ।
गुरु आ लेते बना ।।१९।।
‘परसों’ कल न किया ।
बना माँ ने दे हाथ दिया ।।२०।।
‘तत्-त्वम् असि’ भो !
साँच उवाच्,
परम तत्त्वं असि भौ ।।२१।।
निर्धूम वर्ति र-पवर्-जित-
तैल-पूर:,
कृत्स्-नम् जगत्-त्रय मिदं
प्र-कटी-क-रोषि ।
गम्यो न जातु मरु-तां
चलि-ता-चलानां,
दी-पोऽपरस्-त्व-मसि नाथ !
जगत्-प्रकाशः ॥१६॥
(१७)
‘ना’ कहना ना आता ।
साधो कहने से हाँ न नाता ।।१।।
‘सत्’ कूट-कूट के भरा ।
साधु होते हट के जरा ।।२।।
‘तमगा’ लगे ‘कि सीना ।
बहाते न साधु पसीना ।।३।।
‘चित्’ गया लाग ।
भगवन् से और क्या ? सोने सुहाग ।।४।।
‘प्रयास’ भक्त ।
मिलें ज्यादा से ज्यादा भगवन् वक्त ।।५।।
‘नाराज’ बच्चों से मॉं है ।
न तलक आज सुना है ।।६।।
‘हुजूम’ पीछे साधो ।
नजरें नीचे, मासूम ना औ’ ।।७।।
‘पट्टी’ पढ़ाई ना ।
हॉं ! सिलेट बत्ती ले पढ़ाई मॉं ।।८।।
‘टीपना’ नक्ल ।
अस्ल मोक्ष मार्ग न लड़ाना अक्ल ।।९।।
‘सिसकी’ झूठी भी पड़ी कान ।
रूठी मॉं जाती मान ।।१०।।
‘पत्रा’ दें पता ।
भगवन् भक्त,
एक जॉं, जिस्म जुदा ।।११।।
‘गलती’ बेटे करें ।
नैन आँसुओं से माँ के भरें ।।१२।।
‘नाम’ पहले माँ लें ।
ऐसे भगत भगवत् पा लें ।।१३।।
‘दर्पण’ छोटा भले ।
मिलें,
कालिख भाग निकले ।।१४।।
‘महा’ कोई ।
माँ हाँ बोले एक सुर से जहां दोई ।।१५।।
‘प्रभाव’ और क्या मॉं पिता ।
अभाव क्या ? लगा न पता ।।१६।।
‘अतिशय’ हो जाते ।
नैन भक्त क्या डबडबाते ।।१७।।
‘महिमा’ ।
आगे से पढ़ो पीछे से,
माँ ही माँ, मॉं ही माँ ।।१८।।
‘मॉं सी’ मात्रा हो ।
वेग बखत,
अच्छी खासी यात्रा हो ।।१९।।
‘नींद’ ले सकें बच्चे पक्की ।
लेती ‘कि नींद माँ कच्ची ।।२०।।
‘लोक’ जनता सबरी ।
‘शबरी’ न उठी पालड़ी ।।२१।।
नास्-तम् कदाचि-दु-पयासि
न राहु-गम्यः,
स्पष्-टी क-रोषि स-हसा
यु-गपज्-जगन्ति ।
नाम्भो-धरोदर निरुद्ध
महा(प्)-प्रभाव:,
सूर्याति-शायि-महि-मासि
मुनीन्द्र ! लोके ॥१७॥
(१८)
‘नित्य’ चरण माँ छूना ।
आचरण आस्मां जो छूना ।।१।।
‘उदय’ पाप ।
बिलाया,
क्या बिठाया हृदय आप ।।२।।
‘दल’ बदल,
काम बच्चे नाम ।
माँ तुझे सलाम ।।३।।
‘मो-हक’ ।
कहा कभी न,
दिया बेटे के नाम लिख ।।४।।
‘महात्मा’ आत्मा परमात्मा ।
बिन माँ कहॉं पूर्णऽमॉं ।।५।।
‘धका’ माँ-भी ले चलने में माहिर ।
जग जाहिर ।।६।।
‘गम ला’ देता जा ना मुझे ।
खुशियां दूगाँ मैं तुझे ।।७।।
‘राहु’ सितम ।
तो है ना,
णमो लोए सव्व साहूणं ।।८।।
‘वजन’ बात उपहार ।
वजन हाथ तो भार ।।९।।
‘बाड़ी’ काम की बड़ी ।
कराये नामे श्री फुलझड़ी ।।१०।।
‘दानिश’ हुआ इस भौ ।
दान इस दिया उस भौ ।।११।।
‘विभावरी’ सो न काटते ।
वो चाँदी सोना काटते ।।१२।।
‘तबीयत’ माँ बेटे छुपाई ।
पढ़े आखर ढ़ाई ।।१३।।
‘ख्वाब’ में ख्याल में, सच्ची ।
रहते मॉं के बच्चे बच्ची ।।१४।।
‘जन्म’ मरण सिक्के के पहलू दो ।
अमर तू तो ।।१५।।
‘कान’ पकड़े,
‘के दे माफी देती माँ ।
मूरत क्षमा ।।१६।।
‘विद्या’ की देवी ।
अपने बच्चो में लो रख मुझे भी ।।१७।
‘तय’ ।
तरफ जिसके रहती माँ,
उसकी जय ।।१८।।
‘गन्दला’ देख माँ न पाती ।
जल दृग् ला नहलाती ।।१९।।
‘पूरी’ अधूरी ।
मंगाई,
पाई पूरी माई दूसरी ।।२०।।
‘शशांक’ को जा मात देता ।
हो अंक बस मॉं बेटा ।।२१।।
नित्यो-दयं दलित मोह
महान्-धकार,
गम्यं न राहु व-दनस्य
न वारि-दानाम् ।
वि(भ्)-भ्राजते तव मुखाब्ज
म-नल्-पकान्ति,
वि(द्)-द्यो-तयज्-जग-दपूर्व-
शशाङ्क-बिम्बम् ॥१८॥
(१९)
‘कीमत’ दुकाँ-मकाँ सकते तौल ।
माँ अनमोल ।।१।।
‘सबर’ की क्या बात करी ।
नाम ही भक्त शबरी ।।२।।
‘शीश’ बिठाने भगवान् ।
बिठा लेता शीश जहान ।।३।।
‘नाँहि’ सिवाय तोर ।
कोई भी मोर अय ! चित् चोर ।।४।।
‘विवश’ होगी माँ ।
आई-ना सिसक रही होगी माँ ।।५।।
‘तौबा-तौबा’ न करना “पड़ी” ।
दूजी माँ बारा-खड़ी ।।६।।
‘सुमन’ खुश कॉंटों के बीच ।
हर-दिल अजीज ।।७।।
‘खेल’ खेल में, माँ दे करा पढ़ाई ।
आखर ढ़ाई ।।८।।
‘तम’-तमाना ।
साथ बाल-पन, माँ आती दफना ।।९।।
‘सुना’ न आया देखने में ।
अन्तर भगवन् मॉं में ।।१०।।
‘निकले मुख पन्ना’ पन्ना ।
मैं ना तो तीनों पन ना ।।११।।
‘शालि’ भी कोदों धान ।
भक्त खिलाई, खाई भगवान् ।।१२।।
वंश मैं,
बजा रहा जो वंशी चैन ।
माई दी देन ।।१३।।
‘शालीन’ बड़ी परिणति सन्तोषी ।
माई सन्तों सी ।।१४।।
‘जीवन’ धन पैसा ।
‘रे “ना ना”,
बिन जी वन कैसा ।।१५।।
‘लोक’ रंजन ।
साधो ज्यादा नादॉं लोक वंचन ।।१६।।
‘यकीं’ बेटों ने तोड़ा ।
मां ने बनती कोशिश जोड़ा ।।१७।।
‘जलन’ जल…न कहना ।
जाओगे जल वरना ।।१८।।
‘जल’ भुनने से बच्चे ।
भगवान् ‘कि दिल के सच्चे ।।१९।।
‘भार’ छू ।
होगा होगा होगा,
‘रे मान तो आभार तू ।।२०।।
‘नम्र’ जो ।
कद से ऊंचे होते भले कम उम्र वो ।।२१।।
किं शर्-वरीषु शशि-नाह्-(हि)नि
विव(स्)-स्वता वा,
युष्मन्-मुखेन्दु-दलि-तेषु
तमः सु-नाथ !
निष्-पन्न-शालि-वन-शा-लिनी
जीव-लोके,
कार्यं कियज्-जल-धरैर्-
जल-भार-न(म्)-म्रैः ॥१९॥
(२०)
‘ज्ञान’ न रखे,
आस्मां छुवाने की वो शक्ति ।
जो भक्ति ।।१।।
‘था’ था थैय्या न नचाते ।
बेटे-मैय्या उनमें आते ।।२।।
‘वैसा’
जी चाहा जैसा, क्या होता ? ।
कागा फिर क्यों ? धोता ।।३।।
‘भाती’ मां जब-जब निकला नेनू ।
औ’ काम धेनू ।।४।।
‘ताव’ विरंग,
लो बना पतंग ।
लो जमा ना रंग ।।५।।
‘काश’ लगता मेरे ।
‘हाथ’ चाँद तो करता तेरे ।।६।।
‘नैन’ चार क्या तुझसे हुये ।
जल सागर छुये ।।७।।
‘थाह’ माँ…लेने की सनक ।
न लौटी अब तलक ।।८।।
‘हरी’ छेड़े न ।
सु-मन सिमरण हरी छोड़े ना ।।९।।
‘हरा’ पायेगा कौन उसे ।
जीतना ही नहीं जिसे ।।१०।।
‘दिश’ दिश ने राह ताँकी ।
विश्वास-भर भर ले पाखी ।।११।।
‘नायक’ गया बनाया ।
‘कि लायक बनना आया ।।१२।।
‘तेज’ मिला माँ की सेव से ।
मिलता देव-देव से ।।१३।।
‘महारत’ ।
माँ देती बहुत कुछ, जब हारत ।।१४।।
‘मणि’ कांचन योग ।
वचन मन तन नीरोग ।।१५।।
‘असूया’ पानी रग सुखाती ।
कल पानी-दृग् लाती ।।१६।।
‘थाम’ लिया मॉं ने ।
गिराया था, बन सका शैतां ने ।।१७।।
‘माँ’ यानि नहीं, हत्व यानि विघाता ।
महत्व गाता ।।१८।।
‘शक्ल’ के,
भले, अक्ल के न बच्चे ।
माँ को लगें अच्छे ।।१९।।
‘किरपा’ जाये बरस तेरी ।
बस अरज मेरी ।।२०।।
‘आकुल’,
बेटे व्याकुल ।
पास हुये माँ निराकुल ।।२१।।
ज्ञानं यथा(त्)-त्वयि विभाति
कृ-ता-वका-शं,
नैवं तथा हरि-हरा-दिषु
ना-यकेषु ।
तेजो महा मणिषु याति
यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच-शकले
कि-रणा-कुलेऽपि ॥२०॥
(२१)
‘मन’ ये नहीं काजल ।
गाता मीठा, पीछे कोयल ।।१।।
‘बरसना’ ही नहीं ।
आता मन को बरसाना भी ।।२।।
‘हरी’ उनकी ।
‘सुनते’
आवाज जो अन्तर्-मन की ।।३।।
‘हराने’ मन को ।
कोशिश जीतने की मत करो ।।४।।
‘दया’ भींगता जाता मन ।
दीखता जाता भगवन् ।।५।।
‘एबें’ निकसी मन से ।
बने हम ‘कि भगवन् से ।।६।।
‘दृष्टि’ रखना साफ ।
पहले से ही मन निष्पाप ।।७।।
‘हृ…दय’ दया के साथ भेजा ।
भेजा तो सिर्फ भेजा ।।८।।
न ‘मतलबी’ ।
मन,
दर्पण और अपनी छवि ।।९।।
‘संतोष’ आगे पीछे ही ।
मन-तोष ‘के कहते ही ।।१०।।
‘इति’-हास हो ।
थी रो पड़ी, द्रोपदी
इतिहास हो ।।११।।
‘किम्’ किम् ही नहीं ।
कहे मन,
खुल जा सिम सिम भी ।।१२।।
‘त…न’ जो पीछे से पढ़ा ।
न…त
तो ‘रे पीछे न पड़ा ।।१३।।
‘दे बता’ मन ।
कितने ‘के पानी में,
देवता मन ।।१४।।
‘विनय’ भूल ।
हृदय नदारद खुशबू फूल ।।१५।।
‘यह’ रखना याद ।
‘कि मन जन्मों की फरियाद ।।१६।।
‘कंचन’ वसा मन ।
क्या कर लिया, कहो ? आ वन ।।१७।।
‘मा’ यानि नहीं ।
कहने योग्य हन्त,
वही महन्त ।।१८।।
‘र…ति’ पलटे ‘कि भाग फिर गये ।
‘जि तिर गये ।।१९।।
‘था’ न है ।
मन चंचल,
सुन कह के बनाया है ।।२०।।
‘रख’ दुनाल मन काँधे ।
हा ! लक्ष्य मैंने ही साधे ।।२१।।
मन्ये वरं हरि-हरा-
दय एव दृष्टा,
दृष्-टेषु येषु हृदयं
त्वयि तोष-मेति ।
किं वी(क्)-क्षितेन भवता
भुवि येन नान्यः,
कश्चिन्-मनो हरति नाथ !
भवान्-तरेऽपि ॥२१॥
(२२)
‘वीणा’ पाणी माँ ।
बन पड़ी गलतियां,
दे भी दो क्षमा ।।१।।
‘मस्ती’ करना आया मन को ।
दे…खो,
आ श्रमण को ।।२।।
‘हाथों’ में हार,
लागे ‘कि पार,
किस तरी से ।
स्त्री से ।।३।।
सत् ‘शो’ करना न आया ।
पड़ी माँ पे नानी की छाया ।।४।।
‘विनन्ति’ करे ।
बच्चों के लिए, जिये अर…मां मरे ।।५।।
‘पुत्र’ आ के माँ के पास ।
सुकून की लेता है श्वास ।।६।।
‘नानी’ कहानी,
कहानी न अकेली ।
बूझे पहेली ।।७।।
‘श्रुत’ न ऐसा वैसा ।
आया कानन जैसा का तैसा ।।८।।
‘निरुपम’ ।
माँ एहसानों में तुम,
तरु न कम ।।९।।
‘जननी’
एक ना…गिन ।
और नेक भी अनगिन ।।१०।।
‘प्रसून’ सांझ चले झर ।
सराय जहां न घर ।।११।।
‘वाकई’ बड़ा ही खुशबूदार ।
माँ का किरदार ।।१२।।
‘सौदेबाजी’ से दूर,
माँ सौदागर ।
ढ़ाई आखर ।।१३।।
‘बागवानी’ ए असर मॉं ।
आलम जो खुशनुमा ।।१४।।
‘स-हस्र’ हर कदम ।
रक्खो फूॅंक दर कदम ।।१५।।
‘करिश्मा’ ।
आता दिखाना,
किसी को, तो सिर्फ माँ चश्मा ।।१६।।
‘प्राचीन’ श्रुत, प्राची यानि पूर्व ।
न बल्कि अपूर्व ।।१७।।
‘आ’ आ भजन ।
भगवन् पद जाते बन भाजन ।।१८।।
‘तिस’ ना कहे जा रही ।
जाने किस पीछे जा रही ।।१९।।
‘फुर’ परेबा सुबह ।
साधो किसे फरेब यह ।।२०।।
‘दस्तक’ देना न पड़ी ।
जाने क्या क्या ? दूजी माँ पढ़ी ।।२१।।
‘जाल’ मकडी ।
बुनती और, जाती स्वयं पकड़ी ।।२२।।
स्त्रीणां शतानि शतशो
ज-नयन्ति पुत्रान्,
ना(न्)-न्या सुतं त्व-दु-पमं
जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो दधति भानि,
स-ह(स्)-स्र-रश्मिम्,
प्रा(च्)-च्येव दिग्-ज-नयतिस्-
फुर-दंशु-जालम् ॥२२॥
(२३)
‘आम’ अपने खास से जिन्हें ।
फर्सी सलामी तिन्हें ।।१।।
‘मन’ भरे न कुलाँछें जिनका ।
मैं चेरा तिनका ।।२।।
‘मुड़ा’ के बैठे, मूड़ के साथ मन ।
तिन्हें नमन ।।३।।
‘नया’-बया न कुछ ।
पूरा पुराना श्रुत, विश्रुत ।।४।।
‘तव’ मम न जिन्हें भाया ।
ये मन तिन-पे आया ।।५।।
‘दिया’ दीया,
न लिया लेने का नाम ।
तिन्हें प्रणाम ।।६।।
‘हित’ वरण,
रण मचे न मन ।
तिन्हें नमन ।।७।।
‘लगाते’ कुछ भले ।
घाव पर न मन विरले ।।८।।
‘सहजो’ पन जिन्हें ।
छूता, अनूठा नमन तिन्हें ।।९।।
‘रस्ता’ न सिर्फ दिया ।
साथ दिया, श्री गुरु शुक्रिया ।।१०।।
‘बातूनी’ न,
न बातों में आते ।
माथ तिन्हें नमाते ।।११।।
‘वक्त’ हाथ में, रखें न घड़ी भले ।
भक्त विरले ।।१२।।
‘समय’ की न भाई चोरी जिन-को ।
ढ़ोक तिनको ।।१३।।
‘गुपचुप’ दे आना, आ गया जिन्हें ।
सजदा तिन्हें ।।१४।।
‘जिताती’ रही बन के,
बाजी हर ।
माँ बाजीगर ।।१५।।
‘मृत्यु’ जीते जी न छू पाये ।
तिनके मैं लागूॅं पाय ।।१६।।
‘नाक’ रखना आँख आया ।
वे भेंटे आशीषी छाया ।।१७।।
‘वक्त’ जिन्हें न छकाता ।
मैं उनके भक्तों में आता ।।१८।।
‘शिव’ राधिका राह निहारे ।
तिन्हें नमन म्हारे ।।१९।।
‘मना’ के पद पर बैठाया जिन्हें ।
सजदा तिन्हें ।।२०।।
‘निन्दक’ रखा ।
पानी बिन साबुन,
जिया निखरा ।।२१।।
‘पथ’ नापना पाव-पाँव ।
उनकी चाहूँ मैं छाँव ।।२२।।
त्वा-मा-मनन्ति मुनयः
परमं पुमांस-
मादि(त्)-त्य-वर्ण-ममलं
त-मसः पुरस्-तात् ।
त्वामेव सम्य गु-पलभ्य
जयन्ति मृ(त्)-त्युम्,
नान्यः शिवः शिव-पदस्य
मुनीन्द्र ! पन्थाः ॥२३॥
(२४)
‘बारिस’ नम करना दिन रैन ।
छोड़ के नैन ।।१।।
‘व्यय’ न पुण्य पाई ।
साधो ! जीवन अंधी कमाई ।।२।।
‘विभव’ बर्से ।
जाये न लौट कोई, भूखा घर से ।।३।।
‘चिन्ता’ करना बच्चों का काम कहॉं है ।
जब मॉं है ।।४।।
‘सखा’ हों तारे भी ।
सु-मन धरती के तो सारे ही ।।५।।
‘जाये’ खो ।
बुरी ‘आदत’,
सुनहरी मेरी जाये हो ।।६।।
‘ब्रह्माण्ड’ सारा ।
पूरे सपने बन कर हमारा ।।७।।
‘स्वर’ दे रक्खो सबर ।
शायद हो लम्बा सफर ।।८।।
‘मनन’ क्या न भाई ? ।
फन माँ और नन समाई ।।९।।
‘मंशा’ हमरी ।
पालूँ कैसे भी कर, वंशा शबरी ।।१०।।
‘तुम’ सिर पे हाथ रख दो ।
मेह-मान दुख तो ।।११।।
‘ग्रीस’ निस्पृह ।
बनते ही बनते गिरीश वह ।।१२।।
‘वृद्धों’ के पैरों में माथा हुआ ।
विद्या से नाता हुआ ।।१३।।
‘योग’ यानि ‘कि जोड़ ।
स्वास्थ्य जो यदि लिया हो तोड़ ।।१४।।
‘मने’ दीवाली ।
मॉं, महात्मा, परमात्मा
कृपा निराली ।।१५।।
‘नेकी’ जा आऊॅं मैं कर ।
दरिया न जाये ‘कि भर ।।१६।।
‘ज्ञान’ सिंहनी दूध ।
चाहिये पाणि-पात्र अनूप ।।१७।।
‘रूप….ये’ ।
रखे रखे, न रह जाये रक्खे,
कूप ये ।।१८।।
‘मंगल कर’ ।
अर्हत, सिद्ध, साधु, ढ़ाई आखर ।।१९।।
‘परवचन’ राखी ।
राखी ध्यान,
हो पायें पर वच न ।।२०।।
‘सन्त’ सा…नत-विनत न कोई ।
ई, ऊ जहां दाई ।।२१।।
त्वा-म(व्)-व्ययं विभु-मचिन्त्य-
म-संख्य मा(द्)-द्यं,
ब्रह्माण-मीश्वर मनन्त
मनङ्ग-केतुम् ।
योगीश्वरं विदित योग-
मनेक-मेकं,
ज्ञान(स्)-स्वरूप म-मलं
प्र-वदन्ति सन्तः ॥२४॥
(२५)
‘बुद्ध’ दूसरे मानें ।
बुद्ध तो स्वयं को बुद्धू मानें ।।१।।
‘स्वानुभव’ हो गया क्या कहा ।
हुये बिना न रहा ।।२।।
‘देव’ देते जो ।
देवदेव देवों को जेब देते जो ।।३।।
‘चित्’ छोरा,
रहा आये कोरा,
अरमाँ ।
चित्रकार माँ ।।४।।
‘पसारे’ पैर गृद्धी अपने ।
बुद्धि चलती बने ।।५।।
‘बोधि’ समाधि,
परिणामों की शुद्धि सिवा ।
और क्या ? ।।६।।
‘तुम’ जो साथ मेरे ।
डरा न पाते मुझे अंधेरे ।।७।।
‘श…क’
क…श क्या छोटी सी भी खींची ।
दे मींच दृग् तींजी ।।८।।
‘सीवन’ रिश्ते तुरपाई ।
मुझे दो सिखला माई ।।९।।
‘यश’ उनका दीवाना ।
न डाले जो, यश को दाना ।।१०।।
‘वात’ लगनी भी चाहिये ।
तूफाँ न जिये,
क्या दीये ? ।।११।।
‘धारा’ के साथ चल ।
पा गया सिन्धु, बिन्दु भी जल ।।१२।।
‘धीरज’ दाने ने रखा ।
आ आसमाँ में तभी दिखा ।।१३।।
‘शि…व’ व…शि,
‘जि बस छोड़ना शव में लेना रस ।।१४।।
‘मार्ग’ बदलो ना ।
घाटी माटी बाद सोना दे…खो ना ।।१५।।
‘विधाता’ भाग हम अपने ।
जाग देखो सपने ।।१६।।
‘वक्त’ उनके साथ ।
मुट्टी बनाया जिन्होंने हाथ ।।१७।।
‘वमन’ श्वान निगलते, और भी ।
था पता नहीं ।।१८।।
‘भगवन्’ द्वारे ।
हो आना भाग-भाग, भाग सहारे ।।१९।।
‘पुरुष’,
पुरु…सा रखते साहस जो ।
आलस खो ।।२०।।
‘उत्तम’ ।
अरि-हन्त, सिद्ध, साधु,
दृग्-नम धरम ।।२१।।
बुद्धस्-त्व-मेव वि-बुधार्-चित-
बुद्धि-बोधात्,
त्वं शङ्-करोऽसि भु-वन(त्)-
त्रय-शङ्-कर(त्)-त्वात् ।
धातासि धीर ! शिव-मार्ग-
विधेर्-विधानाद्,
व्यक्तं त्व-मेव भगवन्
पुरु-षोत्-तमोऽसि ॥२५॥
(२६)
‘तुझे’ पाऊँ मैं ।
उठाऊँ पलकें या ‘कि झपाऊँ मैं ।।१।।
‘नज़र’ लगे ।
‘नजदीकी चाहिए’ न जर लगे ।।२।।
‘निकसे’ पन-त्रि ।
इस तरह ही चक्कर में स्त्री ।।३।।
‘भुना’ लो माँग न आज ।
देगा कल वो साथ ब्याज ।।४।।
उससे ‘राय’ लो ।
जिसे काय, मकाँ न, सराय हो ।।५।।
‘तुम’ भीतर आओ जी ।
ओ ! तुम’ भी तर आओ जी ।।६।।
‘नमो’ नमः भी-माँ ।
परमात्मा नमो नमः महात्मा ।।७।।
‘क्षितिज’ छूने, जो गया ।
लौट के न आया, खो गया ।।८।।
‘ताल’ से ताल मिला ।
पास सभी के रहती कला ।।९।।
‘लम्बा’ कद,
न किन किन का ।
ऊचां कद जिन का ।।१०।।
‘भूख’ से कम भोजन ।
संजीवन धन ! जीवन ।।११।।
‘भय’ खा, भर पेट दिखलाओ ।
तो डट के खाओ ।।१२।।
‘नेमते’ दादी माँ ।
छुऊँ ‘आज-प्रेम’ ये जो आसमां ।।१३।।
‘सुना’ ।
ज…ग…दो,
दो…ग…ज जमीं सिवा,
कौन अपना ।।१४।।
‘कुछ’ अजीब से ।
जुड़ता नाता ‘कि तहजीब से ।।१५।।
‘एक’ एक दो, तो सारी धरती ।
पै ‘मै-त्री’ करती ।।१६।।
‘य…म’…रा…ज,
ज…रा…म…य
ताना सीना ।
पार सफीना ।।१७।।
‘नमो’ नम: श्री जी,
स्वामी अष्टं पृथ्वी ।
सभी तपस्वी ।।१८।।
‘जिन्होंने’ जीता मन दुश्मन ।
उन्हें मन नमन ।।१९।।
‘भरोसा’ भरो सॉ…
होगा, होगा और होगा जो सोचा ।।२०।।
‘समझ’ दधि फेन उदधि मथा ।
सिरफ थका ।।२१।।
तुभ्यं नमस् त्रि-भु-वनार्-ति
हराय नाथ !
तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-
भूषणाय ।
तुभ्यं नमस् त्रि-ज-गतः
प-र-मे(श्)-श्वराय,
तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-
शो-षणाय ॥२६॥
(२७)
‘कोरी चादर’
दी ज्यों की त्यों उतार ।
तिन्हें जुहार ।।१।।
‘विस्मय’ !
कहॉं साँप,
विष-मय मैं कम न आप ।।२।।
‘मित्र’ बनाये जाते ।
बने बनाये आते, तो नाते ।।३।।
‘य…दि’ दि…य आ भिड़े पवन ।
तो तू जा ओट बन ।।४।।
‘अपना’ ना…म,
म…ना करे ।
मैं जड़ तू काहे मरे ।।५।।
‘गुण’ किसके पास न ।
चाहिये तो दूसरा चश्मा ।।६।।
‘पीछे’ वाले ।
जो शेष,
‘पाते’
विशेष, वो पीछी वाले ।।७।।
‘तुम’ बिन ।
न रह पाऊॅंगा,
दूर दिन, न छिन ।।८।।
‘अब’ काश !
मैं गंधा,
गो-रख धंधा लूॅं अवकाश ।।९।।
‘नीचा’ किसी को न दिखाईये ।
कहे ‘भूल’ जाईये ।।१०।।
पराये ‘दोष’ दिखना ।
माथे स्वयं दोष लिखना ।।११।।
पाणि-‘पा-तर ।
‘जो भी प्राणी, लेता पा,
वो जाता तर ।।१२।।
‘वि…रद’ करो हाथ ।
बनाने बात ।
विशेष दांत ।।१३।।
‘आश्रय’ देना ।
बनती कोशिश न कभी भी लेना ।।१४।।
‘जात-वैर’ में ख्यात पशु ।
हम भी बहुत कछु ।।१५।।
डण्डा ‘गरव’ में लगा ।
आओ खेलें भक्ति गरबा ।।१६।।
‘स्वप्न’ स्व-पन रखते ।
अपन हैं कैसे ? दिखते ।।१७।।
पत्ती ‘तुरुप’ ।
छोटी भी बड़ी,
भली सबसे चुप ।।१८।।
‘न…ख…रा’
रा…ख…न
क्यों ?
क्योंकि साधो न-खरा, नखरा ।।१९।।
‘चित्’ चुराना ।
ला मदर्से,
सन्तों को न पड़ा सिखाना ।।२०।।
बन सके तो रोजाना ।
पीछे-पीछे ‘पीछी’ के आना ।।२१।।
को विस्-मयोऽत्र यदि नाम
गुणै-र-शेषैस्-
त्वं सं(स्)-श्रितो नि-र-वकाश-
तया मुनीश !
दोषै-रुपात्त वि-विधा(श्)-
श्रय-जात-गर्वैः,
स्वप्नान्-तरेऽपि न कदाचि-
द-पी(क्)-क्षि-तोऽसि ॥२७॥
(२८)
‘चैन’ की वंशी मैं रहा बजा ।
दुआ ए माँ वजह ।।१।।
‘शोक’ को शॉक गया लग ।
नजर ही मॉं अलग ।।२।।
‘त…रु’ रु…त के आते आखर ढ़ाई ।
हूबहू माई ।।३।।
‘बसन्त’ पत-झड़ बाद ।
दें सन्त सदैव साथ ।।४।।
‘मयूर’ पंख न यूँ ही हाथ ।
आते मॉं दुआ साथ ।।५।।
‘गर्मी’ और ये ठण्डी हवा ।
पढ़ती होगी माँ दुआ ।।६।।
‘भारतीय’ माँ ।
वहाँ पड़ाव उम्र भार…तीय ना ।।७।।
‘रूप-ये’ देख न फूल जा ।
जा साँझ देख फूल आ ।।८।।
‘म…ह…र’
र…ह….म ।
अलट-पलट शब्द न कम ।।९।।
एक श्रम भो !
करता असंभव को भी ‘संभव’ ।।१०।।
ने…ता ‘ता…ने’ न मारें,
मारें तरंग मन ।
नमन ।।११।।
न छु’पता ‘सत्’ घृत जैसा ।
ऊपर आता हमेशा ।।१२।।
विपरीतता ।
‘क…र…न’
न…र…क ले चालती पता ।।१३।।
न अस्त-व्यस्त ।
अस्ति की मस्ती में जो व्यस्त ।
वो ‘मस्त’ ।।१४।।
क…विता ।
और क्या कहे,
सिवा, मेरे साथ क्या बीता ? ।।१५।।
कहता ‘त…म’ म…त डरो ।
दीपक रोशन करो ।।१६।।
‘अवलम्ब’ क्या छुआ ।
गली साकरी विलम्ब हुआ ।।१७।।
‘वैरी’ बेरी के काँटे से दिखते दो ।
है एक दे’खो ।।१८।।
‘श्वान’ फेंक,
दी हड्डी, फिर मुँह में ।
क्या हुआ तुम्हें ।।१९।।
नाम ‘पारस’ रस सुरग चखा ।
दे पार लगा ।।२०।।
बनना ‘व्र…ती’ ती…व्र पुण्य के बिना ।
मुमकिन ना ।।२१।।
उच्चै-रशोक- तरु सं(स्)-श्रित-
मुन्-मयूख,
माभाति रूप म-मलं
भवतो नितान्-तम् ।
स्पष्टोल्-लसत्-किरण-मस्त-
तमो-वितानम्,
बिम्बं रवे-रिव पयो-धर-
पार्श्व-वर्ति ॥२८॥
(२९)
‘हा…स’ स…हा जा सके उतना ही हो ।
सुना अ’जी ओ ! ।।१।।
‘सने’ दया से हाथ ।
क्या मिले,
हाथ हाथ मुराद ।।२।।
‘मणि’ तन्तर छू मन्तर ।
हा ! घड़ी बलवन्तर ।।३।।
दे कड़ीई से पालन सीख ।
पर्व हो कड़ी ‘ईख’ ।।४।।
तू दूर ‘शिक्षा’ से ।
वो तो कोने कोने से झांके तुझे ।।५।।
‘चीज’ न जायें फिसल ? ।
आ उगायें पुण्य फसल ।।६।।
जो ‘क…वि,
बि…क हा ! जाता ।
सच कभी लिख ना पाता ।।७।।
जो ‘वपु’ ना
वो धर्म भूमि वपाना,
ना पाने पुनः ।।८।।
कहता ‘ह…क’ क…ह फलाना मेरा ।
मैं हूॅं ना तेरा ।।९।।
‘दवाई’ ।
रोग,
न चेते तो,
सिर आ फिर उठाई ।।१०।।
‘वि…र…द’ ।
द…र…बी यानी ‘कि
चमचा-गिरी विरत ।।११।।
रहा ‘कि नहीं ‘ल…स’ ।
स…ल माथे की कहती बस ।।१२।।
बताया ‘दन्श’ सन्ध क्या पाया ।
दाब मैनें लगाया ।।१३।।
‘ल…ता’ ता…ल ले बैठा ।
तू हा ! क्यूँ रोना-काल ले बैठा ।।१४।।
‘तन’ तुमड़ी मानौ सेवा सहारे ।
ला लो किनारे ।।१५।।
मणियाँ, ढ़ेर खुशियाँ दे कहे,
लो ‘गो’ ।
न देना खो ।।१६।।
द…या या…द ‘कि रखने जैसी चीज कोई ।
भौ दोई ।।१७।।
‘नसीब’ बड़े ।
अपने, अपने जो करीब खड़े ।।१८।।
जमाना ।
‘स…ह’ हॅं…स बोले,
या विष घोले जमा…ना ।।१९।।
न…म…क
क…म…न भाया ।
‘र…स’ स…र ताज बताया ।।२०।।
‘मैं’ मछली, न होना ओझल ।
आखों से तुम जल ।।२१।।
सिंहासने मणि-मयूख-
शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपुः
क-न-का-वदातम् ।
बिम्बं वियद्-विलस
दंशु-लता-वितानं,
तुङ्गो-दयाद्रि-शिरसीव
स-ह(स्)-स्र-रश्मेः ॥२९॥
(३०)
वन्दन ।
गुरु ‘कुन्द’-कुन्द,
खुद सा कीजो कुन्दन ।।१।।
‘अभिनन्दन’ ।
देवी मरु माँ, पिता नाभि-नन्दन ।।२।।
जमाना ।
लगा नहीं कि ‘दाव’ दबा आना
जमा….ना ।।३।।
‘चाल’ ले चलें ।
सहजो-निराकुल न चालें चलें ।।४।।
‘चमड़ी’ नीचे ।
परिणति देखते ही आंखें मींचे ।।५।।
दाबा ।
किसी ने होगा क्या ?
‘र…चा’ चा…र वेद अलावा ।।६।।
बाबरा ‘भौंरा’ प्रेम पाश कंवल ।
हाथी कवल ।।७।।
सिर्फेक महा-‘राज’ ।
रक्खे रहते राज को राज ।।८।।
सारे ही बाजों पे हावी जब बला ।
मुझे ‘तब…ला’ ।।९।।
सिवाय ‘कल’ पना ।
कल्पना और क्या कलप’ना ।।१०।।
‘कहता’ ट…का,
का…ट न मेरी और दूजी ।
बाबू जी ।।११।।
‘कानन’ सुना,
न हो, आंखन देखा ।
बातन लेखा ।।१२।।
‘तमन्ना’ लिखा मॉं मेरा पन्ना-पन्ना ।
हो सम-पन्ना ।।१३।।
चर्म साबुन ।
करता ‘शुचि’ मन, धर्म माहन ।।१४।।
देख बेटे को आत्म निर्भर ।
आंखें माँ की ‘निर्झर’ ।।१५।।
तलक आज, पाई ‘रिवाज़’ ।
फिर फिर आवाज़ ।।१६।।
देर लकड़ी से क्या लड़ना ।
‘धार’ और कर ना ।।१७।।
देर न गुस्से कैद ।
सहजो-निराकुल ‘मुस्तैद’ ।।१८।।
काम,
रहने से तत्पर ।
नाम न ‘कि ‘तट’ पर ।।१९।।
जो लेते यहाँ मिला ।
‘सुर’ उनका भव अगला ।।२०।।
विराम पूर्ण भले ना ।
दें, पै पंक्ति जिन्दगी ‘कौमा’ ।।२१।।
कुन्दा-वदात चल चामर-
चारु-शोभं,
वि(भ्)-भ्राजते तव वपुः
कल-धौत-कान्तम् ।
उ(द्)-द्यच्-छशाङ्क शुचि-निर्झर
वारि-धार-
मुच्चैस्-तटं सुर-गिरे-रिव
शा-तकौम्-भम् ॥३०॥
(३१)
जमा…ना धूप दोपहरी ।
अनूप ‘छत्र’ छा-हरी ।।१।।
‘यम’ जन्म से ही भागता ।
पीछे दाब लागता ।।२।।
‘तलब’ छोड़ी ।
पीछे दुनिया आई ‘कि भागी दौड़ी ।।३।।
‘भाई’ बस ये न कहो ।
बीच भोग छप्पन रहो ।।४।।
जमा…ना कहा ‘शादी’ मनाई ।
कहाँ सादी मनाई ।।५।।
न दिये जाते ‘अंक’ लिये जाते ।
श्री गुरु बताते ।।६।।
गया निपट,
वट ‘त…न’ न…त जाँ समेत ।
बेंत ।।७।।
‘मुट्ठी’ न खोल आना ।
हाट अन्धर बाँट जमा…ना ।।८।।
दे माई ‘स्थित’ प्रज्ञों में बैठा ।
कान पकड़ उठा ।।९।।
‘गीत’ तेरे यूँ ही गाता रहूँ ।
जब तक में जिऊॅं ।।१०।।
सिवाय ऋषि मुझ सी ।
मैं ‘भा…न’ न….भा पास किसी ।।११।।
मोटी छोटी सी सीप ।
‘जनमें’ ज्योति माटी ‘जि दीप ।।१२।।
गम्म खाना,
हो कहाँ ‘फल’ का आना ।
बोते ही दाना ।।१३।।
हर-जन के मुख जिकर मेरा ।
‘शुकर’ तेरा ।।१४।।
कहता ‘जा…ल’ ल…जा ।
हर मजा,
दे के जाता सजा ।।१५।।
‘वृद्धों’ के बाल,
हुये धूप सफेद ।
झूठ सुफेद ।।१६।।
कोऽहं ।
पश्चिम, पूर्व,
आया दक्षिण, उत्तर ‘सोऽहं’ ।।१७।।
‘खाली’ बैठे,
‘कि आगा पीछा दिमाग छुआ ।
बचुआ ।।१८।।
ये वो पा गये रत्न ।
करते हम भी आ ‘प्रयत्न’ ।।१९।।
हूॅं बाहर,
‘मैं’ सूर,
पाने मैं हर ।
जाओ भी’तर ।।२०।।
महसूस तो कर,
मन !
‘ईश्वर’ जगह-हर ।।२१।।
छ(त्)-त्र(त्)-त्रयं तव विभाति
शशाङ्क- कान्त-
मुच्चैः स्थितं स्थगित-
भानु-कर-प्रतापम् ।
मुक्ता फल(प्)-प्रकर-जाल-
विवृद्ध-शोभं,
प्र(ख्)-ख्या-पयत्-त्रि-जगतः
प-र-मे(श्)-श्वर(त्)-त्वम् ॥३१॥
(३२)
कहता ‘ग…म’ म…ग में केवल मैं ।
न मंजिल में ।।१।।
न ‘भीड़’ ।
भक्त बच्चे,
मॉं श्री भगवन् का घर नीड़ ।।२।।
आ भगवान् ने ‘तारा’ ।
न पुकारना पड़ा दोबारा ।।३।।
गो-‘रव’ खूब ।
शान ए हिन्दुस्तान,
गौरव-डूब ।।४।।
देखो, न देना खो,
ले उवासी ।
रात ‘पूरण मा सी’ ।।५।।
‘दिग्विजय’ दे खो-आपा ।
दृग्-विजय देखो सरापा ।।६।।
आया मैं कब नहीं ।
‘भाग-भाग’ तू भी तो आ कभी ।।७।।
‘श्लोक’ पढ़ने वालों के हाथ है ही ।
पर लोक भी ।।८।।
मित्र,
चरित्र, ‘शुभ’ दे रचा-पचा ।
अशुभ बचा ।।९।।
‘संगम’ सुधी ।
संग वालों के संग, मा यानि नहीं ।।१०।।
‘विभूति’ एक भभूति ।
चरण दृग् तिनके छूती ।।११।।
आया समझ ।
‘पर-दक्षिणा’ दे
ना आया समझ ।।१२।।
नामे दा…ज…स
‘स…ज…दा’ ।
कब-कब सदा सर्वदा ।।१३।।
आस पास ही ‘धरम’ ।
आ नन्हें ही बड़ा कदम ।।१४।।
जयति ‘जय’ ।
तार दे माँ-सार-दे, बस विनय ।।१५।।
‘घोर’ अंधेरा ।
सिवा भक्ति और क्या भोर सबेरा ।।१६।।
वीर ‘सन्देशा’ ।
जिओ जीने दो, और भी हमीं जैसा ।।१७।।
‘खेल’-खेल में ।
माँ क्या कुछ नहीं दे सिखला हमें ।।१८।।
बड़े बनती कोशिश बन जाते ।
‘छोटे’ बताते ।।१९।।
‘गिर’ हो ‘जाते’ खड़े ।
पहाड़ा बड़े दूसरा पढ़े ।।२०।।
‘समझें’ सब ।
“सहजो निराकुल”
कहते कब ।।२१।।
गम्भीर तार रव-पूरित-
दिग्-विभागस्-
त्रै-लो(क्)-क्य-लोक-शुभ सङ्गम-
भूति-दक्षः ।
सद्धर्म-राज जय घो-षण
घो-षकः सन्,
खे दुन्-दुभिर्-ध्व-नति ते
यशसः प्रवादी ॥३२॥
(३३)
समझे थोड़ी सी देर से बच्चा है ।
‘मन’ अच्छा है ।।१।।
दीं नसीहतें ‘दादी’ ।
काम तलक मुकाम आतीं ।।२।।
‘सुन्दर’ वह ।
व्यथा सुन दरबी-भूत हृदय ।।३।।
अपना, हित और खर्चा जीवन ।
तिन्हें ‘नमन’ ।।४।।
‘न’ लें सुपारी ।
‘सहजो निराकुल’
न दें सुपारी ।।५।।
किया उसने ।
जा…दू
दू….जा पहाड़ा पड़ा जिसने ।।६।।
आ ठीक कर दें ‘संत’ आन ।
कैसी भी हो संतान ।।७।।
‘कालिमा’ मुख बच्चे क्या छाई ।
आंख मॉं भर आई ।।८।।
‘भर’ गागर गागर ।
नदिया जा मिली सागर ।।९।।
निर्मल दृष्टि ।
करा ही लेती दया-भगवन् ‘वृष्टि’ ।।१०।।
‘गन्ध-उदक’ पा गया ।
मत-सोना
‘रे ठगा गया ।।११।।
मैं जल ‘बिन्दु’ ।
श्री गुरु नदी, मुझे चालो ले सिन्धु ।।१२।।
‘शुभ’ हो लाभ हो ।
दुआ मेरी तेरी अमिताभ हो ।।१३।।
कहता ‘मन दर’ भगवान् का ।
क्या झांक के देखा ।।१४।।
‘माँ’ शगुन,
आ छुये चरण ।
गया ‘कि काम बन ।।१५।।
इस आश से ।
भिजाऊँ ‘पाती’ पाऊँ लौट डाक से ।।१६।।
रक्खे रहना यूं ही हमें ।
अपनी ‘दिव्य’ छाव में ।।१७।।
पड़ाव ‘दिव’ का सुख ।
यदि ठाव शिव का सुख ।।१८।।
तारे ‘पतित’ लख लख ।
मुझ पे भी दो दृग् रख ।।१९।।
‘तेतीस’ तीन का फेर ।
है कराये मुक्ति में देर ।।२०।।
‘वच’ निकलें ।
जब चाहें ‘कि हम बच निकलें ।।२१।।
मन्दार सुन्दर नमरु
सु-पारि-जात-
सन्ता-नकादि कुसु-मोत्कर
वृष्टि-रुद्घा ।
गन्धोद-बिन्दु-शुभ मन्द
मरुत्-प्रपाता,
दिव्या दिवः पतति ते
व-चसां ततिर्-वा ॥३३॥
(३४)
लकीर ‘सुख’ ।
आ खिचें हाथ सभी,
लम्बी सी कुछ ।।१।।
नापा ‘प्रतिभा’ पथ ।
विश्व गुरु ‘कि पुनः भारत ।।२।।
आओ मिल के बचायें ।
‘विद्या…लय’ न होने पाये ।।३।।
आ करें ‘भूरि’ भूरि प्रशंसा ।
बना बांसुरी वंशा ।।४।।
ऐसी वैसी न,
मुझे गया पुकारा ही ।
आदि भा ‘भी’ ।।५।।
‘रास्ते’ तीन छै शून ।
जा होते बिन्दु पे सभी पून ।।६।।
कहती ‘लो…च’
च…लो मुझे ले-कर लम्बा सफर ।।७।।
एक काफी, दो ‘दिये’ नयन ।
दिल-दार भगवन् ।।८।।
‘रे पड़ा नाम ही ‘दुति’ ।
पढ़ने से, कक्षा द्वितीय ।।९।।
नाम ही रख दिया ‘मा-छी’ ।
फिर भी गंदगी झांकी ।।१०।।
कहे आ ‘पन…ती’ निकले ।
बा…बाजी छुयें विरले ।।११।।
‘उद्यम’ ।
दिशा विपरीत बढ़ाये यम कदम ।।१२।।
दिवाकर न जहाँ ।
‘पहुंच’ सन्त सज्जन वहाँ ।।१३।।
‘निरन्तर’ मैं ।
रखूँ बसा के तुम्हें निज अन्तर् में ।।१४।।
भूल भूल दो भी माफी ।
‘भू-री’ सिर्फ नाम न काफी ।।१५।।
चित् कितनों के चुराये अभी ।
‘संख्या’ और आगे भी ।।१६।।
कुछ हट के ही ‘दीप्ति’ होती ।
सूक्ति में जब मोती ।।१७।।
और चलते फिरते मुर्दे ।
सिर्फ बा बाजी ‘जीते’ ।।१८।।
पीछे से ‘नि…श’
श…नि ।
बच्चे ‘के शीघ्र लें सुमरनी ।।१९।।
‘सोम’ मंगल, बुध, गुरु, शुकर ।
शनि लो छुट्टी ।।२०।।
वन चन्दन वन जैसे,
एक सौ…मैं मन ।
‘सौम्य’ ।।२१।।
शुम्भत्-प्रभा-वलय-भूरि-
विभा विभोस्-ते,
लोक(त्)-त्रये(द्)-द्युति-मतां
द्युति-मा(क्)-क्षिपन्ती ।
प्रोद्यद्-दिवाकर-निरन्तर
भूरि-संख्या,
दीप्-त्या जय(त्)-त्यपि निशा-मपि
सोम-सौम्याम् ॥३४॥
(३५)
पैरों में मिला ‘स्वर्ग’ माँ ।
सारा छान मारा आसमाँ ।।१।।
सिर्फ ‘पवर्ग’
प, फ, ब, भ,
म यानि नहीं,
मोक्ष भी ।।२।।
‘गम’ मेहमाँ ।
आती पूर्णिमा,
रहे न सदा अमा ।।३।।
मंजिल पास ना ।
लग ‘मार्ग’ चालो,
छोड़ो आश ना ।।४।।
बचो ‘री ।
कहे साफ साफ,
कराया, या न ‘बीमा…री’ ।।५।।
रखना लक्ष्य पे ‘निष्ठा’ ।
श्रद्धा आस्था दे बता रास्ता ।।६।।
अग्नि कपड़े रख छिपाई ।
कब छुपी ‘सच्चाई’ ।।७।।
कहा… विश्वास धर,
रम जाने को ।
‘धरम’ अहो ।।८।।
दादी मॉं नानी सुनी ‘कथा’ ।
मेंटती जा काल व्यथा ।।९।।
खोजे पलट ‘ने…की’
की…ने ?
‘कि जानी कला जीने की ।।१०।।
बटुक भले, ‘पटु’ खिवैय्या ।
लगा पार दे नैय्या ।।११।।
‘इस्त्री’ कीमत देती बढ़ा ।
पुराना भले कपड़ा ।।१२।।
‘धुन’ लागी श्री गुरु नाम की ।
सांझ सांझ काम की ।।१३।।
‘सरस्वती माँ’ ।
दो रफ्तार, भागूॅं मैं सबसे धीमा ।।१४।।
नयन ‘तीते’ ।
आते न दीखे, दर भगवन रीते ।।१५।।
‘अर्थ’ बिना ।
न निकाले,
निकलता भले, जमा ना ।।१६।।
विराजे किसी एक शब्द में रब ।
तो वो ‘सरब’ ।।१७।।
मने दीवाली ।
चाहिये ‘कि बोलना,
‘भाषा’ माँ वाली ।।१८।।
सुना ‘स्वभाव’ ।
छुआ, अपना हुआ गुना सौ भाव ।।१९।।
‘परिणाम’,
‘रे परिणाम पर ।
हैं करें निर्भर ।।२०।।
‘प्रयोग’ शाला घर ।
पढ़, रख न देना शास्तर ।।२१।।
स्वर्गा-पवर्ग-गम-मार्ग-
विमार्ग-णेष्ट:,
सद्धर्म-तत्त्व-क-थनैक-पटुस्-
त्रिलोक्याः ।
दिव्य(ध्)-ध्वनिर्-भवति ते
वि-शदार्थ-सर्व-
भाषा(स्)-स्वभाव-परिणाम-
गुणैः प्र-यो(ज्)-ज्यः ॥३५॥
(३६)
‘ऊनी’ स्वेटर रिश्ते ।
उधड़े,
जाते ‘कि उधड़ते ।।१।।
घटी घटाई ।
‘निद्रा’ औ’ क्षुधा
साधो बढ़ी, बढ़ाई ।।२।।
काँदा जंग न खिला पा रहा ।
कह जो ‘हे ! म’ रहा ।।३।।
‘नव’ वर्ष,न अकेले ।
आये नव हर्ष धकेले ।।४।।
बचना… जाना ।
पन-कज ‘पंकज’ जा पूछ आना ।।५।।
नेत्र तीसरे, होते कान…भी ।
नहीं जो खोते ‘कान्ति’ ।।६।।
पर्युषण ।
‘आ-मना’
रोज हा ! बोझ पर-दूषण ।।७।।
‘खतरे’ ।
हम,
भिजाये, खट्टे मीठे यम खत ‘रे ।।८।।
जा सीख आ ।
आ गया ‘ईख’ को,
मुख करना मीठा ।।९।।
और के लिये ‘दिया-सिखा’ ।
कैसे ?
जाँ ।
करना कुर्बां ।।१०।।
‘भी’…ति ? किससे ।
तो संसार, शरीर, और भोग से ।।११।।
‘राम’, दो, तीन, चार,
पाँच, छे, सात, आठ, नौ, दश ।।१२।।
‘पैर’ बुजुर्ग छुये,
‘कि हुये काम ।
सुदूर राम ।।१३।।
कल ना…’दानी’ ।
पल्ले पड़ी इससे आज नादानी ।।१४।।
‘विनीत’ ‘विन’ यानि ‘कि जीत ।
होती उसकी मीत ।।१५।।
जय ‘जिनेन्द्र’ देव की ।
पाप क्षय स्वयमेव ही ।।१६।।
‘धत्’-तेरे की न कहना ।
अड़े शिक्षा बहना ।।१७।।
‘पद’ का पाना ।
हाथी खरीदने सा,
भारी खिलाना ।।१८।।
बनता ‘मा…नी’
नी…म सा कड़वा ।
जो बोलता कड़ा ।।१९।।
सुई सीवन आये ‘काम’ ।
विधाएँ साधो तमाम ।।२०।।
जादुई छड़ी ।
करीब ‘परी’ और दूजी शबरी ।।२१।।
उन्निद्र-हेम-नव-पङ्कज-
पुञ्ज-कान्ती,
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-
शिखा-भिरामौ ।
पादौ पदानि तव यत्र
जिनेन्द्र ! धत्तः,
पद्मानि तत्र विबुधाः
परि-कल्-पयन्ति ॥३६॥
(३७)
छोड़ माँ, किसे न इंतज़ार ।
आये कि ‘इतवार’ ।।१।।
‘थमती’ नहीं ।
चाल भले हो जाये कमती नदी ।।२।।
पकड़ना जा पानी चन्द्रमा ।
‘थाह’ एहसान माँ ।।३।।
‘विभूति’ साथ न जाने वाली ।
छोड़ो भी मायाचारी ।।४।।
‘भूचाल’ आते,
जाते थम ।
न कम, मुट्ठी में दम ।।५।।
देती आनन्द दूजा ।
की स्वप्न में भी ‘जिनेन्द्र’ पूजा ।।६।।
जियादा मन घर में ।
‘धर्म’ कम ही मन्दिर में ।।७।।
‘उप’ ऊपर ले चाले कार ।
और क्या उपकार ।।८।।
‘विधाएं’ रख खींसे,
बता ना ।
टाँग खींचे जमा…ना ।।९।।
जितनी नरमाई ।
उतनी दे खो पीर ‘पराई’ ।।१०।।
‘रस’ बाहर रहा बता ।
भीतर रस लापता ।।११।।
‘यदि’ अपनों से जीत चाहिये ।
तो हार जाईये ।।१२।।
आते ही आँच
रिश्ते जाते ‘दिरक’ माफिक कांच ।।१३।।
‘परभा’ रत ।
कल,
भारत आज पर-भा-रत ।।१४।।
क्यों खोते ।
‘दिन’ किसी के एक से न होते ।
क्यों रोते ।।१५।।
महात्मा को ।
ले चलना आया ‘धका’
बेशर्त मॉं को ।।१६।।
छूट ‘कारा’ दो चार पल को ।
हल तो छुटकारा ।।१७।।
कृषि प्रधान ।
‘कल’
भारत आज कुर्सी प्रधान ।।१८।।
‘जि परभाव ‘ग्रहण’ ।
यदि पर भाव ग्रहण ।।१९।।
दौड़ लगा-के ।
हाथ ‘विकास’
ना ‘कि होड़ लगा के ।।२०।।
था स्वाभिमानी ।
भारत,
हा ! इन्डिया बेचता पानी ।।२१।।
चिड़िया ‘सोन’ ।
भारत,
हा ! इन्डिया
ले रहा लोन ।।२२।।
इत्थं यथा तव विभूति-
रभूज्-जिनेन्द्र !
धर्मो-पदेशन विधौ
न तथा परस्य ।
यादृक्-प्रभा दिन-कृतः
प्र-हतान्-धकारा,
तादृक्-कुतो(ग्)-ग्रह-गण(स्)-स्य
वि-कासि-नोऽपि ॥३७॥
(३८)
‘चोरी’ करना,
करो चित्-की ।
करें ही अचौर्य व्रती ।।१।।
‘यौवन’ कंचों पर रक्खे कंचों सा ।
कैसा भरोसा ।।२।।
ले सर-‘हद’ पांव तक ।
इसके आगे क्या हक ।।३।।
सांप का ‘बिल’ ।
न डालो हाथ,
भले आप काबिल ।।४।।
फिर फिर न मानौ जिन्दगानी ।
न ‘बिलोना’ पानी ।।५।।
उड़ाते भी, न ‘कपोत’ उड़ा ।
तोता दूसरी पढ़ा ।।६।।
कभी रंग, तो कभी तूली ना ।
कोई भी मामूली ना ।।७।।
‘मतवाला’ वो ।
मनमाने अपने मत…वाला जो ।।८।।
पा-लो ‘भ-रम’ न ।
चश्मा जादूगर कोई कम न ।।९।।
पाल के भ्रम मर जाता ।
सो नाम ‘भ्रमर’ पाता ।।१०।।
‘वृद्धों’ की घड़ी ।
बनूँ चश्मा वृद्धों का,
वृद्धों की छड़ी ।।११।।
पीछे जियादा आगे कम ।
ले ‘कोप’ तोप कदम ।।१२।।
‘जि बताशा ‘वत् आशा’ ।
रक्खी जुबाँ ‘कि खत्म तमाशा ।।१३।।
दो गज ‘जमीं’ काफी ।
बैठ आ शान्ति से,
ले, दे माफी ।।१४।।
‘मुद्दत’ हुई ।
परिणति साधो !
न फुर्सत हुई ।।१५।।
गेम किस्सा न,
साँचा प्रेम,
‘माहन्तों’ को किस से न ।।१६।।
ऐसे वैसे न,
‘मॉं…पा’ ।
वे हैं जिन्हें न जा सके मापा ।।१७।।
बलिहारी दु: साहस पतन ।
‘पा-तन’ मानस ।।१८।।
मिस ‘भौ’ पूर्ति न जायें निकल ।
भौ इस भी पल ।।१९।।
लोग सुनेंगे क्या ‘दास तान’ ।
सुनते न खास तान ।।२०।।
नाम वाले के साथ ।
उड़ता ‘नाम’ भी हाथ हाथ ।।२१।।
(शि)-च्यो-तन्-मदा-विल-विलोल-
कपोल-मूल,
मत्त(भ्)-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-
वि-वृद्ध-कोपम् ।
ऐरा-वताभ-मिभ मुद्धत
मा-पतन्तं,
दृष्ट्वा भयं भवति नो
भव-दा(श्)-श्रि-तानाम् ॥३८॥
सुमन,
बीते जिनके पल ।
जल ‘भिन्न’ कमल ।।१।।
अग्नि परीक्षा ।
‘कुम्भ’ दे गया,
ओरों के लिये शिक्षा ।।२।।
बर्फ ‘गलती’ ।
रक्खी ‘कि जुबाँ पर सिर्फ गलती ।।३।।
नाहक तन ‘उजला’ ।
जो बातों से,
मन उ…जला ।।४।।
जीना कर दे दूभर ।
‘सोना’ सोना तो दूर धर ।।५।।
आगे ‘एकता’ ।
वक्त बुरा घुटने आके टेकता ।।६।।
सीप कैद में, और ‘मुक्ता’ नाम ।
हा ! जमा…ना राम ।।७।।
पके मिसरी ‘फल’ ।
कच्चे पकड़ी गला संभल ।।८।।
‘पकड़’ ढ़ीली सी बिषय ।
‘कि हुई हाथ विजय ।।९।।
‘भूषित भूमि’ भारत ।
दूषित न…मन स्वारथ ।।१०।।
सोने सुहाग ‘भाग’ हमारे ।
द्वार आप पधारे ।।११।।
चश्मा उतरे ।
ज्ञान ‘वृद्धता’ तब जा अवतरे ।।१२।।
निकाल वंश ली सरगम ।
ला भी आगे ‘कदम’ ।।१३।।
कहता सिर्फ मैं ना ।
कहती त्राहि माम्
क्या ‘हरि-ण’ ।।१४।।
‘धीरज’ राखी ।
क्या लगा पेड़,
आज ही फल चाखी ? ।।१५।।
क्या कीजो ? ।
कोई पहनाये जो,
कहे तो ‘टो…पी’
पी…टो ।।१६।।
लगे हाथ जो नाकामयाबी ।
‘तो…लो’ बदल चाबी ।।१७।।
बढ़ाते रहे शोभा चमन ।
‘क्रम’ लांघ सु-मन ।।१८।।
भक्त ऽमा ।
चला जाये जब कभी
‘कि पूछने ‘का…मा’ ।।१९।।
‘योगा’ जो गा लें ।
अपना लें,
चाहते हो ‘कि वो गा लें ।।२०।।
‘चल’ बटोही चल ।
पा गये साथी राही मंजिल ।।२१।।
भिन्-नेभ-कुम्भ-गल-दुज्-ज्वल-
शोणितात,
मुक्ता फल(प्)-प्रकर
भूषित-भूमि-भागः ।
बद्ध(क्)-क्रमः क्रम-गतं
हरि-णा-धिपोऽपि,
ना(क्)-क्रामति(क्)-क्रम-युगाचल-
सं(श्)-श्रितं ते ॥ ३९॥
(४०)
मिलने अच्छे ‘कल’ से ।
करते आ मैत्री जल से ।।१।।
करने लाल जुबान ।
‘पा-न’ ऽमां हो चला कुर्बान ।।२।।
आ जाता ‘काल’ ।
साधो हाल-हाल,
न आ पाता काल ।।३।।
मनो विनोद ।
अच्छा,
मनाने बच्चा ‘कि माँ ले गोद ।।४।।
अगुलियों पे ‘भा’ गिनी ।
उनमें से एक भगिनी ।।५।।
पखारूँ ‘कल’ भी यूँ पांव ।
बना रखना छाँव ।।६।।
पलट बोले ‘द…वा’ ।
बा…द लगती पहले दुवा ।।७।।
‘अल सुबह’ दे खो बाहर की ।
देखो आ भी’तर की ।।८।।
‘कालिख’ तेरे चेहरे भाई ।
भाई ना, मैं आईना ।।९।।
कहता ‘ब…ल’ ।
ल…व मैं तो,
सबल कोई, संबल ।।१०।।
‘फूल’ शूल दो भाई ।
रुलाई भुला ।
दे एक रुला ।।११।।
‘घट’ घट भी,
खो ओ ! ।
भगवन् खोजो मत-मठ-ही ।।१२।।
जब भी’तर से आता ।
ब…स
स…ब भाग ‘समाता’ ।।१३।।
ही दे-खो ।
‘माप’ अपनों की,
पैमाने तब ‘भी’ देखो ।।१४।।
पलट व…न,
न…व जीवन बाँटे- ।
‘मा-नव’ काटे ।।१५।।
झूठे मूटे भी रूठे न माँ ।
‘मा-न’ भी जाती, रूठे ‘कि माँ ।।१६।।
‘कीर्तन’ कीर यानि तोते सा,
स्वार्थ बिना ।
अपना ।।१७।।
‘जल…न’ यानि ना ।
पानी ना ।
शरम ना, धरम ना ।।१८।।
‘रे कुछ और न,
‘स-मैं’अच्छा-बुरा ।
मैं अच्छा बुरा ।।१९।।
काफी इतना आचार ।
बो…ले बोले सा ‘यत्नाचार’ ।।२०।।
बन ‘जि बात जाये ।
‘संतोष’ धन ‘कि हाथ आये ।।२१।।
कल्पान्त काल प-वनोद्-धत –
वह्-(हि)नि-कल्पम्,
दावानलं ज्वलित-मुज्-ज्वल
मुत्स्-फुलिङ्-गम् ।
विश्वं जिघत्-सुमिव सम्-मुख
मा-पतन्तं,
त्वन्-नाम-कीर्तन-जलं
शम-य(त्)-त्य-शेषम् ॥४०॥
(४१)
दिया पानी भी वक्त पे ।
पड़े भारी दिये ‘रक्त’ पे ।।१।।
शिव शिविका ‘क्षण’ भी,
आयें हाथ ।
बनायें बात ।।२।।
खुद को छोड़ देखे जहान ।
‘मद’ आँख समान ।।३।।
मिश्री श्यामली ‘कोकिला’ ।
मुँहताज रूप न कला ।।४।।
निष्कण्ट हुआ ।
पन्थ जुबां,
‘कि आ के माँ ‘कण्ठ’ छुआ ।।५।।
‘नीलाम’ किसी की न हो अस्मत ।
‘कि लिखो किस्मत ।।६।।
आत्म छलावा ।
छोर दूसरे ‘क्रोध’
हा ! पछतावा ।।७।।
होत हा ‘कल धोत’ ।
पै कल-दूती न कल धौत ।।८।।
‘फनाफन’ से ।
दूर व्रती सुदूर तनातन से ।।९।।
‘माँ’ कखहरा दूजा पढ़ी ।
दिक्कतें, ले झेल बड़ी ।।१०।।
‘आ’ हिचकी ।
दे कह बात,
भगवन् भक्त बीच की ।।११।।
भी’तर झाँका ।
जहाँ बोला क्या हुक्म है,
मेरे ‘आका’ ।।१२।।
‘क…पड़े’ ।
तभी तो,
दूसरों की लाज बचाने खड़े ।।१३।।
‘कलयुग’ में ।
बचने,
नौ रचने, चल जुग में ।।१४।।
चढ़े ना-गिन न अड़चन ।
‘निरा’ कुल चन्दन ।।१५।।
‘शंका’
तीसरी आँख ‘जि खुली मिली ।
‘कि घुली मिली ।।१६।।
‘तू ती’ ।
‘कि बो…ले करम-धरम-भू
आ कुछ तू भी ।।१७।।
जो-‘वन’ राह निहारी ।
भव वन दाह निवारी ।।१८।।
ऐ-साँ ‘कि काम कर ।
झुकें सुनते ही ‘नाम’ सर ।।१९।।
पार सफीना ।
इन्द्रिय ‘द…म…न’
न…म…द जो कीना ।।२०।।
‘हृदय’ भले मुट्टी ।
समाने वाला, ले समा सृष्टि ।।२१।।
रक्ते(क्)-क्षणं समद कोकिल
कण्ठ-नीलं,
क्रोधोद्-धतं फणिन-मुत्-फण-
मा-पतन्तम् ।
आ(क्)-क्रामति(क्)-क्रम-युगेण
निरस्त-शङ्कस्-
त्वन्-नाम-नाग-दमनी
हृदि य(स्)-स्य पुंसः ॥४१॥
(४२)
‘गलती’ गले ।
ती-तीन अ-सि-सा से,
क्या आ के मिले ।।१।।
उ…हठी दृष्टि ।
‘तुरंग’ ‘कि तरंग सी नापे सृष्टि ।।२।।
कितना ।
‘ग…ज’ ज…ग बताये,
फैला बाहें जितना ।।३।।
कथनी ।
‘गर-हित’ चाहो तो,
साधो ! गर्हा अपनी ।।४।।
रखना ध्यान, ज्ञान भीतरी ।
एक और ‘भी…तरी’ ।।५।।
मानौ अब तो मानो,
कहने आई आप ‘ना…तन’ ।।६।।
जग में वर…तन एक ।
भगवन् ने भेजा ‘माँजी’ ।।७।।
माला मुर्झाई ।
पहले छः माही,
दे…’बता’ अ…मर ।।८।।
हार्दिक पत्ती पत्ती पीपल ।
बैठे छाँव ‘आ…चल’ ।।९।।
‘भूत’ भूत में,
विष भविष्य में ।
माँ वर्तमान में ।।१०।।
करो कितनी भी साज सँवार,
पे ‘पतती’ ।
पत्ती ।।११।।
कहे नाम ।
न+’आम’,
यानि खास मैं आपके लिये ।।१२।।
आगे ‘उद्यम’ ।
और तो छोड़ो,
फीके इरादे यम ।।१३।।
आ विराजो,
माँ वीणा-पाणि कण्ठ में ।
‘कर’-बद्ध मैं ।।१४।।
भाऊ सामने की वायु-सी ।
धकेले पीछे ‘मायूसी’ ।।१५।।
कहे ‘शिखा’ ये चोटी जो ।
पढ़ा, लिखा, सीखा ओ ‘री वो ।।१६।।
निरत ‘वृद्ध’ सेव ।
सहजो निराकुल सदैव ।।१७।।
नेक नीयत ‘कीरत’ हाथ ।
साधो तीरथ बाद ।।१८।।
कहता ‘ना…ता’ ।
ता…ना मैं तुम वाना वरना ना…था ।।१९।।
अनपढ़ ने भी है पढ़ा ।
‘आँसुओं’ का कखहरा ।।२०।।
आ ‘भिदा’ पुष्प बाण ।
ले छीन सब ‘री छोड़ प्राण ।।२१।।
वल्गत्-तुरङ्ग-गज गर्जित-
भीम-नाद-
माजौ बलं बलवता मपि
भू-पतीनाम् ।
उद्यद्-दिवाकर मयूख
शिखा-पविद्धं,
त्वत्-कीर्तनात्-तम इवाशु
भिदा-मुपैति ॥४२॥
(४३)
‘तारीफ’ निजी ।
करने सुनने का न…मन श्री जी ।।१।।
‘भिन’-भिन छू पाती न मेरा मन ।
थेक्स भगवन् ।।२।।
‘गज’-भर की जुबान ।
गज भर का और इंसान ।।३।।
देखो ना सॉंप ।
उतनी ही ‘सीढ़ी’ भी देखो ना आप ।।४।।
खातिर और, जिन्दगानी ।
‘वारि’ सो नामौर पानी ।।५।।
ग्रीष्म दाह ज्यों ।
मिटाती ‘साथी’
ठण्डी ह…वा, वा…ह त्यों ।।६।।
कहते खुद ही ‘शहर’ ।
सहर,
गांव इतर ।।७।।
तलक अब ।
‘लगा-तार’ का और क्या मतलब ।।८।।
कतरनी ने कब छोड़ी कसर ।
सुई इतर ।।९।।
घाव ‘नासूर’ ।
कर सके पुराव,
‘फिर ना’ शूर ।।१०।।
पल देशना बाजे शांम ।
‘तू-रही’ सार्थक नाम ।।११।।
लगाये कान ‘भीत’ जो ।
और कौन भयभीत वो ।।१२।।
‘जय’-कारा माँ जूं ।
सहारा समय भय मासूम ।।१३।।
‘विजित’-मना ।
सहजो-निराकुल बुत करुणा ।।१४।।
एक लक्ष्य,
दो ‘पक्ष’ चाहिये ।
तीजे अक्ष चाहिये ।।१५।।
कहता ‘आश…मान’ छूने ।
बहुत ज़रूरी मुझे ।।१६।।
‘कूबत’ राखी ।
उड़ने पाखी !
सिर्फ न पंख काफी ।।१७।।
सर्वे भवन्तु सुखिन: जप ।
गुरु मंत्र ‘पादप’ ।।१८।।
अपना…
मुझे ‘बना’ दीया ।
मैं माटी-माधो शुक्रिया ।।१९।।
जाने बच्चा भी ‘ऋण’ यानि घटाना ।
जोड़े जमा…ना ।।२०।।
‘लाभ’ जीतने में ।
तो कभी हारने में,
सो जानवी ।।२१।।
कुन्ता(ग्)-ग्र भिन्न-गज शोणित-
वारि-वाह,
वेगा-वतार त-रणा-तुर
योध भीमे ।
युद्धे जयं विजित दुर्जय-
जेय पक्षास्-
त्वत्-पाद-पङ्कज-वना(श्)-
श्रयिणो लभन्ते ॥४३॥
(४४)
‘अमन’ चैन ।
शान-ए-हिन्दुस्तान श्रमण जैन ।।१।।
‘भोग’ रोग ‘कि जनें ।
दे-खो विषय विष ‘कि बनें ।।२।।
धकाने वाली नजदीक निज धी ।
और क्या ‘निधि’ ? ।।३।।
‘भ’ भक्तामर ।
‘ई’ समु-पैति लक्ष्मीः,
नमो-नम: ‘भी’ ।।४।।
चक्कर नौ-नौ का ।
बचना जरा दे जमाना धो..खा ।।५।।
‘जि नाक चश्मा ।
‘बच्ची’ प्रतिमा स्थली, राख चकमा ।।६।।
न बांधी पाटी अंखियन ।
भगवन् ‘पाठी’ वन्दन ।।७।।
मैं-दान बिना ।
होता ‘पीठ’ दिखाना मैदान पुन: ।।८।।
एक छोड़े ‘दो’-लत ।
छोड़ सजोर, ले राख-पत ।।९।।
कुछ कहते से बन्जारे ।
बनता तो ‘वन’ जा ‘रे ।।१०।।
‘रे लिक्खा भाग, भाग-बेटे आसमाँ ।
‘बागवान’ माँ ।।११।।
चेहरे का हो हवा ‘रंग’ ।
लेते ‘कि आ…जमा रंग ।।१२।।
कंकर,
मन,
‘तरंग’ दे न जिन्हें ।
नमन तिन्हें ।।१३।।
शिखर छूते कदम ।
माटी उसी, जिसके हम ।।१४।।
जहाँ दो स्वस्थ्य रहे ।
अर’जी
जहाँ दो स्व-‘स्थ’ रहे ।।१५।।
‘या…न’
न…या, हो पुराना ।
बदलता चलाने वाला ।।१६।।
धर्म भी-तर-ला ।
ठहरने वाला न ‘पात्र’ बिना ।।१७।।
बेजुबां ‘हाय’ लगती बेजा ।
बच के जर्रा जबां ।।१८।।
क्या नाता है ।
दे-‘बता’
क्यूँ कर मुझे याद आता है ।।१९।।
‘स्मरण’ रहे अविस्मरण ।
बार इस मरण ।।२०।।
वीर विनन्ति ।
लाये, खुशियाँ आये
‘वीर जयन्ति’ ।।२१।।
अम्भो-निधौ(क्)-क्षुभित-भीषण-
नक्र-चक्र-
पाठीन पीठ-भय-दोल्-वण
वाड-वाग्नौ ।
रङ्गत्-तरङ्ग-शिखरस्-थित-
यान पा(त्)-त्रास्-
त्रासं विहाय भ-वतः
स्मरणाद् व्रजन्ति ॥४४॥
(४५)
फरिश्ता ऊन अति रश्ता ।
‘जुड़ता’ उन्नति रिश्ता ।।१।।
‘कह ना’ ।
भूल…
भूल अब आगे से मत करना ।।२।।
बात ‘भी’ भीजी ।
हाथ हाथ जा दिल समाती सीधी ।।३।।
‘जलो’ तो दिये से जलो ।
कहे, आते ही तम चलो ।।४।।
सपना ऋषि ।।
स्व…स्थ,
‘भारत’ स्वस्थ्य अपना कृषि ।।५।।
देखता रहे जमाना ।
‘भाग’ आता खूब बनाना ।।६।।
‘सोचा’ ही कब होता ।
वगैर सोचा भी कब होता ।।७।।
बोले वगैर रह ही ना सके, ‘आ-मद’ ।
आमद ।।८।।
‘समर्पण’ कि…मिया ।
तेल जलता, कहते दीया ।।९।।
कहे ‘प…ग’
ग…प न लड़ाई ।
दूर मंजिल भाई ।।१०।।
‘ताकत’ चींटी दे बता ।
कई गुणा वजन उठा ।।११।।
हो सामने जि अपना ।
‘जी…त’ त…जी ‘कि काम बना ।।१२।।
खिसको, कह देते दिश् दिश् को ।
‘ता…श’ स…ता इसको ।।१३।।
जन्मे ।
‘कि पूछो ‘मन’ चाहते पाप को,
क्या सच में ।।१४।।
जन्मे ।
‘कि ‘पाप’ का हस्र क्या ?
ये भी दो भिजा मन में ।।१५।।
करम ‘र…ज’
ज…र, जोरी, जमीन ।
कारण तीन ।।१६।।
‘अमृत’ कैसा ? ।
आम रित,
हो ग्राम ब-संत ऐसा ।।१७।।
रह खुश तू पहले ।
जा फिर ‘दिग् दिग्’ खुश्बू फैले ।।१८।।
व्रती देहाती बनते ।
बाद ‘देहा’तीत सुनते ।।१९।।
मरने तक क्या रखना याद ।
तो अप्प-‘मर्याद’ ।।२०।।
लेके भी ‘ध्वजा’ ।
आसमाँ छू आ,
शान्ति कपोत तू जा ।।२१।।
दे लगा ज्ञान का अंबार ।
‘रुपये’ का अखबार ।।२२।।
उद्भूत भी-षण-जलोदर-
भार-भुग्-ना:,
शो(च्)-च्यां दशा-मु-प-गताश्-
च्युत-जीवि-ताशाः ।
त्वत्-पाद-पङ्कज-रजो-मृत-
दिग्ध-देहाः,
मर्-त्या भवन्ति मकर(ध्)-ध्वज-
तुल्य-रूपाः ॥४५॥
(४६)
कहे ‘आपा’ आ पा
झाकें भी’तर ।
क्या ताकें बाहर ।।१।।
शाश्वत सत्य ‘मुर्झाना’ ।
पल भर का मुस्कुराना ।।२।।
बुद्धि पलट ‘ख…ल’ ।
ल…ख-लक्ष पा लेता,
‘रे चल ।।३।।
‘धागे’ दो कच्चे ।
हिन्दुस्तान के,
रिश्ते लें जोड़ पक्के ।।४।।
‘अंगूठा’ नीचे से ऊपर करना ।
और कुछ ना ।।५।।
भला करके भी चाहे कभी ‘वाह…न ।
तो वाहन ।।६।।
‘गढ़’ जाये, न सुना ।
सुन भी-तर ‘कि गढ़ जाये ।।७।।
शाश्वत शिव ठिया ।
थी ठीक कोठी,
पै को’ठियां ? हा ! ।।८।।
कहते वन ।
मेरा बन,
बनने नम्बर ‘वन’ ।।९।।
बनें गुरु ‘ना’ रिलय से ।
बनाने पड़े दिल से ।।१०।।
‘मन’ मुटाव ।
लखन मिटाव ‘कि रहते क्षण ।।११।।
विशुद्धि ‘मन-तर’ ।
तब कहीं जा सिद्धि मन्तर ।।१२।।
अर’जी
छुए आसमाँ निशि-दीसा ।
जैन ‘मनीषा’ ।।१३।।
फिर ज…श…न
न…स…ज कह चला ।
भी’तर भला ।।१४।।
अर’जी
जीतूॅं ‘मरणा’ वीचि ।
भीत मरण बीची ।।१५।।
कहे ‘सदमा’ ।
पास किसी के सका मैं सद,
तो माँ ।।१६।।
कहता ‘स्वयम्’ स्व यानि धन ।
यम यानि मरण ।।१७।।
दो बात,
‘बीती’ रात भुला ।
दिन नो-नो रहा बुला ।।१८।।
पता कहता ‘बन्धन’ ।
जाये ‘कि वन, धन मिलता ।।१९।।
भले करता वो लड़ाई ।
भा…रत कहता ‘भाई’ ।।२०।।
आ पन्ती पड़ा कहना ।
बीतने को पन-त्रि जागो ।।२१।।
आ-पाद कण्ठ-मुरु-शृङ्खल-
वेष्-टिताङ्गा,
गाढं-बृहन्-निगड-कोटि
नि-घृष्ट जङ्घाः ।
त्वन्-नाम-मन्त्र-मनिशं
मनुजाः स्मरन्तः,
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-
भया भवन्ति ॥४६॥
(४७)
पलट ‘म…त’
त…म बनता ।
मा…ता कुछ दूर आ ।।१।।
काम छुपाया ।
नाम भगवन् ‘आ…दि’
दि…या दिखाया ।।२।।
मरुस्थल न जल ।
विषय-भोग ‘मृग’ महल ।।३।।
विषयासक्ति ।
‘जि चुनाव आपका
‘विष’ या शक्ति ।।४।।
ले ‘राज’-भार सिर गम…ना ।
हो तो कैसे नम…ना ।।५।।
हिदायत ।
ए ‘दवा’ खा…ना
न मानी अच्छी आदत ।।६।।
रहने तक सन् (Sun) ।
करे ‘संग्राम’
हा ! ग्राम्य भी सुन ।।७।।
कहे वारि…’धि’
तो सकता में बंध भी ।
सो जानवी ।।८।।
धिक्, ‘मा’ !, हा !, जन ।
आज,
कल भारत थे महाजन ।।९।।
अटूट होगा ।
‘बन्धन’ प्रेम का ।
या तो झूठ होगा ।।१०।।
किया जाने जैसे ही ‘थम्स-अप’ ।
मुश्किलें ‘कि जातीं कँप ।।११।।
जाने कहां पे पढ़े ।
‘आंसू’
दर्द-औ’ बांटने चले ।।१२।।
कहते जैनी नास्तिक ।
तो मानते ही ‘ना-सत्’-इक ।।११३।।
चल ‘विद्या-लै’…
पाद यातरि ।
कहे पा…दया…तरि ।।१४।।
कहता ‘य…म’ ।
बचने,
मुझे सुर में पढ़ो या… माँ ।।१५।।
कहती भीति,
अवतार ।
‘भी’
इति हित हमार ।।१६।।
‘ताव’ आया,
तो बना नाव,
डालना पानी ।
नादानी ।।१७।।
राखो सब्र,
न सिर्फ कहते ।
‘सत्य’मेव जयते ।।१८।।
मेरी रक्षा हो ।
मासूम
‘माँ’-जूं
जो भी हो, वो अच्छा हो ।।१९।।
उगले सोना,
माटी
भारत, दूजी फफोले चना ।।२०।।
खुद बताया ।
करना ‘मा…न’
मॉं…न कुछ सिखाया ।।२१।।
बढ़ना ‘धी’…मै धीमे ।
पास मंजिल आ जाये जीमें ।।२२।।
मत्त(द्)-द्वि-पेन्द्र-मृग-राज
दवा-नलाहि-
संग्राम-वा-रिधि-महोदर
बन्ध-नोत्-थम् ।
त(स्)-स्याशु नाश मु-पयाति
भयं भियेव,
यस्-तावकं स्तव-मिमं
मति-मा-नधीते ॥४७॥
(४८)
‘स्तोक’ भी होना सहज ।
उतारता थोक करज ।।१।।
या…तरी ! गये बिना हज,
शब्द ही कहे ‘सहज’ ।।२।।
बिखरी खुश्बू नेक नीयत ।
खुश ‘कि ‘तबीयत’ ।।३।।
जहाँ दोई,
है इंसा कोई जिन्दा सा ।
तो ‘जिन-दासा’ ।।४।।
जरा सा आटे मिल गुड़ ।
कीमत करे ‘दुगुण’ ।।५।।
शब्द बताये स्वयम् ।
‘भाग’ अपना बनायें हम ।।६।।
तिनका ‘मॉं’ ने तोड़ा ।
वहाँ बलाओं ने रुख-मोड़ा ।।७।।
कहें फिर ‘मा…या’
या…माँ सिमरन ।
म्हारा स्तंभन ।।८।।
‘विधि’ का लेख…
दे मेंट ।
मानस क्या नो…कार भेंट ।।९।।
दे बता फूल, रह काटों के बीच ।
‘बिना’ ताबीज ।।१०।।
हुये नहीं ‘कि एकाग्र-चित्त ।
छुये चित्र विचित्र ।।११।।
कर्त्ता ‘धर्त्ता’ ‘कि बने ।
किया प्रहार पैर अपने ।।१२।।
कुछ न कुछ करो ‘जन्म न्यू’ ।
तब धारो जनेऊ ।।१३।।
जैसे ही ‘ठ…गा’ ।
गाँ…ठ वाला
‘कि हुआ जीवन धागा ।।१४।।
आश रमन तज ।
मन सु-मन
आ…’श्रम’ भज ।।१५।।
कहे ‘त…म’…गा,
गा…म…त ।
दिल्ली दूर अभी बहुत ।।१६।।
कहता ‘मान’ ।
मान ! मा यानि नहीं,
ना यानि नहीं ।।१७।।
बहु आ कहे,
‘सा’…आँसु-सासु
अब बहु-रूप ना ।।१८।।
कैसी ‘शरम’ ।
हाथ दो ये,
करने को ही तो श्रम ।।१९।।
‘मोती’ दें बना ।
स्वाती पानी ।
श्री गुरु सीप अपना ।।२०।।
बैठती ‘लक्ष्मी’ अपने वाहन ।
हो मर्जी तो बन ।।२१।।
स्तो(त्)-त्र(स्)-स्रजं तव जिनेन्द्र
गुणैर्-निबद्धाम्,
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-
विचि(त्)-त्र-पुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-
गता-मज(स्)-स्रं,
तं मान-तुङ्ग-मवशा-
समु-पैति लक्ष्मीः ॥४८॥
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