सवाल
आचार्य भगवन् !
फलाने का बुरा हो जाये,
फलाने का अच्छा हो जाये,
ऐसा मन जब-तब सोचता रहता है
भला सोचने में हो ठीक है
पर बुरा सोचते ही,
मन अपराध बोध से भर जाता है
पत्थर दिल नहीं,
नर्म दिल इन्सान जो ठहरा
जाने कैसे पूर्व के संस्कार है जो जाते ही नहीं
अपने मन को कैसे रोकूँ
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
अपने कब
जब उसके हाथ में
‘उसका बुरा-भला’
फिर क्यूँ सोचा करते हम बात-बात में,
हा ! हाय !
फिर लगता हाथ अफसोस
पर अब क्या ?
लो आँसू पोंछ
दो दिन की जिंदगी में,
पहला दिन गुजरा,
आ…चुनते
सुनते…
दिन ‘दूसरा’
सुनो,
सुनते हैं,
सफेद कागज पर सफेद स्याही से
जिसमें अनलिखा लिखा होता है,
ऐसी कोरी किताब भी होती है
खाली समय में उसे पढ़ा करो ना
और मुख रूप घर के,
होंठ रूप दरवाजे पर,
अर्गल यानि ‘कि सांकल
चढ़ा कर रक्खो
अनर्गल प्रलाप के झाँसे में क्यों आते हो
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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