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Uncategorized  ·  मुनि श्री १०८ अजय सागर जी महाराज

पशुओं के द्वारा संस्कार की सीख

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

एक बार भीषण गर्मी में विशाल वृक्ष के नीचे इकट्ठे हुये पशुओं से वनराज ‌सिंह ने प्रश्‍न किया कि यदि आपकी और मनुष्य की मुलाकात हो तो आप उस‌से क्या कहेंगे ?
१) कोयल ने कहा- मैं मनुष्य को अपनी आवाज सुनाकर सलाह दूँगी कि जब भी बोलने का प्रसंग आये तो मेरी जैसी मीठी आवाज में बोलना ।
२) कबूतर ने कहा- मैं मनुष्य को उसे मेरे सरल स्वभाव का अनुभव करा कर समझाऊँगा कि अपने जीवन को मेरे समान सरल ही रखना ।
३) कौवे ने कहा-सभी बिरादरी वालों को इकट्ठा करके भोजन करने की मेरी विशेषता है । मैं उसे समझाऊँगा और सलाह दूँगा कि अकेले भोजन मत करना, सबके साथ करना ।
४) कुत्ता ने कहा- मैं मनुष्य को अपनी वफादारी के बारे मे बताऊँगा और समझाउँगा कि जीवन में कभी बेवफा मत बनना ।
५) बंदरियां ने कहा‌- बच्चो के प्रति मेरा प्रेम क्या है, मनुष्य की पत्नियों को दिखाउँगी कि कभी गर्भपात का पाप मत करना । अपने बच्चों के लिए सब कुछ न्यौछावर करना ।
६) सिंह ने कहा- सिंहनी के साथ मेरे संयमित व्यवहार की, उस मनुष्यको समझाउँगा और उपदेश दूँगा कि कभी कामांध मत बनना ।

जीवन के चार- चरण
जिसको मंजिल का पता चल गया , वह मंजिल पा जायेगा ।
जिसको जाना निज घर में , वह अपने घर आ जायेगा ॥
छोड़ो विषय कषाओं को तुम, तुम अपने आप को पहचानो ।
एक बार पुरषार्थ करके तुम , मानव जीवन सफल बनाओं ॥

संस्कारो का शंखनाद का अंतिम सोपान चल रहा है, सारे संस्कारों का सार यही है कि हमें अपने जीवन को संयम के संस्कारों से संस्कारित करना है ।

संयम जीवन का सार है , संयम जीवन का आधार है ।
संयम के बिना जीवन जीना, मानव पर्याय पाना बेकार है ॥

हमने अपना जीवन यूँ ही गवाँ दिया । जीवन में चार बार सुनहरे मौके मिले, पर
हमने उन्हें गँवा दिया । इसी संदर्भ मे एक कथानक है कि दुर्लभ मानव पर्यायों को खेल
खेल में, हसीन सोन्दर्य, और सोने में गँवा दिया ।
एक धनाढ्य सेठ थे । परिस्थिति की मार खाकर एकदम दरिद्र बन गये, जिसके यहाँ से कोई याचक खाली हाथ नहीं जाता था । वही सेठ दाने दाने को मोहताज हो गया, घर में एक दाना भी नही बचा, भूखे मरने की नौबत आ गई थी । पत्नि ने सेठ को (पति) को प्रेरित करते हुये कहा कि आप कहते हैं कि यहाँ का राजा आपका मित्र है, राजा से आपकी अभिन्न मित्रता रही, प्रगाढ रिश्ता है । ऐसी आपद ग्रस्त स्थिति में आप राजा के पास क्यों नहीं जाते? मुझे पक्का विश्‍वास है कि ऐसी स्थिति में राजा जरूर हमारी मदद करेंगे । सेठ ने कहा – अरे पगली ऐसे फटेहाल हालत में राजा मुझे पहचानेगा भी नही । पत्नि ने कहा नहीं मैं जानती हूँ कि राजा बड़ा उदार है और अपने मित्रों बन्धुओं से प्रेम रखने वाला है । आप निश्‍चिंत रहिये, राजा आपको पहचानेगा और बिना मांगे मदद करेगा । पत्नि की प्रेरणा और परिस्थितियों की पुकार से प्रभावित होकर न चाहते हुये मी उसने राजा से मिलने का मन बनाया । राजमहल में पहुँचा, व्दारपाल के माध्यम से राजा के पास अपना संदेश पहुँचाया कि आपके बचपन का मित्र आया है । व्दारपाल ने जाकर राजा से कहा- कि एक फटेहाल गरीब व्यक्‍ति आपको अपने बचपन का मित्र कह रहा है, आपसे मिलना चाहता है अपना नाम रामदास बता रहा है । राजा अपने बचपन का मित्र का नाम सुनते ही आसन से उतरकर दौड़ा आया, छाती से लगा लिया, (वैसा सत्कार किया जैसा कभी श्रीकृष्ण ने सुदामा का किया था) । दोनो मित्र भाव विभोर होकर मिले, जैसे सुदामा की पत्नि ने कुछ दाने पठोनी में श्रीकृष्ण के लिए रखे थे वैसे उसकी पत्नि ने ने कुछ दाने ज्वार के रखे थे । राजा ने उसकी पोटली से वो दाने लिए और खाने लगा । राजा को उसकी हालत देख कर उसकी आँखो मे आंसू आ गये । दुःखित भाव से राजा ने कहा मित्र तुम्हारी स्थिति मैं समझ गया हूँ तुम्हें कहने की आवश्यकता नही, तुम मेरे बचपन के मित्र हो । तुम एक काम करो, मेरे पास धन दौलत की कमी नही है । कल सुबह आना, तुम्हारे लिए हीरे जवाहरात का खजाना खोल दूँगा । तुम जितना चाहो उतना ले जाना । पर एक शर्त है कि तुम्हें तीन घंटे का समय देता हूँ इसके पूर्व तुम्हें तीन घण्टे के पहले मेरे पास यहाँ आना होगा, अन्यथा खाली हाथ जाना होगा ।
अब क्या था अगले दिन आया जैसे ही हीरे जवाहरात का खजाना खोला गया, हीरे की चमक देखकर उसकी आँखे चौधया गयी, रत्नों की जगमगाहट से अचकचा गया कि अब क्या करू ? बेशुमार सम्पत्ति समय कम, क्या करूँ ? पूरे खजाने पर दृष्टि दौडाई, कौने में एक खिलौना पड़ा था हीरे जवाहरात रत्नो का । सोचा तीन घंटे का समय मिला है २-४ नग में मेरा काम चल जायेगा, ज्यादा सम्पत्ति जोड़ने से क्या काम ? जब पूर्व में जोड़ा हुआ नही बचा तो इसे ले जाकर क्या करूँगा ? क्यों न मैं थोड़ी देर इंतजार करूँ, इस खिलौने से खेलने में लुप्त उठा लूँ, क्योंकि दुबारा आने मिलेगा नही । खेल में इतना तल्लीन हो गया कि पता ही नही चला कब तीन घंटे बीत गये । तब व्दारपाल ने आ कर कहा कि महानुभाव आपका समय पूरा हो गया अब आप बाहर चले ।
सेठ : क्या समय हो गया ? मैंने तो कुछ किया ही नहीं, सोचा जो अब तक नही ले सका, अब क्या लेगा ?
पहरेदार : अब आपको कोई भी हीरे जवाहरात लेने की इजाजत नही अब आप खाली हाथ बाहर आ जाइये । सेठ निराश होकर वापिस आ गया । राजा को मालूम हुआ कि यह कोई लाभ नही उठा पाया ।
राजा ने अपनी तरफ से कहा – मित्र तुम्हें मैने इतना अच्छा मौका दिया पर तुमने उसे खेल खेल में गँवा दिया, खैर कोई बात नही । मैं तुम्हें फिर मौका दूँगा, इस बार तुम्हें मैं सोने के खजाने में भेजूंगा, जितना सोना ले जाना चाहो उतना ले जाना, पर शर्त इतनी है कि तुम्हे तीन घंटे के अंदर यहाँ वापिस आना है । दूसरे दिन सेठ आया उसे सोने के खजाने में भेजा गया । उसने देखा कि चारों तरफ सोने का खजाना भरा है । वह खजाने की ओर लपका, चारो ओर सोना ही सोना एक से एक सोने के आभूषण, सोने के बिस्कुट, सोने के गाय, घोड़ा, हाथी आदि । एक घोड़े पर उसकी नजर पड़ी, वही घोड़ा जिस पर बैठकर मित्र के साथ सवारी की थी । उसके भीतर जवानी का जोश आया, तीन घंटे का समय है घोडा विश्‍वास पात्र हैं, देखें असली है या नकली । उसने उसपर हाथ फेरा, घोड़ा हिन हिनाया । सोचा क्यों न थोडी देर सवारी का आनन्द ले लूँ , वापिस आकर जो लेना होगा ले लूँगा । यह सोचकर घोड़े पर बैठा, लगाम खीची, चाबुक मारी । घोड़ा हवा से बाते करने लगा, घूमने में मस्त हो गया । जब लौटकर आया दरबान ने कहाँ चलिये महानुभाव आपका समय हो गया , आप बाहर आ जाइये, तीन घंटे बीत गये । अभागा अब की बार भी कुछ भी लाभ ले न सका , खाली हाथ वापिस आना पड़ा । राजा ने कहा क्या कर दिया तुमने आज फिर, सुनहरा मौका गँवा दिया । खैर मैं तुम्हें तीसरा और आखरी मौका देता हूँ इसका लाभ लेना चाहो तो ले जाना, नहीं तो तुम जानो, तुम्हारा काम जाने ।
कल तीसरा मौका, चाँदी के खजाने में होगा । तुम्हे चाँदी के खजाने में भेजा जायेगा, जितनी चाँदी ले जाना चाहो ले जाना, पर शर्त वही कि तुम्हें तीन घंटे के अन्दर वापिस आना होगा । अगले दिन वह चाँदी के खजाने में गया, खजाने को देखकर अचंभित हो गया नजरे फट गई, वह खजाने को देखकर ऐसे टूट पड़ा जैसे कोई भूखा भोजन पर टूटता है । बहुत सारी चाँदी बटोर कर निकलने को हुआ कि दरवाजे के बगल में एक खूबसूरत हसीन छल्ला दिखाई दिया, जो नाना तरह के लुभावने करतब कर रहा था । कभी आगे, पीछे, ऊपर नीचे, “छल्ले के नीचे लिखा था, कृपया मुझे न छुएँ, छुएँ तो सुलझाकर ही जाये” । निषेध में जिज्ञासा होती है, सोचा साधारण सा छल्ला है, काम तो मैने कर लिया । अब भी दो घण्टा बाकी है, क्यों न इसे देख लूँ, इसकी क्या खासियत है । उसने जैसे ही छल्ले में हाथ डाला, उसका हाथ उलझ गया , बुरी तरह से उलझ गया । और वह दूसरे हाथ से उसे सुलझाने में लग गया, छल्ले में से हाथ कैसे छुड़ाये ? हाथ छूट नही पाया, समय पूरा हो गया । पहरेदार ने उससे कहा महानुभाव आपका समय
पूरा हो गया, चलिये बाहर ।
बेचारा सेठ अपनी किस्मत को कोसते हुये निराश मन से घर आ गया । वाकई अक्सर यही होता है लोग खुद गलती करते हैं, दोष किस्मत को देते हैं । खुद की प्रकृति को दोष नहीं देते । पत्नि को मालूम पड़ा उसने कहा – चलो तीन मौके राजा ने अपनी तरफ से दिये । मेरी प्रार्थना है कि आप एक बार फिर राजा के पास जाओ, उनसे आखरी मौके के लिए कहना, क्या करें हम कहां तक भूखे रहकर गुजारा करेगें । पत्नी के आग्रह पर प्रेरित होकर आखरी बार राजा के पास गया । राजा से विनय की आप मुझे अंतिम बार मौका दीजीये । सिर नीचा करके खड़ा हो गया । राजा ने कहा तुम्हें तीन बार मौका दिया पर तुम्हारी किस्मत में नही बदा था । अब तुम्हें एक आखरी मौके के रूप में तीन घण्टे का समय दिया जायेगा, और वो है ताँबा, पीतल का खजाना । अब मेरे पास और कुछ नही बचा । ये बोरी रस्सी ले जाओ , जितना तांबा पीतल ले जाना चाहो उतना ले जाना ।
दूध का जला, छांछ भी फूँककर पीता है । उसने तय किया अबकी बार कोई
गलती नही करेगा । तांबा पीतल के बारे में सोचकर १०-२०बोरियां उठाई और खजाने में जाकर बोरियां भरने में टूट पड़ा । सारी बोरियां भरकर सिल ली । एक घण्टा का समय लग गया, थक गया था । कमर दर्द, वृध्दावस्था के कारण कमर दर्द था । परिस्थिति की भार से कमर दुखने लगी, कमर सीधी करने के लिए झुका । देखा सामने एक खूबसूरत पलंग (बिस्तर) डनलप का जिसमें सुगन्धित फूलोंकी खुशबू आ रही है । वह सामने रखा है सोचा राजा (मेरा मित्र) कितना शुभचिन्तक है उसे मालूम था कि मेरा मित्र परिश्रम से थक जायेगा, इसलिए बिस्तर लगा दिया । अभी २ घण्टे शेष है, थोडा सुस्ता लूँ (विश्राम कर लूँ), वह बिस्तर पर सो गया, सपनो में खो गया । जब उसकी नींद टूटी, तीन घण्टे बीत गये थे । पहरेदार ने कहा चलिये महानुभाव आपका समय हो गया । बेचारा किस्मत का मारा अंतिम बार भी खाली हाथ आ गया । आपको हँसी आ रही होगी, उस व्यक्‍ति की मूर्खता पर । क्या आपको मालूम हैं यह किसकी कहानी है, यह हमारी तुम्हारी सबकी कहानी है । हमारे मनुष्य जीवन कभी चार – पन (चरण) है, बचपन, यौवन, प्रोढ़ावस्था, बुढ़ापा । ये चारो पन हमें एक श्रेष्ठ अवसर के रूप में मिले ।
१) सबसे पहला अवसर बचपन का है – बचपन जो हमें रत्नो जैसा मिला, रत्न कीमती,
पारदर्शी होते है ।

“बचपन गया खेल कूद में, तरूणी संग तारणाई ।
अर्ध्दमृतक सम बूढ़ापनो है, कैसे बचोगे भाई ॥”

कहा है-

“बालपने में ज्ञान न लह्यो तरूण समय तरूणी रत रह्यो ।
अर्ध्दमृतक सम बूढ़ापनो, कैसे रूप आपनो आपनी लखो ॥”

(छहढाला १/४)

१) जैसे रत्नों, हीरे जवाहरतो जैसी पारदर्शी जीवन , बचपन को हमनें खेल खिलौने के
साथ बिता दिया । जब मस्तिष्क शुध्द साफ निर्विकार था, जब हम ज्ञान ग्रहण कर सकते
थे पर खेल मे बिताया ।

२) सोने जैसी जिन्दगी याने यौवनावस्था- याने १३ से १९ वर्ष की सोने जैसी जिन्दगी । इस यौवनावस्था में व्यक्‍ति जैसा ढल जाये वैसा बन जाता है । कुंभकार जो चाहे वैसा घट को रूप दे देता है । चाहे घट बनाये या दीपक, वैसे ही व्यक्‍ति इस उम्र में जैसा बनना
चाहे बन जाता है । ऐसे सोने जैसे बेश कीमती जीवन को हमने यौवनावस्था के हसीन ख्वाबों के घोडे के रूप मे बिताया । मेरा भविष्य ऐसा होगा, वैसा होगा, इसी उधेड़बुन में समय निकाल दिया ।

३) तीसरा मौका प्रोढ़ावस्था- चाँदी जैसी जिन्दगी को हमने गृहस्थी रूपी हसीन छल्ले मे, स्त्रियों के आकर्षण में, संसारी सुखो के छल्ले में हाथ डाला, कि फंस गये । संत कहते है- गृहस्थी एक हसीन छल्ल है इसे छेड़ो मत । छेड़ो तो सुलझाकर निकल जाओ, जिन्दगी सुलझाते सुलझाते निकल जाती है । संत कहते हैं बेहतर है कि उनमें उलझो ही मत । यदि कदाचित उलझ गये हो तो उसे सुलझाने में दूसरे हाथ को मत उलझाओ । एक हाथ को उलझा रहने दो, दूसरे हाथ से जितना माल निकाल सको, निकाए लो, उसी में मालामाल हो जाओगे । जो गृहस्थी की उलझनों में उछल कर रह जाते हैं, वे कभी कल्याण नहीं कर‌ पाते । जितना उलझनों में उलझने का वक्‍त कम मिले, शेष वक्‍त को परमार्थ कर‌ने में लगा दो, तुम्हारा कल्याण हो जायेगा ।

४) चौथी अवस्था बुढ़ापा (बिस्तर)- वृध्दावस्था को सोने में गुजार दिया जैसे घर में तांबे
पीतल कचरा सामान (टूटे फूटे) कबाडखाना होता हैं एक कोने में । वैसे ही बुढ़ापा आया, बेटों ने बाबा बहुत खाँसते हो बच्चे परेशान होते हैं, आप कोने वाले कमरे में रहो, खाओ और सो जाओ । पं. जगमोहन लाल शास्त्री जी बहुत बार कहा करते थे “बूढ़े को अर्धमृतक क्यों कहते हैं ? उन्होंने कहा – मृतक को चार लोग उठाते हैं और बूढ़े को दो लोग, इसलिए अर्धमृतक कहते हैं । वृध्दावस्था भी जर्जर अवस्था है जहाँ मनुष्य चाहकर
भी कुछ नहीं कर सकता । शरीर मे शक्य नहीं, शक्‍ति नही रहती, मन की भावना मन में रह जाती है । संत कहते है –

यावत्‍ स्वास्थोऽयं देहो यावद्‍ मृत्युश्‍च दूरत: ।
तावद् आत्महितं कुर्यात्‍ तं प्राणान्ते किं करिण्यासि ॥

जब तक तुम्हारा शरीर स्वस्थ है, जब तक मृत्यु तुमसे दूर है, तब तक आत्मा का
कल्याण कर लो, नही तो प्राणांत हो जाने के बाद क्या करोगे ?

“जब तलक है प्राण तन में, तब तलक है तू ।
जाना है ऽऽऽ किस और प्राणी जानता न तू ॥—२

कौन कैसा जीत जय, जब नेमी आयेंगे । २
सजन प्रेमी यू समय, कुछ कर न पायेंगे ॥ २
जग में आया ऽऽऽ २ था अकेला जायेगा भी तू ….. जब तलक है प्राण

कफन का टुकडा सभी का ऽऽऽ २ आखरी परिधान ।….२
समझना है तू समझ ले ऽऽऽ २ मूर्ख ये नादान ॥….२
चिता भी ऽऽऽ २ गर मिल सके तो धन्य होगा तू ।….२ जब तलक है प्राण

धार ले सम्यक्त्व निज में चेत जा प्राणी ॥….२
रत्नत्रय तू धार ले कहती है जिनवाणी ।….२
देह है ऽऽऽ २ नश्‍वर की टहनी, चेतना है तू ॥

रत्नों जैसा बचपन बीत गया / सोने सी यौवन में सम्हल जाओं / सोने जैसा बीत गया चांदी जैसी प्रोढावस्था में सम्हल जाओं / चाँदि जैसा जीवन बीत गया तांबे जैसे बुढापे में, सम्हल जाओं । यदि नही सम्हलो तो भगवान ही मालिक है । पूज्य प्रमाण सागर जी कहते हैं कि पहली पारी में इतना स्कोर खड़ा करो कि दूसरी पारी में बल्ला न उठाना पड़े ।
यदि अवसर चूका तो , भव भव पछतायेगा ।
नर भव भी कठिन यहाँ किस गति में जायेगा ॥
नर भव भी पाया हो जिन कुल ना पायेगा ।
अनगिनती जन्मों में अनिगत विकल्पों में ॥

अपने जीवन को, अपने बच्चों को, संयम से संस्कारित करें । संयम के बिना जीवन मानव पर्याय को ऐसा गँवा देना है जिससे फिर कभी कल्याण ही न कर पाये । जिस प्रकार रत्न मिलने पर पक्षी उडाने मे कंकड समझकर फेंक दिया । चंदन की लकड़ी को कोयला बनाकर रोटी के लिए जला डाला । चंद मिली सांसो का कोई भरोसा नही ।
सबके जीवन में संयम प्रगट हो, सबका कल्याण हो, सार बच्चे संस्कारित होकर जैनत्व का झण्डा पन्चम काल के अंत तक ले जाये इन्हीं शुभ भावनाओं के साथ……

चंदन जैसे जीवन को हमने, कोयला बनाकर जला डाला ।
मानव जीवन पाकर के भी हमने इसे बर्बाद कर डाला ॥
भोगों को बहुत भोगा तुमने, अब संयम की ओर चलो ।
एक बार संयम धारण कर, अपना मानव जीवन सफल करो ॥
अंत में प. पू. १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी, प. पू. १०८ आचार्य श्री वर्धमानसागर जी को एवम सभी गुरूओं को मेरा शत शत नमन वंदन,
नमोस्तुऽ नमोस्तुऽ नमोस्तुऽ

शिरगुप्पी चातुर्मास
१९-०९-२०२२

अनगार अजय सागर
शिष्य –
प. पू. १०८ आचार्य श्री वर्धमानसागरजी(दक्षिण)

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