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तीर्थक्षेत्र पूजन

पूजन- ऊन के बड़े बाबा की पूजन

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

ऊन के बड़े बाबा की पूजन

बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून ! विपद्-हारी ।।
सूना सूना मन आँगन |
बने नैन भादो-सावन ।।
बारिस में रोना हर लो ।
आ सोना सोना कर दो ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (इति सन्निधिकरणम्)

जल-कंचन, कंचन कलशे ।
बने न अब रहने कल से ।।
लाये हैं चरणन तेरे |
अपना लो भगवन् मेरे ।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।

वन-नन्दन चन्दन कलशे |
सदा मना सकने जलसे ।।
लाये हैं चरणन तेरे |
अपना लो भगवन् मेरे ।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।।

अक्षत अक्षत उज्ज्वल से |
प्रीत तोड़ सकने छल से ।।
लाये हैं चरणन तेरे |
अपना लो भगवन् मेरे ।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।

सुमन श्रमण मन निर्मल से ।
नेह जुड़े ‘कि नन्त बल से ॥
लाये हैं चरणन तेरे |
अपना लो भगवन् मेरे ।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।

व्यञ्जन जिसमें घृत विलसे ।
रहने जुदा क्षुधा खल से ।।
लाये हैं चरणन तेरे |
अपना लो भगवन् मेरे ।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

लिये ‘दिये-घी’ मंजुल से |
पिण्ड छुड़ाने पुद्-गल से ॥
लाये हैं चरणन तेरे |
अपना लो भगवन् मेरे ।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।

सार्थ नाम सुगंध कलशे |
कट पाने माथे सल से ।।
लाये हैं चरणन तेरे |
अपना लो भगवन् मेरे ।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।

भर पिटार मीठे फल से ।
जुड़ने दिव-शिव संस्थल से ।।
लाये हैं चरणन तेरे |
अपना लो भगवन् मेरे ।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये-फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।

दरव सरब वसु प्राञ्जल से |
नजर टिकाने मंजिल से ॥
लाये हैं चरणन तेरे |
अपना लो भगवन् मेरे ।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

=कल्याणक अर्घ्य=
गर्भ अभी माँ का सूना |
बरसे रत्न रजत ‘सो ना’ ॥
भेंट न क्या क्या सुर लायें ।
गर्भ शोंधतीं बालाएँ ।।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं गर्भ कल्याणक मण्डिताय श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

किलकारी गूँजीं अँगना |
छके न, तके सहस नयना ।।
ढ़ोरे बड़े कलश लाके ।
ताण्डव नृत्य करे आके ।।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं जन्म कल्याणक मण्डिताय श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

राज पाठ कब रोक सका ।
अनुमोदन लोकान्त सखा ।।
कर कच-लोंच वस्त्र फेंके |
ध्याया निज दीक्षा लेके ।।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं तप कल्याणक मण्डिताय श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

धू-धू कर्म घातियाँ चौ ।
शुक्ल ध्यान पा अनबुझ ‘दौ’ ।।
ज्ञान अपूरब समशरणा ।
हिरणी सिंह भाई बहना ।।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं ज्ञान कल्याणक मण्डिताय श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

कर्म शेष जल, पड़े सभी ।
आप देश चल पड़े तभी ।।
गये समय इक वहाँ पहुँच ।
नहीं कर्म इक जहाँ पहुँच ।।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।
ॐ ह्रीं मोक्ष कल्याणक मण्डिताय श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*दोहा*
बाबा के दरवार की,
अजब निराली बात ।
तलक आज लौटा नहीं,
कोई खाली हाथ ।।

=जयमाला चालीसा=

बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून, विपद्-हारी ।।

हाथ सुमरनी लेता जो ।
करनी भरनी देता खो ।।
दी प्रदक्षिणा तीन सिरफ ।
महकी खुशबू चार तरफ ।।1।।

की आरतियाँ भावों से ।
जीवन रिक्त अभावों से ।।
दर्श एक बस क्या पाता ।
सम्यक् दर्श जुड़े नाता ।।2।।

चँवर ढुराये गर साथी !
काली नजर उतर जाती ।।
छतर चढ़ा क्या बस आया ।
बदली करे घाम छाया ।।3।।

गंधोदक सर-पर धारा ।
रोग-शोक परिकर हारा ।।
शीश, सिंहासन पधराता ।
लगता ताँता सुख साता ।।4।।

मंगल द्रव्य रखे आके ।
स्वप्न न दालद्दर झाँके ।।
दीप रखा क्या आगे है ।
साढ़े-साती भागे है |।5।।

आता चढ़ा चँदोवा जो ।
देश विदेश घरोवा हो ।।
किया नाद घण्टा आकर ।
जिया याद ढ़ाई आखर ।।6।।

पद-रज छुई ‘कि छू मन्तर ।
मंत्र, मूठ, जादू-मन्तर ।।
लगा गुहार हृदय सच्चे ।
रोजगार लगते बच्चे ।।7।।

चरणन रखता माथ भगत ।
पीले लाडो हाथ तुरत ।।
श्रद्धा रखता भारी सी ।
मिले बहुरियाँ प्यारी सी ।।8।।

और पूर्ण सब इच्छाएँ ।
रख विश्वास चले आयें ।।
बाबा ऊन चमत्कारी ।
मंशा-पून,विपद् -हारी ।।9।।

दोहा=
एक बार आना पड़े,
बाबा बड़े दयाल ।
माँ से कब कहना पड़े,
माँ खुद रखे ख्याल ।।10।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

=वृहद्-चालीसा=

दोहा=
बाब बड़े दयाल है,
रखते सब का ख्याल ।
बाँस बना दी बाँसुरी,
माटी घट तत्काल ।।

संस्कृत शान सुहानी धरती ।
विरहित मान निमाड़ी धरती ॥
पर्वत माला अविचल थाती ।
शीत लहर ढ़ा कहर न पाती ॥१।।

उतरा स्वर्ग जमीं, माया है ।
माँ नर्मदा छत्र छाया है ।।
हरियाली है खुशहाली है ।
चुनर चाँद-तारों वाली है ॥२।।

गन्ने नहीं अकेले दीखें |
दूर दूर तक केले दीखें ॥
सीताफल बागान अनुठे |
टूटे डाल पपीते मीठे ॥३।।

ऊँचे लोग, बसी मन खादी ।
रोज किसान काटते चाँदी ॥
सुबह चहक सुन लो चड़िंयों की |
सुबह महक चुन लो बगियों की ॥४।।

खौफ बगैर गैर मन गन्दे ।
डोलें, बना कतार परिन्दे ।।
गो-धूलि बेला क्या आती ।
रँभा गाय निज-वत्स बुलाती ।।५।।

बछड़े भरते हुये कुलाछें ।
माँ सँग आखर ढ़ाई वाँचे ।।
मिले गृहस्थ सन्त घर-घर में ।
बाहर कम, रहते अन्तर् में ॥६।।

सो जाते जल्दी उठ जाते ।
उठ सूरज के लिये उठाते ॥
पानी छान नहाते देखा |
कर ‘कि सकें जिनवर अभिषेका ॥७।।

और काम करते फिर, पहले ।
जिन-दर्शन, आँखों में जल ले ॥
श्री-फल हाथ बना कर अपने ।
लगते अपलक चरण निरखने ॥८।।

सहज अकारण निस्पृह नेहा ।
गद-गद-उर, रोमांचित-देहा ॥
ले दृग् सीले छतर चढ़ाते ।
होले-होले चँवर ढुराते ॥९।।

दीप अखण्डित प्रजालते हैं ।
ग्रन्थ सन्त पल सँभालते हैं ॥
भाव-भासना युत स्तुतियाँ |
करें झूम झुक-झुक आरतियाँ ॥१०।।

घंटा नाद विदिश् दिश् गूँजे |
दृग् मूँदें, भा-मण्डल दूजे ॥
सभी अमंगल तुरत विरहते ।
मंगल द्रव्य समर्पित करते ॥११।।

पावन-पाँवन रज मन-मोहक |
धरें ललाट नयन गन्धोदक ॥
जिन बिन कौन सहारा दूजा ।
झूम झूम झुक करते पूजा ॥१२।।

नार हरिक शालीन बड़ी है ।
बन बाधा शिव-पथ न खड़ी है ॥
ज्यों भी-तर आती जाती है ।
तन अपना ढ़कती जाती है ॥१३।।

जाने खूब कहे क्या चुन-री |
फबती साथ नगीने मुंदरी ॥
चुहल, ठिठौली इन्हें न भाती ।
खाना चुगली इन्हें न आती ॥१४।।

रखती ढ़क वालों को अपने ।
करती हाथ लाज रख सपने ॥
जहाँ कहे माँ पिता वहीं पर ।
विवाह करती रह कर भी’-तर ॥१५।।

सनेह साथ परोसे भोजन ।
ढ़ीले हाथ परोसे भो ! जन ॥
भोजन सुदूर, रातरि जल से ।
दूर हाथ होटल-बोतल से ॥१६।।

नाँचे अँगुली पर न नचाये ।
बन फिरकी घर स्वर्ग बनाये ॥
पाणि पातरि जिमा जीमती ।
रखती संयम नियम कीमती ॥१७।।

शाकाहार यहाँ जोरों पर ।
खड़े न फटे-हाल मोड़ों पर ॥
घर-घर रंग रोशनी न्यारी ।
झूले पेड़-फूल फुलवारी ॥१८।।

मेले लगे, भरे बाजारा ।
फिरे न कोई भी आवारा ॥
करे न कोई भी बेमानी ।
चलता अंधा धंधा पानी ॥१९।।

यह सब पता-कृपा बाबा की ।
ऊन जैनियन काबा-काशी ॥
जिसका नीर क्षीर जैसा है ।
नदी चेलना तीर बसा है ॥२०।।

स्वर्ण-भद्र, मणि-भद्र नाम इक ।
नील-भद्र, गुण-भद्र नाम इक ॥
नाम ग्रन्थ पावागिर आया ।
मुनि चतुष्क हित तप इह भाया ॥२१।।

पर्वत चढ़ ध्यानाग्नि जलाई ।
कर्म जला शिव-वधु परिणाई ।।
नृप बल्लाल रचित मन्दर हैं ।
बढ़कर इक से इक सुन्दर हैं ॥२२।।

उपमा परिकर करते झूठे ।
नभ-चुम्बी सब शिखर अनूठे ॥
स्वर्ण दण्ड ध्वज ध्वज पचरंगी ।
धर्म अहिंसा जश सारंगी ॥२३।।

गुम्मद गुम कर देता मद है ।
कुछ हटके नक्कासी कद है ॥
घंटा नाद बने बस सुनते ।
काम देहरी छुई ‘कि बनते ॥२४।।

झुक जाया जा सके ‘कि द्वारा ।
पा प्रवेश लो, दे जयकारा ॥
साढ़े बारह फुट ऊँचाई ।
जाने कौन हृदय गहराई ॥२५।।

शान्ति नाथ जिन-राज विराजे ।
खड़े विनत राजे महराजे ॥
कुन्थु नाथ अद्वितिय तरफ हैं ।
अर ‘अर-अरहत’ द्वितिय तरफ हैं ॥२६।।

दोनों आठ-आठ फुट ऊँचे ।
दो गज-राज विराजे नीचे ॥
यक्ष-राज, यक्षणी सुशोभित ।
छवि भगवन् करती मन मोहित ॥२७।।

घूँघर वालीं अलकें प्यारीं ।
पद्म पाँखुडी पलकें न्यारीं ॥
धनुष भ्रुएँ अर चम्पक नासा ।
गोल कपोल समुन्नत माथा ॥२८।।

छूते काँधे कर्ण लोल हैं ।
अंग अंग अद्भूत सुडोल हैं ॥
किया दर्श दृग् लगते बहने ।
किया पर्श फिर हैं क्या कहने ॥२९।।

बात बने भजते ही भजते ।
बाबा मंशा पूरण बजते ॥
बाधा-ऊपर आकर हारी ।
मंत्र मूठ हो यम को प्यारी ॥३०।।

जिन गन्धोदक महिमा शाली ।
जोत-नैन बढ़, मने दिवाली ॥
सदी बारवीं भूमि गोद थे ।
चरण चिन्ह पल मिले खोदते ॥३१।।

हाथ नाथ-संभव इक मूरत ।
संकट-मोचन, मोहन-सूरत ॥
देकर स्वप्न भूमि से निकली ।
वर्धमान जिन प्रतिमा विरली ॥३२।।

ढ़पली, ढ़ोलक लिये मजीरा ।
कहते हुये जयति-जय-वीरा ॥
दौड़े जैन अजैन सभी जन ।
फूलों से उठ चाले भगवन् ॥३३।।

वर्ण स्वर्ण ले काँच बनाया ।
मंदिर लगे स्वर्ण, है माया ॥
छोड़-छाड़ कर और झमेले ।
बस निहारते रहो अकेले ॥३४।।

परम्परा आचारज दर्शन ।
मन-मोहक पौराणिक चित्रण ॥
दिव्य शान्ति धारा नित होती ।
बस न्योछावर छोटी-मोटी ॥३५।।

सचमुच मूर्ति बड़ी प्यारी है ।
न सिर्फ नयनन मन हारी है ॥
बस दर्शन से कब मन भरता ।
चरण-पर्श करने मन करता ॥३६।।

दो दिन और न एक अकेला ।
भरे बसंत-पंचमी मेला ॥
माले ऊपर माले वाली ।
बनी धर्मशाला वैशाली ॥३७।।

साँझ आरती ले घृत दीवा ।
भक्त करें मन मुदित अतीवा ॥
झूम-झूम-झुक, धूम-मचा के ।
हाथ उठा-कर, ताल बजा के ॥३८।।

फिर जाकर जैसी ही सोते ।
सपने में प्रभु दर्शन होते ॥
चुनर साफ सुथरी हो जाती ।
झलक आत्म-निधि अनमिट थाती ॥३९।।

कहूँ कहाँ तक छोर न आता ।
हाथ जोड़ा बस माथ नवाता ॥
रही टूट, दो टूक बना लो ।
तेरा ही, ‘जैसा’ अपना लो ॥४०।।
ॐ ह्रीं श्री शान्ति, कुन्थ, अर नाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

दोहा=
ठुकराना आता नहीं,
बाबा बड़े दयाल ।
उठा, लगा लेते गले,
देख विनत नत-भाल ।।

*आरती*

आरती उतारूँ… मैं आरती उतारूँ,
दीपों के द्वारा ।

बोल जयकारा ।
ढ़ोलक नगाड़ा ।
लिये अश्रु धारा ।
चरणा पखारूँ, मैं चरणा पखारूँ ।।

आरती उतारूँ, मैं आरती उतारूँ…
दीपों के द्वारा ।

मोहनीय मूरत ।
सोहनीय सूरत ।
मांगलिक मुहुरत ।

अपलक निहारूँ, मैं अपलक निहारूँ
आरती उतारूँ, मँ आरती उतारूँ…
दीपों के द्वारा ।

बोल जयकारा ।
ढ़ोलक नगाड़ा ।
लिये अश्रु धारा ।
चरणा पखारूँ, मैं चरणा पखारूँ ।।

आरती उतारूँ,मैं आरती उतारूँ…
दीपों के द्वारा ।

नाक पे नजरिया ।
राखते खबरिया ।
मोरे, सवरियाँ ।

‘हो कहाँ पुकारुँ, ओ ! हो कहाँ पुकारुँ ।
आरती उतारूँ, मैं आरती उतारूँ,

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