बीना जी के
शान्ति नाथ भगवान् की
पूजन
कलि भव जल माँझी न्यारे ।
बाबा बीना जी वाले ॥
मन में घना अंधेरा है । 
एक सहारा तेरा है ।।
ज्योति-पुञ्ज ! सत् शिव सुन्दर ! 
आन पधारो मन मन्दर ।।
जैनों के काशी काबा ।
बीना जी वाले बाबा ।।
नीर क्षीर-सागर कलशा । 
अखिंयाँ करें अश्रु वर्षा ।।
अपना लो, न और सपना ।
गैर न मैं तेरा अपना ।।
चन्दन लाया स्वयम् घिसा ।
अखिंयाँ करें अश्रु वर्षा ।।
अपना लो, न और सपना ।
गैर न मैं तेरा अपना ।।
धाँ दाना-दाना खुद-सा ।
अखिंयाँ करें अश्रु वर्षा ।।
अपना लो, न और सपना ।
गैर न मैं तेरा अपना ।।
पुष्प महकते दिशा-दिशा ।
अखिंयाँ करें अश्रु वर्षा ।।
अपना लो, न और सपना ।
गैर न मैं तेरा अपना ।।
घृत निर्मित व्यंजन सरसा ।
अखिंयाँ करें अश्रु वर्षा ।।
अपना लो, न और सपना ।
गैर न मैं तेरा अपना ।।
दीप-तम निशा, अपकर्षा ।
अखिंयाँ करें अश्रु वर्षा ।।
अपना लो, न और सपना ।
गैर न मैं तेरा अपना ।।
फल मीठे कोमल-परशा ।
अखिंयाँ करें अश्रु वर्षा ।।
अपना लो, न और सपना ।
गैर न मैं तेरा अपना ।।
द्रव सब ढ़ेर लगा ‘गिर’ सा ।
अखिंयाँ करें अश्रु वर्षा ।।
अपना लो, न और सपना ।
गैर न मैं तेरा अपना ।।
कल्याणक
गर्भ शेष छह महिने हैं । 
लागे रत्न बरषने हैं ।।
बोले स्वप्न दिखा माँ को ।
आये हम, जागो माँ ओ ।।
कानन किलकारी गूँजी । 
पाई माँ दूजी पूँजी ।।
दृग् अंजुल छव अमृत पिया । 
न्हवन मेर सौधर्म किया ।।
विषय भोग विष से लागे ।
और न अलसाये, जागे ।।
जा वन वस्त्र उतार दिये । 
तत्क्षण केश उखाड़ लिये ।।
नन्त चतुष्टय आ रीझा ।
हृदय ज्ञान केवल भींजा ।। 
मोर वहीं अहि सिंह हिरणा । 
पाई जन-जन सम शरणा ।।
शुक्ल ध्यान अगनी जारी ।
जले कर्म बारी-बारी ।।
समय मात्र लागा भाई ।
लगी हाथ शिव ठकुराई ।।
जयमाला
दोहा
कामधेन, पारस-मणी, 
कल्प-वृक्ष, मणि-चिन्त ।
इनसे अतिशय क्षेत्र की, 
महिमा बड़ी अचिन्त्य ।।
इक साँचा दरबार है । 
महिमा अपरम्पार है ।।
यहाँ सवाली आते हैं । 
भर झोली ले जाते हैं ।
बिन व्यापार दुलार है । 
महिमा अपरम्पार है ।।
झलक एक जुड़ता नाता । 
सम-दर्शन बढ़ता आता ।।
हुआ बर्फ संसार है ।
महिमा अपरम्पार है ।।
हृदय वसानी छव केवल । 
भय भागे चल सिर के बल ।।
सरका सर का भार है ।
महिमा अपरम्पार है ।।
मंत्र-मूठ, जादू-टोना ।
भज, पद-रज पकड़े कोना ।।
जय में बदली हार है ।
महिमा अपरम्पार है ।।
माथे गन्धोदक धारा । 
रोग स्वयं यम को प्यारा ।।
धका खुला, सुख-द्वार है ।
महिमा अपरम्पार है ।।
साँझ ज्योत घृत बाली है । 
साधो ! मनी दिवाली है ।।
जादूई पतवार है ।
महिमा अपरम्पार है ।।
कहूँ कहाँ तक पार कहाँ ।
हैं दो चार सितार कहाँ ।।
मौन भला जयकार है ।
महिमा अपरम्पार है ।।
इक साँचा दरबार है । 
महिमा अपरम्पार है ।।
दोहा
आये मुँह से माँगना,
ऐसी ही कब बात ।।
गूँगे भी ले जा रहे,
लुका-छुपा कुछ हाथ ।।
॥ चालीसा ॥
भारत देश भरत चक्री से ।
मध्य प्रदेश वन्द्य शक्री से ।।
सागर जिला सार्थ गम्भीरा ।
कला देवरी भव जल वीरा ।।1।।
पता किसलिये, पास इसी के । 
तीर्थ क्षेत्र बीना जी दीखे ।। 
वेनू नाम गौंड़ इक राजा ।
जग ने बीना नाम नवाजा ।।2।।
यथा तथा गुण रखने वाली । 
नाम नदी सुख-चैन निराली ।।
पानी आगे मिसरी फीकी । 
कृपा इसी की खेती नीकी ।।3।।
खेत-खेत नाँजल चलतीं हैं ।
गाय शान्ति धारा पलतीं हैं ।।
दिन भर में जा सके न घूमी ।
नामे-गाय एकड़ों भूमी ।।4।।
कोई गिरि-गायन गिर गैय्या ।
पा विद्या-गुरुवर की छैय्या ।।
ता था थैय्या नाँच रही है ।
दया धरम की लाज रही है ।।5।।
‘ग…र’ अक्षर जो पलटी खाते ।
र…ग बन नजर सामने आते ।।
उस रग में दौड़ाये सोना । 
दुग्ध गाय गिर बड़ा सलोना ॥6।।
खिला-खिला घी रबा-रबा है ।
रोग-रोग की एक दवा है ।।
नव्य प्रपञ्च बनाते झूठे ।
पञ्च गव्य हौंसले अनूठे ।।7।।
रोपे ढ़ेर औषधी पोधे ।
करें न घर ‘कि चिकित्सा सोदे ।।
छूते नहीं हाथ से पैसे ।
सेवा रत गो-सेवक ऐसे ।।8।।
वजह यही आकाश थमा है ।
भू अंगद सा पैर जमा है ।।
पहुँच गगन तक जाती अगनी । 
वरना सिन्धु लीलता धरणी ।।9।।
ओड़ा जैसा वैसा खोला । 
धन्य इन्हीं का मानव चोला ।।
यह सब लीला बाबा की है । 
सुनो, सुनाऊँ जो बाकी है ।।10।।
रोजगार ना किसे मिला है । 
हथकरघा संस्थान खुला है ।।
लदी फूल-फल डाली-डाली ।
फुलवारी मन हरने वाली ।।11।।
बच्चे खेल खेलते दीखें । 
साथ प्रकृति के रह कुछ सीखें ।।
गुरु विद्या विरदावली गाता ।
कीर्ति-तंभ जा नभ बतियाता ।।12।।
संयम स्वर्ण महोत्सव झलकीं ।
झलकाईं इसमें ना हल्कीं ।।
चूनर भाग सितारे टकते ।
सुदूर तक करघे दिख पड़ते ।।13।।
देख सके ना सूरत रोनी ।
अम्बर चरखा काते पोनी ।।
रंग-अहिंसक वस्त्र रँगाई |
पत-संरक्षक वस्त्र कढ़ाई ।।14।।
विक्रय केन्द्र बड़ा खादी का ।
‘मॉल’ झाँकता बगलें दीखा ।।
व्रति भाई जिन-दीक्षा प्यासे ।
जिसे सँभाले गुरु आज्ञा से ।।15।।
बड़ी दूर से दिखे पताका ।
रंग केशर केशरिया जाका ।।
न सिर्फ पीले रंग रँगा है । 
सोने का ध्वज दण्ड लगा है ।।16।।
जिस पर लग कतार सिंह बैठे ।
पाहन शिखर शिखर जग जेके ।।
चार ओर परकोट तना है । 
द्वार और रेखा-लखना है ।।17।।
बैठा एक सजग प्रतिहारी ।
आ जा सकें ‘कि सिर्फ पुजारी ।।
घमण्ड खण्डित करने वाले ।
हैं दो मानस्तंभ निराले ।।18।।
पत्थर लाल विरचने खरचा | 
पत्थर मकराने इक विरचा ।।
दिशा एक ना चारों साजीं | 
ऊपर नीचे मूर्ति विराजीं ।।19।।
बिन प्रदक्षिणा मन ना माने ।
लगे मचलने पुण्य कमाने ।।
बाहर-अन्दर बेहद सुन्दर ।
करते गुम…मद गुम्मद मन्दर ।।20।।
कहीं ना ऐसी काबा-काशी ।
नयन चुरा लेती नक्काशी ।।
मानो स्वर्ग अवतरे नीचे ।
खम्बे पीछे, खम्बे ऊँचे ।।21।।
हाथ दाहिने ज्यों चलते हैं ।
दर्शन आद प्रभो मिलते हैं ।।
इन लग करते आओ दर्शन ।
निज स्वरूप दिखलाते दर्पण ।।22।।
आओ बढ़े एक इक पैड़ी ।
अद्भुत घुमाव वाली सीढ़ी ।।
दो वेदीं, शीशम दरवाजे ।
अष्ट-धातु भगवान् विराजे ।।23।।
चलना तो, आ चलो यहीं से ।
यूँ सीढ़ी लग बनी जमीं से ।।
गंध गुटी है, चतुर्मुखी है । 
भगवन् नासा-दृष्टि रखी है ।।24।।
भूमि निरख नव-वधु के जैसे ।
जैसे आये चालो वैसे ।।
प्रतिमा जिन हस्ताक्षर ‘भी’ कीं ।
कई वेदिंयाँ एक सरीखीं ।।25।।
दूर-दूर ना जिसका सानी ।
चमके चढ़ा स्वर्ण का पानी ।।
वृक्ष अशोक, चँवर ढुरते हैं ।
अधर छतर नर्तन करते हैं ।।26।।
अन आखर धुन, दुन्दुभि देवा ।
झिर लग वर्षा पुष्प सदैवा ।।
भामण्डल भव-भव उकरे हैं ।
स्वर्ण सिंहासन रत्न, जड़े हैं ।।27।।
हुई वन्दना आधी भाई । 
तभी वेदि कुछ बड़ी बनाई ।।
धातु-धातु-वसु, विजया नन्दा ।
सुत-वसु-पूज दूज ही चन्दा ।।28।।
दे प्रदक्षिणा सकते इनकीं ।
होतीं पूर्ण मुरादें मन कीं ।।
शेष वन्दना आओ कर लें । 
चैत्य बड़े-प्राचीन सुमर लें ।।29।।
लख दृग् करें अश्रु-जल बरसा ।
मन्दिर इक वन-वन चन्दन सा ॥ 
शीशम लकड़ी छतरी वाला ।
पाहन-स्वर्ण गर्भ गृह न्यारा ।।30।।
भुवन तीन इक तारण-तरणा । 
नत बैठा चरणों में हिरणा ।।
पन्द्रह फिट प्रतिमा ऊँचाई ।
अहि सुर-नर-हर के मन-भाई ।।31।।
चम्पक नासा, उन्नत माथा ।
मुख दृग् कर-तल पंकज नाता ।।
गोल सुड़ोल कपोल अनूठे ।
कर्ण लोल आ काँधे छूते ।।32।।
हों मानो सुंडाएँ हाथी ।
घुटने तलक भुजाएँ आतीं ।।
चाँद नखों में आया रहने । 
पग-तल भ्रमर गान क्या कहने ।।33।।
जोर लगाया इक जय कारा ।
तोड़ दिखाया भव-भव कारा ।।
मानस्तंभ एक प्राचीना | 
इक अरिहन्त सन्त दिश् तीना ।।34।।
पाणिग्रहण संस्कार किसी का । 
इक मत सम्मत साक्ष इसी का ।।
इसे बीच कर फेरे पड़ते ।
वर-वधु फिर ना कभी बिछुड़ते ।।35।।
आ सीढ़ी उतरें तलघर की । 
यह वे-दिका अजित जिनवर की ।।
खोया आप स्वानुभव पाने । 
आ बैठे पल ध्यान लगाने ।।36।।
मन्दिर एक बड़ा पुरु-स्वामी ! 
चन्दा, वासु-पूज्य जग-नामी ।।
प्रति प्रतिमा मन-हरने वाली । 
मनती दर्शन मात्र दिवाली ।।37।।
माथे तक गंधोदक लाना ।
रोग मिट चले नया-पुराना ॥ 
ज्योत जलाना चरणन आगे ।
मिथ्यातम पग-उलटे भागे ।।38।।
खीचें हाथ हंस-मत रेखा ।
नये पुराने ग्रन्थ अनेका ।। 
कुटिया सन्त कहीं ना ऐसी ।
बड़ी धर्म-शाला अपने सी ।।39।।
कहूँ कहाँ तक, शिशु मैं छोटा । 
लगा रखा कवि सिर्फ मुखोटा ।।
बनी भूल जाने, अनजाने ।
अन्त लगा मन क्षमा मँगाने ।।40।।
दोहा
कृपया कर दीजे क्षमा, 
विनय यही सिर-टेक ।
लीजे भक्तों में बिठा, 
और भक्त यह एक ।।
आरती
नजर रखते हैं पारखी ।
कला जाने उस पार की ।।
बीना जी के बाबा की उतारुँ आरती ।
एक दिव-शिव-रथ सारथी ।।
हाथों में दीपक घृत वाला ।
आँखों में लेकर जल खारा ।।
बीना जी के बाबा की उतारूँ आरती ।
एक दिव-शिव-रथ सारथी ।।
रोम रोम अर पुलकन वाला ।
बातों में गद-गद पन न्यारा ।।
हाथों में दीपक घृत वाला ।
आँखों में लेकर जल खारा ।।
बीना जी के बाबा की उतारूँ आरती ।
एक दिव-शिव-रथ सारथी ।।
शंख ढ़ोल वंशी इकतारा ।
बोल जोर से जय जय कारा ।।
रोम रोम अर पुलकन वाला ।
बातों में गद-गद पन न्यारा ।।
हाथों में दीपक घृत वाला ।
आँखों में लेकर जल खारा ।।
बीना जी के बाबा की उतारूँ आरती ।
एक दिव-शिव-रथ सारथी ।।
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