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चुन'री लाडो ओढ़नी

चुन’री लाडो ओढ़नी-;21से30

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

(२१)

‘मुझसे हाई… को ?’

*कपड़े नौका
दे सकता
छोटा सा भी छेद धोखा*

‘मेरे साथ क…वीता’

*कहते हैं खुद बखुद
खतरे
मैंने तो भिजाये थे
खत ‘रे
लेकिन शायद तूने ही
‘ख’ यानि’ कि आकाश से कहा
‘तिरे’
मतलब हवा में तैराये
ये जानते हुऐ भी
‘के जनम का
पहला और आखरी अक्षर
जम को साथ लिये धरती पर आये*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक बच्चा
बड़े शहर से पढ़ कर आया,
अर्थशास्त्र का तलस्पर्शी ज्ञान रखता था
उसके पिता जी मल्लाह थे
बड़ी मेहनत करके
उसे इस मुकाम तक
ले करके आये थे वह
आज वह भी अपने पिता जी के साथ
नदी पर आया हुआ था
उसने देखा नदी पार करने वालों की
एक लम्बी कतार लगी है,
ढेर सारे नाविक हैं
जो जल्दी जल्दी सवारिंयों को
अपनी नाव में बैठने के लिए
बुला रहे है
लेकिन ये क्या ?
बच्चे के पिता ने,
आईं हुईं सवारिंयों को
कुछ देर रुकने के लिए कहा
यदि वह नहीं रुकीं
तो बगैर विकल्प किये
देर तक,
वह नाव जो नदी के किनारे थी,
अपने गीले होने की परवाह किए बिना ही,
नाव को पूरा उलट पलट कर देखा,
एक बार ही नहीं,
तीन तीन बार
अब तो बच्चे से रहा नहीं गया
वह बोला पापा
हमें तो घाटा हो जायेगा
जल्दी करो,
वह देखो दूसरे नाविंकों की नावें
भरकर चलने भी लगीं हैं,
पर पापा ने कहा बेटा
दूसरों की जान से खेलना,
हमें न सिखाया मां ने
एक भी छेद रह गया तो,
गंगा मैय्या हमें माफ नहीं करेंगी*

‘मैं सिख… लाती’

*बिना आईना देखे चल जायेगा
लेकिन घर से निकलते वक्त
एक स्टेफिनी तो जरुरी हैं
भली देर,
दुर्घटना तो कर देती है ढेर*

(२२)

‘मुझसे हाई… को ?’

*खुदबखुद कह रही
‘ओढ़नी’
न ‘कि छोड़नी*

‘मेरे साथ क…वीता’

*ला.. ला और दिखा
या फिर राख नाक
झुका कर आँख
उवाच् जमाना
साँच जमा… ना
कब छकता
और-और चाह ले
मुँह तकता
कहाँ तक दौड़ पायेंगे हम
साथ इसके
हाय राम ! ये तो मचला
छूने क्षितिज छोर
‘री ओढ़नी ओढ़*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक बच्ची भेड़ ने,
अपनी माँ भेड़ से कहा माँ,
देखो ना
हमारे नाम को अपने नाम में
बड़े सहेजकर रखता है भेड़िया,
माँ मैं इसके साथ दोस्ती कर लूँ
तो माँ बोलती है
बेटा,
रुक जरा
मैं तुझे कुछ और
शब्द जोड़-तोड़ के बतलाती हूँ
‘कि भेड़िया मित्र बनाने लायक है
‘कि नहीं
माँ ने कहा
‘री सुन ‘भेड़…या…मैं
हाँ हाँ…
ये बड़े खुदगर्ज हैं
हम रहेंगे
या ये बदमाश
पर बच्ची ने माँ की एक बात न मानी
और भेड़िये के साथ चल पड़ी खेलने,
भेड़िया और भेड़ खेलते-खेलते
एक घने जंगल में जा पहुँचे
और जैसे ही भूख लगी भेड़िये को
तो उसने दोस्ती को दाव पर रख करके
अपनी प्यारी दोस्त
भेड़ को धराशायी कर दिया
माँ बच्ची की खोज में वहाँ पहुँचती
‘के खेल हो चुका था
माँ भेड़ के लिए मिलीं
अपनी बच्ची भेड़ की अस्थिंयाँ बस
हा साजिश !*

‘मैं सिख… लाती’

*देखो ना स्वयं ही कहता है
शब्द
सब… द यानि ‘कि देने वाला
हमें नजर-अंदाज नहीं करना चाहिए उन्हें*

(२३)

‘मुझसे हाई… को ?’

*जँचता खूब
गैर-दुप‌ट्टे सूट
सफेद झूठ*

‘मेरे साथ क…वीता’

*दो कदम आगे जी
अँग्रेजी
पर संभल
कहीं पड़ न जाये कहना
‘के बहना
हा ! गिरे जी
होते हैं जो कड़वे
सच कह न जायें हम
‘कि है ये छुपी रुस्तम
अच्छा नाम दिया इसने फैशन
‘फेश’ न
पल बाद ढूढ़ो
तो ढूढ़ते रह जाओगे
कैसे पहचान पाओगे
है ही नहीं’ ‘फेश’
जिसे भरत के भारत ने कहा
‘मुख’
प्रमुख
सो चल, चल
अय ! पश्चिमी हवा
ले मोड़ अपना रुख*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक दादी माँ
प्रिंसीपल रहीं
उन्हें चश्मा लगाने का
बचपन से ही शौक रहा
फिर धीरे धीरे एक चश्मा
नाक पर चढ़ ही चला
और अब उन्हें बिना चश्मे के
कोई पहचान भी नहीं पाता था

सुनो, बात उन दिनों की है
जब कोरोना आया था
तब मास्क लगाना जरूरी हुआ
यह प्रिंसीपल दादी जब श्वास लेती थी
तब मास्क के कारण
वाष्प सी चश्मे के काँच पर
आ करके जमा हो जाती थी
यह प्रिंसीपल दादी परेशान हो चलीं
यदि चश्मा उतारते हैं
तो लोग पहचान नहीं पाते हैं
और कम ख्याति प्राप्त नहीं थी
खूब धाक थी उनकी
जगह जगह जाना भी पड़ता था उन्हें
वैसे सच कहूँ
पैर घर में टिकते ही नहीं थे
हओ… भौंरी थी पैरों में उनके
सो जब
कोरोना कुछ कुछ ठण्डा सा पड़‌ गया
तब इन प्रिंसीपल दादी ने
चश्मा तो नहीं उतारा
लेकिन हाँ…
चश्मे से काँच जरूर उतरवा लिये
लोगों ने पूछा
यह क्या,
बिना काँच का चश्मा
क्यों लगा रक्खा है आपने ?
तो वह बोलतीं हैं
बगैर चश्मे के
लोगबाग मुझे
मेरा हमशक्ल समझ करके
नजर-अंदाज न करें
इसलिए मैं काँच अलग करके
चश्मे को नाक पर रक्खे हूँ *

‘मैं सिख… लाती’

*न चले जोरा जोरी
न चले जोड़ा तोड़ी
सच जोड़ी बेजोड़ी*

(२४)

‘मुझसे हाई… को ?’

*धूप की माया बेअसर
पीपल छाया चुनर*

‘मेरे साथ क…वीता’

*छाहरी
न ऐसी वैसी ही
अद्भुत अनोखी भी
बतलाती
जुबाँ गुजराती
छै यानि ‘कि
है ‘हरि’
यानि ‘कि भगवत्
चिलचिलाती
‘धूप से’
आग बरसाती
मत डर अय ! परिणत
सुन ई छाहरी
चुन’री*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक माँ चिड़िया ने
तिनके-तिनके बटोर
एक सुन्दर-सा घौंसला बनाया
माँ को लग तो रहा था
‘के मेरे छोटे-छोटे से चूजे
इसमें सुरक्षित और खुश रह पायेंगे
या नहीं
तभी डाल पे बैठे बैठे
उसकी आँख लग गई
उसने सपने में देखा
चूजे कराह भर रहे हैं
क्योंकि
उनके शरीर पर अभी
तिनके की चुभन से
रक्षा करने वाले रक्षक रूप
बाल जो नहीं आ पाये हैं
तभी माँ चिड़िया की
झट से नींद खुल गई
माँ चिड़िया हवा की गति से भागी
और जाकरके सीधी
कपास के खेत में रुकी
और बटोर लाई ढेर सारी रुई
और बड़े सलीके के साथ
लगा दी अपने घौंसले के अन्दर
अब डनलप के गद्दे से
कम न था घौंसला,
अण्डे फिर चूजे आये,
माँ को एक दिन भी
चूजों की जरा सी भी
आह कराह सुनाई दी हो,
दूर दूर तक ऐसा कोई लेख ही नहीं है
माँ बड़ी खुश है
वजह रुई
बच्चों की सुरक्षा हुई
आज बच्चे
उड़ान भरने के लिए तैयार हैं*

‘मैं सिख… लाती’

*भले दश-मुख हो,
राम बाण एक ही काफी है*

(२५)

‘मुझसे हाई… को ?’

*यही लिवास आखरी
कपड़ा दो गज चुनरी*

‘मेरे साथ क…वीता’

*काफी
अपने आप में गज ही
चूँकि इससे बड़ा
दुनिया में कोई प्राणी नहीं
और तो और
ऊपर से लगा दो
दो यानि ‘कि जुग
लौकिक गणित झूठा
‘जुग’ अपने आप में अनूठा
और आखर पलटते ही
पल टिके रह जाते नयना
ग… ज
ज… ग
सो चुन’री बहना*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*यथा नाम तथा गुण ‘हंस-मत’ पिता
मरते समय अपने बच्चे के लिए
एक लकड़ी
और दो गज का एक कपड़ा
हाथों में थमा करके बोले
बेटा मरने से पहले-पहले तक
इन दोनों के दर्शन
करने के पश्चात् ही
भोजन ग्रहण करना
और… और
कुछ और कह पाते
‘के प्राण पखेरू उड़ चले
बच्चा हर रोज उस लकड़ी
और दो गज कपड़े का
दर्शन करता
लेकिन समझ नहीं पाता
‘कि पिता जी ने यह क्यों दिया है
चूँकि लकड़ी की कमी नहीं
पूरा फर्नीचर सागौन लकड़ी का है
कपड़ों की तो दुकान ही है
तभी उसके गांव से
कोई हंस-पुरुष
एक दिन गुजरे
उनके पास आकरके
उस बच्चे ने पूछा
‘कि पिता जी क्या कहना चाहते थे
तब वह महात्मा बोलते हैं
‘कि देखो
आपके पिता जी
आगे यह बतलाना चाहते थे
‘कि बेटा
हमेशा ध्यान रखना
इस कपड़े की दुकान का
सिर्फ दो गज का यह कपड़ा
कफन के रूप में
अखीर में काम आने वाला है
और चन्द लकड़िंयाँ
आपके लकड़ी हुए
इस शरीर को जला कर
खाक कर देंगीं एक दिन
इसलिये मैं मैं का आलाप मत छेड़ना
सब कुछ तू ही तू ही यह मंत्र जप
सहजो-निराकुल बनना*

‘मैं सिख… लाती’

*हमारी दो होगीं, चार होगीं
पर बुजुर्गों की
तीसरी आँख खुली रहती है
सो जानवी*

(२६)

‘मुझसे हाई… को ?’

*कोई जो दिले दरिया
‘जहां’ दोई तो चुनरिया*

‘मेरे साथ क…वीता’

*जितनी आँख दिल उतने नहीं
गिनती लाख दिल न उतने ही
चाहिये नेक दिल
जो मंजिल
दरिया-दिल इंसान
आखर दूर-दूर पढ़ने पर
कहता की शब्द
इन् सा… न
दरिया दिल इंसान
यानि ‘कि दिले-दरिया
एक, कोई दिल-नके इंसान
न सबरी
‘एक’ चुन’री*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

मैं आपका ध्यान
जिस बिन्दु पर ले जाना चाहता हूँ
वह सोच
एक माँ का दिल रखने वाला
इंसान ही रख सकता है
तो बात ऐसी है
‘के भगवान् से एक अर्से से
एक माँ ने
एक अर्जी लगाकर के रक्खी थी
‘के अय भगवन् !
मेरे इस जिस्म रूप लिवास में
एक थेगडा लगा दो
खुद की खातिर नहीं,
और के लिए
अब भगवन् क्या करें ?
भगवन् भी दिल माँ का जो रखते हैं
और अब प्रार्थना करने वाली माँ
भगवन् के सामने माँ नहीं
भगवन् का बच्चा है
और रखी गई भावना
लगती सी वरदान
लेकिन वास्तव में है अभिशाप
वह भी अपने लगते जिगर के लिए
भगवान् कैसे दे दें
लिवास में चाँद सितारे टक दो वीर !
खूब लोगों ने
थी माँग रक्खी आज तक
पर ये कैसी माँग
एक माँ अपने लिवास में
थेगड़ा लगवाना चाहती है
अब माँ ने
आँखों से जल चढ़ाना प्रारंभ कर दिया
भगवान् ने
अंजली मे झेल लिया जल
तब माँ बोली
भगवान् आपने जल हाथ में ले लिया है
अब तो आपको वरदान देना ही पड़ेगा
बस फिर क्या
भगवान् हार चले
माँ कंगारू बड़ी खुश है
अब उसका नौनिहाल
पूर्ण सुरक्षित जो है
वाह बेजोड़ी
माँ मोरी
तुझे कोटिशः प्रणाम*

‘मैं सिख… लाती’

*अपने लिए जीना
नीचे उतरने वाला जीना
अपनों के लिए जीना
ऊपर चढ़ने वाला जीना*

(२७)

‘मुझसे हाई… को ?’

*मुझे चुनरी
कह रही
खुद ही
लाडो सुन ‘री*

‘मेरे साथ क…वीता’

*सच !
दूरदर्शी बुजुर्ग
रखते ही ज्ञान तलस्-पर्शी
खूब
थे जानते बखूब
‘के हम छोड़ेंगे
इसलिये नाम ही रख दिया
ओढ़नी
और तो और
कोई न कोई राज की बात
रखती होगी जरूर अपने साथ
तभी एकार्थवाची नाम रखा
चुन’री
यानि ‘कि ओढ़नी चुनरी
अब यदि कोई न समझे
तो नासमझ नहीं
वह
कुछ ज्यादा ही समझदार है*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*सच,
शब्दों में जादू छुपा रहता है
और प्रत्येक माँ
कक्षा दूसरी जो पढ़ी रहती है
सो माँ हिरनिया के बच्चे से
कोई छोना,
कोई मृग,
कोई हिरना भले कहे,
पर माँ कहती थीं
‘छू… ना’
‘मग’
या फिर ‘हिल… ना’
धीरे धीरे समय का पहिया घूमा
बच्चा बड़ा हो चला
गुरुकुल में गुरुजी ने बताया
बेटा !
यथा नाम तथा गुण
वाक्य है
‘कहा माँ ने’
कहा माने,

तभी
मृग का यह बच्चा
जो शिष्य बनकर
आया था इस गुरुकुल में
वह बोलता है
मेरी माँ मुझे
‘छू… ना’ कहके बुलाती है
ऐसा क्यों गुरु जी ?
तब गुरु जी कहते हैं
मीठे मीठे संगीत के स्वर छू ना
लोग बड़े जालसाज रहते हैं
दाने फँसाने डालते हैं
वचना

बच्चा फिर बोलता है
और गुरु जी
‘मग’ कहके बुलाती है
ऐसा क्यों गुरु जी ?
तब गुरु जी कहते हैं
अय मृग !
धूप पड़ती है रास्ते में जो
तो
दूर जल का स्रोत दीखता है
और कुछ नहीं
भाग-भाग के
अपने प्राण मत खो देना
जंगल में दूर दूर तक
मग के सिवा कुछ नहीं रहता है
अच्छा है
घर से ज्यादा दूर मत जाया करो

बच्चा फिर बोलता है
और गुरु जी
मेरी माँ मुझे
‘हिल ना’ कहके बुलाती है
ऐसा क्यों गुरु जी ?
तब गुरु जी कहते हैं
अय हिरणा !
कस्तूरी नाभि में ही रहती है
खुशबु जितनी थी
उतनी ही है
न कम हुई दौड़ने के बाद भी
न बढ़ी ही है
तब
सो अब हिल ना
यानि ‘कि शांत खड़े हो चल
और पा ले मंजिल*

‘मैं सिख… लाती’

*मदरसा कुछ और नहीं
मदर… सा है
सो ‘कहा माने
जो ‘कहा माँ ने*

(२८)

‘मुझसे हाई… को ?’

*आ बातों में ?
क्या आना हाथों में
सुन
चुन’ री चुन*

‘मेरे साथ क…वीता’

*न किसी का अपना सगा
जमाना
अपना उल्लू सीधा करने में लगा
अच्छे-अच्छे पछताय
आ जमाने की बातों में
सति-सन्तों ने भी कष्ट उठाय
चूँकि सारा जग
साधे स्वा…रथ
और एक साथ
दो रथों की सवारी
बलिहारी
पता, देवता भी न कर पाय
जमाना..
सचमुच जमा… ना*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक पेड़ पर
कबूतर अपने साथी के साथ
बैठा हुआ था
तभी वहाँ एक बिलौटा आया
कबूतर ने पूछा अय ! मोसिया
यह नाम सार्थक करते हुए कहाँ
निकल पड़े हो
तब बिलौटा बोलता है
क्या मतलब है तुम्हारा
कबूतर ने कहा
‘कि ये मुँह क्यों सिया है
अर्थात्
यह मुँह पट्टी क्यों रख रक्खी है

तब बिलौटा कहता है
‘कि मैंने शाकाहार व्रत लिया है,
अब तुम्हें मुझसे डरने की
कोई जरूरत नहीं है
आओ, नीचे उतर आओ,
हम सभी मिल करके
कोई अच्छा सा खेल खेलते हैं

साथी कबूतर ने
कान के पास आकर
कबूतर से कहा
सुनो मित्र पर भी
जल्दी विश्वास करना अच्छा नहीं,
फिर यह तो हमारा जानी दुश्मन है
जर्रा रुको
मैं अभी इसकी परीक्षा करती हूँ

तभी
अपनी चोंच के इशारे से
साथी कबूतर ने कहा
देखो, देखो
सार्थ नाम मोसिया जी !
चूहा भागता गया अभी-अभी,
तुरंत बिलौटा
चूहे के पीछे पीछे दौड़ चला
सच
जमा… ना
दो… गला*

‘मैं सिख… लाती’

*हमें हर किसी की बातें में
नहीं आना चाहिये
विश्वास…
अमूल राश*

(२९)

‘मुझसे हाई… को ?’

*सिवा चुनरी
ठग….
सारा जग
‘री रह सजग*

‘मेरे साथ क…वीता’

*जमा… ना
जाने क्यों कह चला
मस्ती
‘मटर’
मटर-गस्ती करते हैं
पर क्या ? देखा नहीं
एक साथ
कितने रहते हैं
हा!
हम तो ‘अकेले’
आपस में
एक-दूजे से तने रहते हैं
एक से भले दो

सुनो
कह रही
खुदबखुद ही
चुन’ री

यदि कहते हो
है चुनना जिसे, वह कौन पहला
तो आप स्वयं ही
और अगला
अपना हमराही
उसे चुनो*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

बड़ी परेशान है टिटहरी,
माँ बनने वाली जो है
सिर्फ एक इसके अलावा
कौन है वह,
जो इस स्वार्थी दुनिया में
हो अण्डे का कुछ अच्छा सोचने वाला

खेत की मिट्टी में
कुछ कंकर बटोर लाई है,
‘कि हवा पानी से ही बचा सके अपने
जिगर के टुकड़ों के लिए

और दे दिये माँ ने अण्डे
अब माँ टिटहरी किस किस से छुपाये
किस किस से बचाये
माँ एक
अण्डे तीन
बैठ चली अण्डों पर
‘के हैं जिनके काले मनसूबे
वे नजर न डाल पायें
बस इसीलिए
पल भर भी नहीं उठ रही है
अपने किसी जरूरी काम से भी

ताँक-झाँक करता वह कौआ
जो कहलाता तो शगुन का है
मगर गन लिये फिरता है
चोंच से अण्डे फोड़कर
एक ही सरुटे में
अण्डा खाली मिलता है

आस पास ही है वह नागिन
ममता लजा
अपनी कूख से पेट नहीं भरा
जो दूसरों की गोद उजाड़ने बढ़ चली
भले अँगूठे भर मोटी हो
पर मुट्टी भर अण्डा
मुख फैलाकर
साबुत की निगलने मचल पड़ती है

और आ कर खड़े हुए हैं
लग कतार
सूँघते सूँघते यह खूँखार कुत्ते
माँ कैसे बचाये
पर जब तक माँ है
इन शैतानों की
इन हैवानों की
न गली
न कभी दाल गलेगी
भले माँ अकेली

‘मैं सिख… लाती’

*दुनिया तो दूनिया जैसी
दो एकम् दो
के बाद
दो दूनी कहते ही
छलाँग भरती है
तीन के लिए छोड़
सीधे चार छूने बढ़ती है*

(३०)

‘मुझसे हाई… को ?’

*तट उलाँघ चाहे बहना
नदी अच्छी वह ना*

‘मेरे साथ क…वीता’

सरिते !
सरकती चालो
मंजिल पालो
किसने किया मना
पर किनार से चलना
‘के नार से चलना
फूँक फूँक के रखना कदम
हरदम
घूँघट रूप ‘आई’ लगाम लेकर
जल्दी-जल्दी जो फिसलती नजर
देखा नहीं घोड़ी को
लगाई जाती ‘आई’ लगाम
जैसी ही मंजिल की तरफ दौड़ी वो*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक मछली ने आज
थोड़ा सा मुँह बाहर निकाला
अब तक
पानी में ही रहती थी वह
उसे बड़ा अच्छा लगता है
फिर ?
फिर क्या
मछली
फिर उछली,
और झट पानी में आ गयी,
फिर के उछली,
और झटपट पानी में आ गयी,
अब तो खेल सा हो गया
पल पानी में
अगले ही पल
खुले आसमान में रहती मछली
वह एक दिन
मन ही मन
सोचती है

हाय राम !
जाने क्यों ?
सोचते हैं लोगबाग मनमाना

‘के
अब मैं पानी की ही अकेली नहीं रही
पृथ्वी की भी हो चली हूँ
अब मुझे पानी में
घुटन सी महसूस होती है

मैं आज किनारे पर जाकर
पानी से बाहर आकर
खूब मस्ती करुँगीं

हा !
जल से बाहर तो मछली आ गयी
पर ये क्या ?
थिरक रही हैं अपने पैरों पर
या फिर छटपटा रही है
अरे ! लहर जल्दी आओ,
कोई बचाओ इसे
मगर मछली किसी को बतला के
जो नहीं आई थी
कौन आता बचाने
प्राण पखेरु उड़ चले मछली के*

‘मैं सिख… लाती’

*मानी चाल भली
पर मन चालें भी चलता
अच्छी न मनमानी
‘भई मनजीत
कई रणजीत’*

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