loader image
Close
  • Home
  • About
  • Contact
  • Home
  • About
  • Contact
Facebook Instagram

नया नजरिया

नया नजरिया-; 21से40

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

(२१)

ताकत तो ताँकती रहती है हमें
दे करके अपना बेशकीमती समय
बस उसे हम ही नहीं देख पाते
और अब आप ही बतलाईये
कितनी देर तक टिकते हैं
इक-तरफा प्रेम के नाते

(२२)

अपनी जिन्दगी से
पापा के लिये तो छोड़िये
शब्द पापा में से
भले पीछे से
कुछ भी निकालियेगा
‘पाप’ हुये बिना न रहेगा
सच
हम पापा के बिना रह सकते हैं
पर पापा हमारे बिना
चलती फिरती एक लाश हो चलते हैं

(२३)

माँ के लिये तो छोड़िये
शब्द ‘माँ’ में से
आगे-पीछे, ऊपर-नीचे
कुछ भी हटा दीजिये
छटा कम न होगी माँ की
छटा छटाया शब्द है माँ
आगे का ‘म’ हटने के बाद भी कहता है
आ…
सच
बेजोड़ी
माँ मोरी

(२४)

इतने मत उड़ियेगा
किसी परिन्दे ने जो गगन छुआ होगा
तो वह देख सुपन रहा होगा
हाँ…
खोती है
जमीन जरूर खोती है
दूसरी पाठशाला की
दूसरी कक्षा का एक मुहावरा है
पैरों तले जमीन खिसक चलना
रे मन ! इतना क्यूँ उड़‌ना

(२५)

शब्द सा…हस ही कह रहा है
‘सा’ मतलब ‘वह’ लोगबाग,
पहले आपके ऊपर हँसेंगे
यदि आप डटे रहे
मंजिल की तरफ मुख करके अपना
तो पूर्ण होते-होते सपना
यही लोगबाग साह…सा
आप के लिये शहंशाह जैसा कहेंगे

(२६)

सुनते हैं
मेहनत रंग लाती है
वो भगवत् कृपा रूपी रंग
बरस रहा है
लगा करके तार
लगातार
रे ! मन बॅंधे हुए
अपने हाथ तो खोल
जर्रा टटोल
रही कमी किसकी
हमारी या उसकी

(२७)

बुजदिली दिखाई
‘के दिल रूपी दीया
दिया बुझता दिखाई
साहस रखिये
हारने से पहले हार माने वाला
चलती-फिरती लाश के जैसा है
मतलब जिन्दादिली जिन्दगी है
और बुजदिली मौत

(२८)

खूब जानती है चींटी
चढ़ने के साथ ‘गिर’ का
पंछी पंख जैसा रिश्ता है
गिर मतलब पर्वत
और गिरने के लिये भी
गिर कहते है
तभी तो वह गिर
फिर गिर
उठ करके धूल-बूल झड़ा
चढ़ने तैयार फिर
और एक हम हैं
जो चढ़ना तो दूर रहा
चलने से पहले ही
पकड़ते हैं अपना सिर

(२९)

बचपन में
दीवार या फिर पेड़-झाड़ की ओट लेकर
माँ अई…ता कहती थी
बस थोड़ा सा डटे तो रहिये
बढ़े हुये अपने कदम लौटाईये तो मत
कहेगी ‘ता’
जीत कहेगी ‘ता’
भाई शब्द ही कह रहा है
‘जी’ मतलब अ’जि
‘ता’ मतलब अई…ता

(३०)

सांझ से ही रात भर अंधेरा रहता है
कभी दल बादल ढ़क लेता है
तो सूरज को
कभी राहु ग्रस लेता है
काँच से क्या मतलब ?
भले बड़े से बड़ा हो

सुन
अय ! मेरे मन
छोटी से छोटी सही
पर हीरे की किरांच बनना
अंधेरे में भी
चमचम चमकना

(३१)

‘के कल यह न कहना पड़े
मेरी अपनी ही किस्मत ने
नाक में दम करके रक्खा है
भर लीजिये
अपने पैरों में दम भर लीजिये
और दिखला दीजिये
‘के हम भी किसी से कम नहीं

(३२)

नफरत
विष बेल जो है
फ़ौरन ही बढ़ जाती है
जिस किसी के हाथ से
जब कभी काट दी जाती है
चूंकि न… फरत
ऐसा देख सुनकर के
चलिये
जी करके देखते हैं औरन हित

(३३)

चीज हाथ से फिसल गई
मतलब कमी अपनी रही
आई थी
चीज तो
अपने हाथों तक आई थी
पर अच्छे से ग्रिप न बन सकी
‘रे मन दे बतला इन अँगुलियों के लिये
ग्रिप का ही नाम राशि शब्द ग्रुप
Group
Grow…up
ग्रो….अप करने ग्रुप में रहो
अंगुली एक भी क्या ढ़ीली हुई
‘के आँख पनीली हुई

(३४)

तीज त्यौहार नहीं
हर रोज करनी पड़ती है रियाज
तब जाकर के कहीं
बनते हैं सरताज-ए-आवाज
चींटी के लिये सीढ़ी भी पहाड़ है
और उन्हें, सीढ़ी सा पहाड़ है
अपना कद ऊँचा करना आता है जिन्हें

(३५)

मानते हैं क्रोध आग है
पर फुलझड़ी मम्मी-पापा ने ही
दिलाई है बच्चे के लिये
मतलब छोटे-मोटे क्रोध को
गुस्सा नहीं कहते हैं
अब देखिये
खोटे-मोटे तो दूर रहे
थोड़े छोटे क्रोध का खाना भी
खाना पूर्ति कर रहा होगा
जो हमें गुस्सैल सिद्ध न कर पायेगा
बस
अब जब हम गुस्सैल हैं हीं नहीं
तो खोटे-मोटे क्रोध की भी
सेल Sale बन्द क्यूं नहीं कर देते हैं

(३६)

गुस्सा, क्रोध, नफरत
कोई चीज ही नहीं है
अंधेरे के जैसे
अच्छा बतलाईये
अंधेरा और है ही क्या ?
रोशनी के अभाव के सिवा
प्रकाश होते ही
अंधकार का अता-पता भी नहीं लगता
इसलिए आईये
क्षमा, प्रेम, स्नेह से जोड़ते हैं अपना रिश्ता

(३७)

स…मॅंझधार दुनिया
अपन तो थोड़े-बहुत समझदार रहियेगा
नैय्या पार लग जायेगी
ज्यादा समझदारी तो
बनकर के भार रह जायेगी
वैसे कुछ ज्यादा है नहीं पढ़ाई
सिवाय अक्षर ढ़ाई
प्रेम के
क्षमा के
आत्मा के

(३८)

दिन भर में कितना गुस्सा किया
कभी इसका हिसाब-किताब तो लगाईये
हो सकता है एक अरसा होने के लिए हो
और हमनें बड़ा भारी क्रोध किया ही न हो
शायद हमारे मन में
गुस्से से भरे शेर की दहाड़
घर कर गई हो
जो ऐसा कहने में
‘के मुझे बहुत तेज गुस्सा आता है
शेर होने का एहसास कराती हो

(३९)

‘रे मन पता है
गुस्सा करते ही
कुछ गुच सा जाता है
जो सुख के गुब्बारे में छेद कर आता है
तुरत-फुरत भी रिपेयरिंग करने के
बावजूद भी
वो सुख के पल
जो हमें हमारे भगवान् ने
किरपा बरसा करके दिये थे
उनमें से ढ़ेर सारे पल तो
शैतान की इबादत करते हु‌ये
गुजर जाते हैं
जाने हम बार-बार
वही ठोकर खाने के बाद भी
क्यूँ नहीं संभल पाते हैं

(४०)

धंदा-पानी
वैसे शब्द तो था धंधा
लेकिन ऐसी साख बना करके रक्खी है
‘के खूब धन
‘द’ यानि ‘कि दिया है
इसलिये तो
लोगों के मुख से जुबां फिसल कर के
नया नामकरण हो चला है
धंदा-पानी
बस शब्द पानी
पीछे इसलिये लगा करके रक्खा है
‘के इतनी मेहनत जुटा लो एक बार
जितनी जमीन से
पानी पाने में करनी पड़ती है
फिर शब्द पलट करके
धंदा-पानी
पानी-धन्…दा
मतलब पानी सा धन झिर पड़ेगा

Sharing is caring!

  • Facebook
  • Twitter
  • LinkedIn
  • Email
  • Print

Leave A Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

*


© Copyright 2021 . Design & Deployment by : Coder Point

© Copyright 2021 . Design & Deployment by : Coder Point