राग जीता द्वेष जीता,
जान लीना जग सभी ।
वचन जिनके वेद गीता,
ज्ञान दीना निस्पृही ।।
बुध्द, हरि-हर, वीर, ब्रह्मा,
या जिसे जिनवर कहो ।
भक्ति धारा में उसी की,
अय ! मिरे मन तुम बहो ।।१।।
भोग विषयों की न आशा,
पास समता धन रखें ।
जो स्वपर हित साधना में,
हमेशा तत्पर दिखें ।।
जप जपा स्वारथ बिना,
बिन खेद जिनने तप तपा ।।
वे साधु बरसाते रहें,
मुझ पर सदा अपनी कृपा ।।२।।
नित करूँ सत्संग उनका,
ध्यान उनका ही रखूॅं ।
पाल कर उन भाँति चर्या,
पार भव सागर दिखूॅं ।।
सताऊँ ना जीव कोई,
झूठ ना बोला करूॅं ।
लुभाऊँ ना नार ‘पर’ धन,
लोभ लिप्सा परिहरूॅं ।।३।।
कर चलूँ ना क्रोध जब तब,
भाव-मान समेट लूॅं ।
देख बढ़ती दूसरों की,
भाव-ईर्ष्या मेंट लूँ ।।
सरल सत् व्यवहार राखूँ,
यही मेरी भावना ।
सामने हों अगर अपने,
लगा चालूॅं दाब ना ।।४।।
जगत् जितने जीव उनसे,
मित्रता मेरी रहे ।
दीन दुखियों पर हमारे,
हृदय से करुणा बहे ।।
रत कुमारग देख दुर्जन,
क्षोभ नहीं आवे कदा ।
हृदय मेरे प्रेम उमड़े,
देख गुणियों को सदा ।।५।।
किया जो उपकार पर ने,
उसे ना भूलूँ कभी ।।
किया जो उपकार मैंने,
भूल चालूँ वह अभी ।।
वृद्ध सेवा से कभी भी,
लूॅं न अपना जी चुरा ।
गुने गुन लूँ गुण भले पर,
दोष रखना दृग् बुरा ।।६।।
कहे अच्छा या बुरा जग,
आ चले, धन या चले ।
शरद् शत देखूॅं भले या,
ले लगा मृत्यू गले ।।
लोभ दे, कोई लुभाये,
या डराये भय दिखा ।
न्याय मग से पग हमारा,
हो न यूँ अब-तब डिगा ।।७।।
मगन ना फूलूॅं सुखी हो,
हो दुखी घबड़ाउॅं ना ।
नदी, पर्वत, खेत, मरघट,
वन सघन भय खाउँ ना ।।
मन हमारा रहे दृढ़-तर,
अटल, अचल सुमेर सा ।
कुछ कहे ना बस सहे सब,
एक दिन पा ले दिशा ।।८।।
गान मंगल नित नये हों,
जीव सब होवें सुखी ।
रहे घर-घर धर्म चर्चा,
हो विकास चतुर्मुखी ।।
ईति ना व्यापें ना भीति,
समय पर जल झिर लगे ।
शांति से जीवे प्रजा-
दुर्भिक्ष, रोग मरी भगे ।।९।।
नृप अहिंसा धर्म पाले,
पक्ष लेवे न्याय का ।
देश प्रतिभा…रत बने,
सम्मान कर मॉं गाय का ।।
पा चलूॅं बोधी समाधी,
विशुद्धी परिणाम की ।
रहे दूरी अब न ज्यादा,
‘निरा-कुल’ शिव धाम की ।।१०।।
राग जीता, द्वेष जीता ।
वचन जिसके वेद गीता ।।
ब्रह्म, हरि-हर, बुद्ध, वीरा ।
नुति उसे ले नयन नीरा ।।१।।
दूर ममता, पूर समता ।
हित स्वपर साधन सु-दृढ़ता ।।
खेद बिन तप तपें भारी ।
साधु मेंटे पीर म्हारी ।।२।।
रहे नित सत्संग उनका ।
पड़े फीका रंग धन का ।।
छोड़ हिंसा, झूठ छोडूॅं ।
नार ‘पर’ धन दृग् न जोडूॅं ।।३।।
मान तज, तज क्रोध भावा ।
भाव ईर्ष्या कर अभावा ।।
सरल सत् व्यवहार राखूँ ।
दृष्टि ना अधिकार राखूँ ।।४।।
मित्र होवे जगत् सारा ।
दीन पावे अश्रु-धारा ।।
दुर्जनन तज क्षोभ करना ।
भाव रक्खूॅं साम्य अपना ।।५।।
प्रेम गुणि-जन उमड़ आवे ।
सेव कर मन सौख्य पावे ।।
द्रोह तज, किर-तज्ञ होऊँ ।
गुण गहूँ, दृग्-दोष खोऊॅं ।।६।।
ले करज या हरष जीऊॅं ।
मरूॅं या लख बरस जीऊॅं ।।
लोभ दे कोई डरावे ।
न्याय-पथ मन डिग न पावे ।।७।।
सुख न फूलूँ, दुख न रो लूँ ।
वन, मशान न दृग् भिंजोलूॅं ।।
बने मन दृढ़-तर अडोला ।
ओढ़ वैसा तजूॅं चोला ।।८।।
ईति खोवे, भीति खोवे ।
समय पर जल वृष्टि होवे ।।
रखे राजा धर्म निष्ठा ।
न्याय कर पावे प्रतिष्ठा ।।९।।
सुख मगन हों जीव सारे ।
छिड़े मंगल गान न्यारे ।।
रहे घर-घर धर्म चर्चा ।
रहे चारित ज्ञान अर्चा ।।१०।।
दया, करुणा धर्म फैले ।
बाद जीवन, देश पहले ।।
सन्त बन अरिहन्त होऊॅं ।
सुख ‘निरा-कुल’ बीज बोऊॅं ।।११।।
जीते राग-द्वेष मद माया ।
निस्पृह मोक्ष-मार्ग दिखलाया ।।
हरि, हर, ब्रह्म, कहो या वीरा ।
नमन उसे नित, उड़ा अबीरा ।।१।।
धन-समता, विषयाशा त्यागी ।
हित कल्याण स्वपर अनुरागी ।।
वर्षा, शीत, ग्रीष्म तप तपते ।
साधु-सन्त वे दुख अपहरते ।।२।।
सदा करूॅं सत्संगति उनकी ।
तिष्णा बढ़ी, घटाऊँ धन की ।।
बनूँ अहिंसक सत्य पुजारी ।
आँख न राखूॅं धन ‘पर’ नारी ।।३।।
तजूँ क्रोध, तज दूँ अभिमाना ।
बढ़ी और क्या रेख मिटाना ।।
राखूँ सरल सत्य व्यवहारा ।
बनती कोशिश बनूँ सहारा ।।४।।
रहे मित्रता मेरी सबसे ।
दीन देख दृग् धारा बरसे ।।
दुर्गुन ऊपर रीझ न जाऊॅं ।
दुर्जन ऊपर खींझ न आऊॅं ।।५।।
उमड़े प्रेम देख गुणवाना ।
सेवा गुणि-जन सौख्य निधाना ।
बनूॅं कृतघ्नी, होय न ऐसा ।
भाव रखूॅं गुण ग्रहण हमेशा ।।६।।
जिऊँ और, या स्वर्ग सिधारूॅं ।
फटे हाल या पगड़ी धारूॅं ।।
कोई भय या लोभ दिखावे ।
पग मग-न्याय न डिगने पावे ।।७।।
सुख में हँसूॅं, न दुख में रोऊॅं ।
भय खाऊॅं ‘ना’ आपा खोऊॅं ।।
मन दृढ़-तर बन चले अडोला ।
दूॅं उतार ज्यों का त्यों चोला ।।८।।
ईति, भीति माया अपकर्षे ।
समय समय पर पानी बरसे ।।
धर्म निष्ट हो नृप आदर्शा ।
न्याय प्रजा पा जाये सहसा ।।९।।
सुखी रहें जेते सब प्राणी ।
गावें मंगल, राखें पानी ।।
घर-घर रहे धर्म की चर्चा ।
सदाचरण की होवे अर्चा ।।१०।।
परम अहिंसा धरम हमारा ।
जियो और जीने दो नारा ।।
सहज-‘निरा-कुल’ सुख हो अपना ।
और नहीं इतना बस सपना ।।११।।
मेरी भावना ।
मेरी भावना ।।
राग द्वेषना ।
धर्म देशना ।।
ब्रह्म, बुध, जिना ।
तिन्हें वन्दना ।।१।।
प्रशम ! जितमना ।
कठिन साधना ।।
खेदे के बिना ।
जयन्तु मुनि-गणा ।।२।।
कहूँ झूठ ना ।
भली लूट ना ।।
धन उपासना ।
तजूँ वासना ।।
मेरी भावना ।
मेरी भावना ।।३।।
मान हो फ़ना ।
करूँ क्रोध ना ।।
पड़ प्रपंच ना ।
तजूँ वंचना ।।
मेरी भावना ।
मेरी भावना ।।४।।
मित्र त्रिभुवना ।
दीन आपना ।।
भ्रमित दुर्जना ।।
वन्द्य गुणि-गणा ।।
मेरी भावना ।
मेरी भावना ।।५।।
दूर हो घृणा ।
रखूँ द्रोह ना ।।
बुरा कोसना ।
तकूॅं दोष ना ।।
मेरी भावना ।
मेरी भावना ।।६।।
लोभ भय घना ।
भले निर्धना ।।
तजूँ न्याय ना ।
तलक सुमरणा ।।
मेरी भावना ।
मेरी भावना ।।७।।
रात फिर दिना ।
दुख सदैव ना ।।
सुखी देव ना ।
बनूॅं दृढ़-मना ।।
मेरी भावना ।
मेरी भावना ।।८।।
रखूँ वैर ना ।
पडूॅं फेर ना ।।
शतक एक-ना ।
नृभव ना पुना ।।
मेरी भावना ।
मेरी भावना ।।९।।
बरस लें घना ।।
दे कृषि दुगना ।।
अहिंसक इना ।
स्व…स्थ परिजना ।।
मेरी भावना ।
मेरी भावना ।।१०।।
साध मुख सुना ।
धर्म जिन चुना ।।
वही सज्जना ।
‘निरा-कुल’ मना ।।११।।
वीतराग ।
‘भी’ चिराग ।।
सुगत राम ।
नित् प्रणाम ।।१।।
क्षान्त दान्त ।
मन प्रशान्त ।।
श्रमण सन्त ।
नमन नन्त ।।२।।
लेख कूट ।
तजूँ झूठ ।।
आँख पाप ।
तजूँ हाँप ।।३।।
वृत्ति श्वान ।
तजूँ मान ।।
कपट, क्रोध ।
तजूँ लोभ ।।४।।
धरा गेह ।
दीन नेह ।।
क्रूर लोग ।
क्षमा जोग ।।५।।
कुशल क्षेम ।
गुणिन प्रेम ।।
गुट गिरोह ।
तजूँ द्रोह ।।६।।
प्राण कण्ठ ।
भले कण्ट ।।
न्याय-नीत ।
रखूॅं प्रीत ।।७।।
सुख न मग्न ।
दुख न खिन्न ।।
धन ! अमोल ।
मन अडोल ।।८।।
प्रजापाल ।
हो दयाल ।।
हरे खेत ।
झरें मेघ ।।९।।
सुखी जीव ।।
हों, सदीव ।
ध्वज जहान ।
धर्म ध्यान ।।१०।।
भुला भूल ।
‘निरा-कूल’ ।।
लगे हाथ ।
कर समाध ।।११।।
राग द्वेष खो चला ।
आत्म ज्ञान हो चला ।।
बुद्ध, वीर, शंकरा ।
नुति उसे निरंतरा ।।१।।
आश द्वार यम दिखी ।
दृष्टि नासिका टिकी ।।
स्वार्थ त्याग तप तपा ।
साधु वे करें कृपा ।।२।।
जीव सताऊँ नहीं ।
जीभ लजाऊँ नहीं ।।
नार-ग़ैर-धन बुरा ।
तजूँ परिग्रह त्वरा ।।३।।
कुपित ना हुआ करूँ ।
कपट ना किया करूँ ।।
न तनिक करूँ गुमां ।
न अधिक करूँ जमा ।।४।।
मित्र जीव मात्र हो ।
दीन दया पात्र हो ।।
पात्र क्षमा दुर्जना ।
नमो नमः गुण-गणा ।।५।।
रहूँ सेव मग्न मैं ।
बनूँ न कृतघ्न मैं ।।
गुण ग्रहण करूँ सदा ।
दोष ना तकूॅं कदा ।।६।।
जिऊॅं या मरूॅं अभी ।
लोभ, भय तजूॅं सभी ।।
डिगूँ न्याय पन्थ ना ।
बुरी आत्मा वंचना ।।७।।
सुख निमग्न ना उडूॅं ।
दुख न खिन्नता जुडूॅं ।।
मन बने सुदृढ़-तरा ।
गिर सुमेर सा निरा ।।८।।
मेघ समय पर झिरे ।
खेत हों हरे भरे ।।
भूप राह से चले ।
न्याय प्रजा को मिले ।।९।।
रहें जीव सब सुखी ।
कोई ना रहे दुखी ।।
सभी चरित से जुड़ें ।
धर्म की धुने छिड़ें ।।१०।।
देश करें उन्नती ।
याद शेष हो अती ।।
व्रती ‘निरा-कुल’ रहें ।
‘ओं न-मा-सि-धम’ कहें ।।११।।
राग द्वेष नाहीं ।
जाग देश राही ।।
ब्रह्म, वीर, बुद्धा ।
तिस प्रति मम श्रद्धा ।।१।।
धन ! समता-धारी ।
इक-परोपकारी ।।
दुर्धर तप तपते ।
मुनि वे दुख हरते ।।२।।
पर-तिय दृग् जोरी ।
तजूॅं झूठ, चोरी ।।
परिग्रह गिरहन सा ।
तजूँ पाप हिंसा ।।३।।
क्रोध, बोध-मेंटे ।
लोभ, क्षोभ-भेंटे ।।
मद, मायाचारी ।
वशि बाजी हारी ।।४।।
मित्र जगत् तीना ।
दया पात्र दीना ।।
दुर्जन पात्र क्षमा ।
गुणि-जन नमो नमा ।।५।।
बनूँ ना कृतघ्नी ।
बचूॅं द्रोह अगनी ।
हंस बुद्ध राखूॅं ।
छिद्र नाहिं ताकूॅं ।।६।।
पन्थ न्याय-नीती ।
तजूँ ना, खा भीती ।
क्षितिज छोर तृष्णा ।
थम भी मन हिरणा ।।७।।
सुख, ना इठलाऊॅं ।
दुख, ना घबड़ाऊॅं ।।
बालक वत् भोला ।
रहे मन अडोला ।।८।।
धन ! धन कहलाये ।
फसल लहर खाये ।।
न्याय-नीति महके ।
नृप न प्रजा बहके ।।९।।
रहें सुखी प्राणी ।
हो मिसरी वाणी ।।
सतत् धर्म-चर्चा ।
रहे चरित अर्चा ।।१०।।
देश प्रेम जागे ।
सत्य रहे आगे ।।
कभी न व्याकुल हों ।
सभी ‘निरा-कुल’ हों ।।११।।
अभिजित राग, द्वेष, मद काम ।
उपदेशक मग दिव-शिव धाम ।।
ब्रह्मा, रुद्र, कहो या राम ।
भक्ति भाव से उसे प्रणाम ।।१।।
जिन्हें न विषयों की अभिलाष ।
समता धन रखते नित पास ।।
खेद बिना तप, जप वनवास ।
साधु करें वे, दुक्ख विनाश ।।२।।
दुक्ख न दूँ, समझूॅं पर पीर ।
झूठ न बोलूॅं, बो लूँ धीर ।।
ग्रह परिग्रह प्रतिफल दृग् नीर ।
धन ‘पर’ नार तजूँ, बन वीर ।।३।।
ईष्या तजूॅं देख निधि अन्य ।
रखूँ सरल व्यवहार अनन्य ।।
मद क्या करना ? कर्मज पुण्य ।
तजूँ क्रोध, भव करने धन्य ।।४।।
उमड़े प्रेम देख गुणवान ।
विश्व रहे बन मित्र प्रधान ।।
दुर्जन क्षमादान इक थान ।
करुणा पात्र दीन-नादान ।।५।।
साधूॅं सेव साध, जिन भाख ।
छिद्रों पर राखूँ ना आँख ।।
राखूँ बन कृतज्ञ कुल नाक ।
गुने गुनूॅं गुन कमती लाख ।।६।।
जिऊॅं लाख या वर्ष करोड़ ।
या फिर अभी कफन लूँ ओढ़ ।।
भय या लोभ भले बेजोड़ ।
मारग न्याय न देऊॅं छोड़ ।।७।।
सुख में बदल न चाले चाल ।
दुख में हाल न हो बेहाल ।।
खाऊँ भीति न वन, गिर, ताल ।
मन अडोल दृढ़ रहे विशाल ।।८।।
समय-समय लागे जल-धार ।
‘पर’ न ईतियॉं पाएं मार ।।
मूरत न्याय कृपाल-दयाल ।
निरपत होवे पिरजा-पाल ।।९।।
घर-घर चर्चा वेद, पुरान ।
उर-उर अर्चा हो सद्-ध्यान ।।
पायें जन-जन सुख वरदान ।
दुख का रहे न नाम निशान ।।१०।।
धर्म अहिंसा ध्वज ले हाथ ।
उन्नत बने देश दिन रात ।।
व्रत परि-पालन, अन्त समाध ।
झिरे ‘निरा-कुल’ सौख्य अबाध ।।१२।।
=दोहा=
राग-द्वेष अरि जीत के,
जाना आतम राम ।
जिन ! हरि ! हर ! परमात्मा !
सविनय तिन्हें प्रणाम ।।१।।
विषयों की आशा नहीं,
साम्य भाव धनवान् ।
साध दिगम्बर वन्दना,
चल मूरत भगवान् ।।२।।
हिंसा छोडूॅं, झूठ भी,
पिऊँ अमृत संतोष ।
भली न, छोडूॅं लूट भी,
धरूॅं शील रख होश ।।३।।
किया करूॅं न क्रोध मैं,
तजूँ भाव ममकार ।
किया करूॅं न लोभ मैं,
रखूँ सरल व्यवहार ।।४।।
रखूँ सभी से मित्रता,
क्षम्य पन्थ-विपरीत ।
दया दीन-दुखियन रखूँ,
लख गुण बनूॅं विनीत ।।५।।
होऊॅं नहीं कृतघ्न मैं,
करूॅं वृद्ध-जन सेव ।
दृष्टि न दोषों पर रखूॅं,
सद्-गुण गहूँ सदैव ।।६।।
लाखों वर्षों तक जिऊॅं,
आ यम या धमकाय ।
भय खा, या बन लालची,
डिगूॅं न मारग न्याय ।।७।।
सुख में ना उड़ने लगूँ,
दुख में उठूॅं न काँप ।
मन अडोल दृढ़तर बने,
‘हूॅं सहिष्णु’ जप जाप ।।८।।
वृष्टि समय पर हो चले,
फैले ना दुर्भिक्ष ।
धर्म निष्ठ राजा रहे,
रखे न्याय का पक्ष ।।९।।
घबड़ावे कोई नहीं,
सुखी रहें सब जीव ।
चर्चा हो सद्-धर्म की,
जगे आचरण दीव ।।१०।।
सह लूँ दुख संकट सभी,
वस्तु स्वरुप विचार ।
सहज-‘निरा-कुल’ जा लगूॅं,
भव सागर उस पार ।।११।।
जीत के राग द्वेष, मद काम ।
दिखाया मार्ग स्वर्ग शिव धाम ।।
कहो शंकर ब्रह्मा या राम ।
उसे श्रद्धा के साथ प्रमाण ।।१।।
कभी न विषय-भोग की बात ।
भाव समता धन रखते साथ ।।
तपस्या बिना खेद, बिन स्वार्थ ।
हरें दुख सभी, दिगम्बर साध ।।२।।
किसे ना प्यारे अपने प्राण ? ।
नार-पर माता, बहिन समान ।।
करूँ संतोषामृत नित पान ।
झूठ तज लूट, न दूर विमान ।।३।।
तजूॅं ईर्ष्या लख और विभूत ।
सरल व्यवहार भजूॅं तज कूट ।।
क्रोध निज स्वभाव सुफेद झूठ ।
तजे मद, चले अमृत झिर फूट ।।४।।
देखते ही गुण उमड़े प्रीत ।
क्षमा इक पातर मति-विपरीत ।।
रहें सब जीव जगत के मीत ।
दीन प्रति दया भावना नीत ।।५।।
भूल ना जाऊँ कृत उपकार ।
आमदन सेवा वृद्ध अपार ।।
छिद्र पर करूँ न आंखें चार ।
गुने गुन गुनूॅं वगैर लगार ।।६।।
चले ना डिग पग न्यायिक पन्थ ।
जी चलूॅं चाहे वर्ष अनन्त ।।
भले आ चले अभी भव अन्त ।
लोभ या लालच भले दुरन्त ।।७।।
उठा चालूॅं न सुख में ग्रीव ।
हिले दुख में भव महल न नींव ।।
रहे मन दृढ़-तर अटल सदीव ।
जगे उर सहनशील मण-दीव ।।८।।
समय पर होय अमृत बरसात ।
पजे दिन दूना, चौगुन रात ।।
अहिंसा धर्म निष्ठ सम्राट ।
प्रजा का करे न्याय निर्बाध ।।९।।
जीव सब पायें सुख वरदान ।
न घबड़ा, गायें मंगल-गान ।।
रहे चर्चा घर-घर संज्ञान ।
रहे अर्चा घर-घर सद्-ध्यान ।।१०।।
सहूॅं दुख वस्तु स्वरूप विचार ।
समुन्नत हो मॉं भारत भाल ।।
समाधी साधूॅं तप-व्रत पाल ।
शिव ‘निरा-कुल’ सुख खोलूॅं द्वार ।।११।।
खो राग-द्वेष, उपदेश दिया ।
वह जिसे पूर्व स्वयमेव जिया ।।
शिव, ब्रह्म, बुद्ध या कहो राम ।
मन वचन काय पूर्वक प्रणाम ।।१।।
विषयाश नहीं, धन साम्य रखें ।
हित स्वपर साधते नित्य दिखें ।।
जप बिना खेद, तप बिना स्वार्थ ।।
भव पीर हरे वे सन्त साध ।।२।।
दृग् धन ‘पर’ नार न छुआ करूॅं ।
नित संतोषामृत पिया करूॅं ।।
मैं आऊँ कभी न झूठ बोल ।
व्रत भजूँ अहिंसा इक अमोल ।।३।।
रख स्वाभिमान, ममकार तजूॅं ।
रह सहजो, मायाचार तजूॅं ।।
मैं करूँ किसी पर नहीं क्रोध ।
रत लोभ, न खोऊॅं आत्मबोध ।।४।।
सब जन से मैत्री भाव रखूँ ।
जन दुर्जन पर सद्-भाव रखूॅं ।।
गुण देख उमड़ने लगे प्रेम ।
लूँ पूछ दीन-जन कुशल क्षेम ।।५।।
मैं होऊॅं नहीं कृतघ्न कभी ।
लूँ सेवा अवसर लाभ सभी ।।
मैं दोषों पर ना रखूॅं आँख ।
गुण बनती कोशिश रखूॅं राख ।।६।।
लख वर्ष जिऊॅं, या आज मरूॅं ।
बेहाल हाल या ताज धरूॅं ।।
वश-भूत किसी भी लोभ, भीत ।
पग डिगे न मारग न्याय-नीत ।।७।।
ना होके सुख में मग्न उडूॅं ।
ना दुख में पाके विघ्न डरूॅं ।
मन दृढ़-तर बन जावे विशाल ।
ना भय खावे अटवी कराल ।।८।।
आ समय-समय झिर मेघ लगे ।
पग उलट मरी दुर्भिक्ष भगे ।।
हो धर्म निष्ठ राजा दयाल ।
पा न्याय प्रजा होवे निहाल ।।९।।
ना घबड़ाएं, न दुखी रहें ।
सब जीव जगत् के सुखी रहें ।।
हो चर्चा घर-घर वेद-चार ।
हो अर्चा उर-उर सदाचार ।।१०।।
जग वस्तु स्वरूप विचार करे ।
सह दुख संकट भव पार करे ।।
सुख सहज-‘निरा-कुल’ वहाँ डूब ।
आना न जहां से, कहाँ ऊब ? ।।११।।
द्वेष जीता ना किसने ।
राग भी जीता जिसने ।।
बुद्ध, शिव, विष्णु, विधाता ।
उसे मैं शीश नवाता ।।१।।
आश विषयों की छूटी ।
धार रस समता फूटी ।।
खेद बिन जप-तप करते ।
साधु वे संकट हरते ।।२।।
किसी का दिल न दुखाऊँ ।
नार ‘पर’ धन न लुभाऊँ ।।
पिऊॅं संतोष सुधा मैं ।
झूठ से रहूँ जुदा मैं ।।३।।
किसी पर कुपित न होऊॅं ।
कपट के बीज न बोऊॅं ।।
करूँ ईर्ष्या न किसी से ।
मान तज, बचूॅं हॅंसी से ।।४।।
मित्र होवे जग सारा ।
दीन पावे दृग् धारा ।।
देख गुण उमड़े प्रेमा ।
कीच बिच दुर्जन हेमा ।।५।।
करूॅं वृद्धों की सेवा ।
कृतघ्नी पार न खेवा ।।
गुने गुन गुनूॅं सदा ही ।
दोष न चुनूॅं कदापि ।।६।।
छुड़ाऊॅं छक्के यम के ।
या अभी यम आ धमके ।।
लोभ या भय भरमाया ।
चलूँ ना डिग, मग न्याया ।।७।।
देख सुख इठलाऊॅं ना ।
देख दुख घबड़ाऊॅं ना ।।
डरे न गिरि, वन आदी ।
बने मन दृढ़ फौलादी ।।८।।
समय से होवे वृष्टी ।
फले वा फूले सृष्टी ।।
नृप दया ध्वज ले चाले ।
प्रजा बच्चों सी पाले ।।९।।
हेत कस्तूर न दौड़ें ।
जीव सुख पुण्य बटोरें ।।
धर्म चर्चा हो जग में ।।
लगें सब संयम मग में ।।१०।।
देश प्रतिभा…रत होवे ।
धरोहर सत्य न खोवे ।।
‘निरा-कुल’ सुख रख आशा ।
रखूॅं अब-तब दृग् नाशा ।।११।।
नहीं यह भावना मेरी ।
दुखाऊॅं दिल किसी का मैं ।।
चुराऊँ दिल सभी का मैं ।
यही है भावना मेरी ।।१।।
नहीं यह भावना मेरी ।
बोलने झूठ मुॅंह बाऊॅं ।।
सत्य कड़वा न कह आऊॅं ।
यही है भावना मेरी ।।२।।
नहीं यह भावना मेरी ।
उठा रख लूँ चीज़ औरन ।।
संभालूँ, चीख सुन फौरन ।
यही है भावना मेरी ।।३।।
नहीं यह भावना मेरी ।
पराई नार दृग् जोडूॅं ।।
बुरा देखूॅं, पलक ओढूॅं ।
यही है भावना मेरी ।।४।।
नहीं यह भावना मेरी ।
पकड़ लूॅं राह दीमक की ।।
बढ़ चलूॅं राह दीपक की ।
यही है भावना मेरी ।।५।।
नहीं यह भावना मेरी ।
गरम हो लूॅं, बरस चालूॅं ।।
सरस बोलूॅं, रहम पालूॅं ।
यही है भावना मेरी ।।६।।
नहीं यह भावना मेरी ।
दिखाऊॅं और को नीचा ।।
उठाऊॅं धर्म ध्वज ऊंचा ।
यही है भावना मेरी ।।७।।
नहीं यह भावना मेरी ।
ले शपथ, रुख मोडूॅं अपना ।।
कपट से मुख मोडूॅं अपना ।
यही है भावना मेरी ।।८।।
नहीं यह भावना मेरी ।
हा ! वसा लूॅं गृद्धता मन ।।
थाम चालूँ वृद्ध दामन ।।
यही है भावना मेरी ।।९।।
नहीं यह भावना मेरी ।
दुखी हों जीव दृग् भर के ।।
सुखी हों जीव जग भर के ।
यही है भावना मेरी ।।१०।।
नहीं यह भावना मेरी ।
दीन बन के अश्रु ढ़ोलूॅं ।।
दीन जन पे अश्रु ढ़ोलूॅं ।
यही है भावना मेरी ।।११।
नहीं यह भावना मेरी ।
देख दर्पण गुमां धारूॅं ।।
देख दुर्जन क्षमा धारूॅं ।
यही है भावना मेरी ।।१२।।
नहीं यह भावना मेरी ।
सिर्फ सपने वनी देखूॅं ।
प्रेम उमड़े गुणी देखूँ ।।
यही है भावना मेरी ।।१३।।
नहीं यह भावना मेरी ।
पर उपकार भुलाऊॅं मैं ।।
कर उपकार, भुलाऊॅं मैं ।
यही है भावना मेरी ।।१४।।
नहीं यह भावना मेरी ।
लग जाऊॅं कषाय पथ से ।।
न डिग जाऊॅं न्याय पथ से ।
यही है भावना मेरी ।।१५।।
नहीं यह भावना मेरी ।
अकड़ दिखला चलूँ सुख में ।।
पकड़ माँ हाथ लूँ दुख में ।
यही है भावना मेरी ।।१६।।
नहीं यह भावना मेरी ।
हा ! दुराशय चपल हो मन ।।
न खाऊँ भय, अटल हो मन ।
यही है भावना मेरी ।।१७।।
नहीं यह भावना मेरी ।
चर्म अर्चा रहे मन-मन ।।
धर्म चर्चा रहे भवनन ।
यही है भावना मेरी ।।१८।।
नहीं यह भावना मेरी ।
धार चौंसठ लगे आंखन ।।
धार चौंषठ लगे सावन ।।
यही है भावना मेरी ।।१९।।
नहीं यह भावना मेरी ।
दुखी व्याकुल रहे कोई ।।
‘निरा-कुल’ हो जगत् दोई ।
यही है भावना मेरी ।।२०।।
राग-द्वेष कामादिक जीते,
जान लिया जग सारा ।।
मोक्ष मार्ग क्या ? हुआ बताना,
निस्पृह जिसके द्वारा ।।
ब्रह्मा, विष्णु, महेशा ।
बोलो भले जिनेशा ।
वन्दन उसे हमारा ।
कोटि कोटि शत-बारा ।।१।।
विषयों की आशा नहिं रखते,
साम्य भाव धन प्यारा ।
निज-पर हित साधन की बहती,
अविरल निर्मल धारा ।।
स्वार्थ त्याग जप जपते ।
खेद बिना तप तपते ।
हरते दुख संसारा ।
साध साध जयकारा ।।२।।
नहीं सताऊँ किसी जीव को,
कहो किसे दुख प्यारा ।
पर-धन, वनिता-पर न लुभाऊँ,
दामन होता काला ।।
पिऊॅं अमृत संतोषा ।
जी जीवन संतों सा ।
सत्, शिव, सुन्दर न्यारा ।
करूँ सार्थ जयकारा ।।३।।
अहंकार का भाव न रक्खूॅं,
गया दशानन मारा ।
नहीं किसी पर क्रोध करूँ मैं,
जले हाथ अंगारा ।।
ठगा, ठग लिया किसको ? ।
कान पकड़ लो, हँस लो ।
सरल सत्य व्यवहारा ।
करूॅं लोभ परिहारा ।।४।।
रहे हमेशा सब जीवों से,
मैत्री भाव हमारा ।
बहे दीन दुखियों के ऊपर,
गंग, जमुन दृग् धारा ।।
सपने गुणी दिखावे ।
प्रेम उमड़ उर आवे ।
दुर्जन दूध उबाला ।
क्षमा शान्ति जल-धारा ।।५।।
होऊॅं नहीं कृतघ्न कभी मैं,
कृत भगवन् उपकारा ।
गुण गिरहण का भाव रहे नित,
जश मानस इस बार ।।
भय या लोभ दिखाया ।
पग न डिगे पथ न्याया ।
अटूट जीवन धारा ।
आ धमके या काला ।।६।।
होकर सुख में मग्न न फूलूॅं,
दिन फिर निशि अंधियारा ।
दुख में कभी न घबड़ा जाऊॅं,
किरण एक तम हारा ।।
चाहे इष्ट वियोगा ।
भले अनिष्ट संयोगा ।
मन दृढ़ बने हिमाला ।
अटल अडोल विशाला ।।७।।
सुखी रहें सब जीव जगत के,
होंय मंगलाचारा ।
घर-घर चर्चा रहे धर्म की,
जाय चरित स्वीकारा ।।
ईति-भीति ना व्यापें ।
बरसा कृषक ना कॉंपें ।
मारी रोग अकाला ।
भागे कर मुंह काला ।।८।।
धर्म अहिंसा फैले जग में,
जन-जन हित करतारा ।
वस्तु स्वरूप विचार खुशी से,
सहे जगत् दुख सारा ।।
नृप करुणा आराधे ।
न्याय प्रजा का साधे ।
सहज ‘निरा-कुल’ पारा ।
लगे हाथ भव-धारा ।।९।।
अरि जीते सब जग जान लिया ।
निस्पृह हो शिव उपदेश दिया ।।
हरि, हर, ब्रह्मा, स्वाधीन कहो ।
अय ! चित्त उसी में लीन रहो ।।१।।
जो साम्य भाव धन रखते हैं ।
निज-पर हित तत्पर रहते हैं ।।
तप बिना खेद जो करते हैं ।
मुनि दुख समूह को हरते हैं ।।२।।
मैं झूठ कभी नहीं कहाँ करूॅं ।
नित संतोषामृत पिया करूँ ।।
पर धन-वनिता न लुभाऊॅं मैं ।
जग जीव न कोई सताऊँ मैं ।।३।।
ना मद, न किसी पर क्रोध करूँ ।
हा ! कभी न ईर्ष्या भाव धरूॅं ।।
नित सरल सत्य व्यवहार करूँ ।
बस औरों का उपकार करूॅं ।।४।।
मैत्री जीवों से नित्य रहे ।
दीनन उर करुणा स्रोत बहे ।।
दुर्जन पर क्षोभ नहीं आवे ।
कुछ ऐसी परिणति हो जावे ।।५।।
गुण देखूॅं प्रेम उमड़ आवे ।
कर सेवा यह मन सुख पावे ।।
हा ! द्रोह न मेरे उर आवे ।
धन ! दृष्टि न दोषों पर जावे ।।६।।
घर लक्ष्मी आवे या जावे ।
जय, ‘मृत्यु’ आज या आ जावे ।।
भय या लालच देने आवे ।
पथ न्याय न पग डिगने पावे ।।७।।
सुख फूल न, दुख में घबड़ावे ।
गिरि अटवी से नहीं भय खावे ।।
मन मेरा दृढ़-तर बन जावे ।
बढ़ सहन-शीलता दिखलाये ।।८।।
जन कोई कभी न घबड़ावे ।
जग नित्य नये मंगल गावे ।
हा ! दुष्कृत दुष्कर हो जावे ।
व्रत, मनुज जन्म फल सब पावे ।।९।।
जल वृष्टि समय पर हुआ करे ।
भू ईति भीति ना छुआ करे ।।
नृप न्याय पूजा का किया करे ।
सब प्रजा शान्ति जिया करे ।।१०।।
यूँ देशोन्नति रत रहा करे ।।
कटु शब्द न कोई कहा करे ।
जग वस्तु स्वरूप विचार करे ।
‘सहजो’ दुख संकट सहा करे ।।११।।
पास जिसके राग ना, है द्वेष ना ।
दी जिन्होंने मुक्त होने देशना ।
ब्रह्म, हरि, हर जिसे जिन या बुध कहो ।
भक्ति धारा में उसी की नित बहो ।।१।।
जिन्हें विषयाशा न, जो समता धनी ।
स्वपर साधन हित दिवस ना निशि गिनी ।।
तप तपा बिन खेद, निस्पृह जप जपा ।
साधु वे रक्खें बना मुझ पर कृपा ।।२।।
जीव कोई भी भले न सताउॅं मैं ।
नार-पर, पर-धन कभी न लुभाउॅं मैं ।।
अमृत नित संतोष पान किया करूँ ।
झूठ मुख अपने कभी न कहा करूँ ।।३।।
क्रोध तज, जैसे बने मद परिहरूॅं ।
देख बढ़ती और, ईर्ष्या ना करूँ ।।
सरल सत् व्यवहार राखूॅं मैं सदा ।
बने पर उपकार साधूॅं सर्वदा ।।४।।
रहे मेरी मित्रता सब जीव से ।
प्रेम उमड़े देख गुण-मन दीव से ।।
दीन दुखिया देख कर में रो पड़ूॅं ।
दुर्जनों को क्षमा कर आगे बढूॅं ।।५।।
वृद्ध सेवा खो न दूॅं अवसर कभी ।
दोष तज, गुन लूॅं गुने सद्-गुन सभी ।।
कभी कृत उपकार पर भूलूॅं नहीं ।
किया पर उपकार कर भूलूॅं वहीं ।।६।।
मिले धन, या मिला धन भी खो चले ।
जिऊॅं चिर, या लगा ले मृत्यू गले ।।
लोभ-लालच दिख चले, या भय दिखे ।
न्याय-मग से पग कभी ना डगमगे ।।७।।
सुख न इठलाऊँ, न दुख में डर चलूॅं ।
मेरु सा निष्कम्प यह मन कर चलूँ ।।
भय ना खाऊँ, नदी, पर्वत, वन भले ।
कहूँ ना, बस सहूँ, जितना बन चले ।।८।।
समय पे झिर चलें बादल जल भरे ।
लहर लहरे फसल, हों उपवन हरे ।।
राह पकड़े धर्म की राजा-प्रजा ।
सहज ले सिर-माथ पे भगवत् रजा ।।९।।
जीव सारे जगत् भर के हों सुखी ।
नहीं घबड़ावें, न कोई हो दुखी ।।
सभी घर में सद्-धरम चर्चा रहे ।
सभी उर में यम, नियम अर्चा रहे ।।१०।।
देश प्रतिभा…रत रहे, आगे बढ़े ।
ना सहीं ज्यादा, अखर ढ़ाई पढ़े ।।
साध ले बोधी, समाधी अन्त में ।
भर अभी डग सुख ‘निरा-कुल’ पन्थ में ।।११।।
विजय श्री राग द्वेष पाई ।
राह निस्पृह शिव दिखलाई ।।
ब्रह्म, हरि, हर, जिन बुध वीरा ।
उसे वन्दन ले दृग् नीरा ।।१।।
भाव समता धन, दृग् नासा ।
स्वपर हित साध, शून-वासा ।।
खेद बिन दुर्धर तप तपते ।
साधु वे दुख संकट हरते ।।२।।
सदा सत्संग करूँ उनका ।
मोह ढ़ीला होवे धन का ।।
झूठ छोडूॅं, हिंसा छोडूॅं ।
नार-पर-धन न आँख जोडूॅं ।।३।।
क्रोध तज दूॅं, तज अभिमाना ।
बढ़ी पर रेख क्या मिटाना ।।
रखूँ व्यवहार सरल अपना ।
करूँ उपकार बने जितना ।।४।।
मित्रता हो मेरी सबसे ।
दीन हित दृग् करुणा बरसे ।।
देख दुर्जन न क्षुमित होऊॅं ।
सहजता रखूँ, न वन रोऊॅं ।।५।।
देख गुण प्रेम उमड़ आवे ।
सेव कर तिन मन सुख पावे ।।
द्रोह तज, बन कृतज्ञ जाऊॅं ।
गहूँ गुण, दोष न दृग् लाऊँ ।।६।।
रहे कड़की या धन बरसा ।
मरूॅं या जिऊँ लाख वरसा ।।
लोभ-लालच भय विकराला ।
न्याय-पथ पग न डिगे म्हारा ।।७।।
अकड़ ना दिखलाऊॅं सुख में ।
न भय खा, घबड़ाऊॅं दुख में ।।
बने निष्कंप मन अडोला ।
तजूॅं ज्यों का त्यों यह चोला ।।८।।
जगत से ईति, भीति खोवे ।
समय पर जल-वृष्टी होवे ।।
अहिंसा आराधे राजा ।
न्याय-नीती साधे राजा ।।९।।
जीव सुख मग्न रहें सारे ।
गान मंगल द्वारे-द्वारे ।
धर्म की हो घर-घर चर्चा ।
ज्ञान चारित की हो अर्चा ।।१०।।
देश हो प्राणों से प्यारा ।
जिओ जीने दो हो नारा ।।
भावना यही सिर्फ मोरी ।
‘निरा-कुल’ सुख आये झोरी ।।११।।
बस यह भावना म्हारी ।
दुनिया हो सुखी सारी ।।
जीता राग, जीता द्वेष ।
निस्पृह दिया शिव उपदेश ।।
हरि, हर बुद्ध ब्रह्मा ‘री ।
सविनय उसे नुति म्हारी ।।१।।
नासा दृष्टि समता हाथ ।
साधन हित स्वपर दिन-रात ।।
स्वार्थ वगैर तप-धारी ।
वे मुनि साधु दुखहारी ।।२।।
परिग्रह मोड़ मुख, तज लूट ।
हिंसा तज, न बोलूँ झूठ ।।
जोडूॅं दृग् न पर-नारी ।
बस यह भावना म्हारी ।
दुनिया हो सुखी सारी ।।३।।
भज मद, क्रोध, माया, लोभ ।
मन जल शान्त उठता क्षोभ ।।
परिणति सो तजूँ कारी ।
बस यह भावना म्हारी ।
दुनिया हो सुखी सारी ।।४।।
सबसे रहे मैत्री भाव ।
खेऊॅं दीन-दुखियन नाव ।।
दुर्जन क्षमा अधिकारी ।
बस यह भावना म्हारी ।
दुनिया हो सुखी सारी ।।५।।
गुणि-जन देख उमड़े प्रेम ।
कीचड़ कहाँ बिगड़े हेम ।।
पर, मैं लोह बलिहारी ।
बस यह भावना म्हारी ।
दुनिया हो सुखी सारी ।।६।।
लालच वशी या भयभीत ।
पग ना डिगे मारग-नीत ।।
राही न्याय दृग्-धारी ।
बस यह भावना म्हारी ।
दुनिया हो सुखी सारी ।।७।।
सुख में आ न जकड़े जोश ।
दुख में गवा दूँ ना होश ।।
दृढ़ मन रहे अविकारी ।
बस यह भावना म्हारी ।
दुनिया हो सुखी सारी ।।८।।
लागे अमृत झिर चौमास ।
हरियाली छूये आकाश ।।
प्राणन नीति हो प्यारी ।
बस यह भावना म्हारी ।
दुनिया हो सुखी सारी ।।९।।
सुखिया कहावें सब जीव ।
घट-घट जगे ज्ञान प्रदीव ।।
जन-जन हो सदाचारी ।
बस यह भावना म्हारी ।
दुनिया हो सुखी सारी ।।१०।।
डग भर सुख ‘निरा-कुल’ पाथ ।
होवे मरण अन्त समाध ।।
सुन धुन प्रणव ओंकारी ।
बस यह भावना म्हारी ।
दुनिया हो सुखी सारी ।।११।।
जग जाना, जीते राग, द्वेष ।
निस्पृह पथ दिखलाया स्वदेश ।।
हरि, हर, ब्रह्मा या बुद्ध कहो ।
भक्ती में उसकी लीन रहो ।।१।।
है विषयों की नहिं अभिलाषा ।
धन साम्य-भाव, दृष्टि-नासा ।।
तप बिना खेद, जप बिना स्वार्थ ।
दुख दूर करें, वे सन्त-साध ।।२।।
जीवों को नहीं सताऊँ मैं ।
पर-धन-वनिता न लुभाऊॅं मैं ।।
सन्तोष अमृत नित करूॅं पान ।
मुख झूठ न निकले रखूॅं ध्यान ।।३।।
ना अहंकार, ना क्रोध करूॅं ।
पर बढ़त देख ईर्ष्या न धरूॅं ।।
सत् सरल रखूॅं व्यवहार सदा ।
अवसर न तजूॅं, उपकार कदा ।।४।।
लख दीन बह चले अश्रु-धार ।
रख क्षमा सहूँ दुर्जन प्रहार ।।
मैं रखूॅं मित्रता जग भर से ।
लख गुणि-जन मन मेरा हरषे ।।५।।
शत शरद् जीवता करूॅं राज ।
अथवा आ जाये मृत्यु आज ।।
भय या लालच डोरे डाले ।
पग मारग न्याय न डिग चाले ।।६।।
सुख मग्न न इतराने लागूँ ।
दुख-लग्न न घबड़ाने लागूॅं ।।
मन बन जावे दृढ़-तर अकंप ।
ना भय खावे वन, सरित्, शम्प ।।७।।
जल-धार समय पर लग चाले ।
नृप प्रजा न्याय-नीती पाले ।।
फैले न मरी-दुर्भिक्ष रोग ।
न वियोग इष्ट, न अनिष्ट योग ।।८।।
हों सुखी जीव जग के सारे ।
धुन छिड़े ओम् द्वारे द्वारे ।।
घर-घर हो चर्चा क्षमा धर्म ।
उर-उर हो अर्चा दया धर्म ।।९।।
दुख सहूँ जान वस्तु स्वरूप ।
फल पुण्य-पाप कृत जन्म-पूर्व ।।
घर लगूॅं, न भूला कहलाऊॅं ।
सुख सहज ‘निरा-कुल’ निध पाऊॅं ।।१०।।
राग, द्वेष, कामाद जीत जग जाना ।
निस्पृह हुआ स्वर्ग-शिव मार्ग दिखाना ।।
नाम भले जिन, ब्रह्मा, विष्णु महेशा ।
भाव भक्ति से वन्दन उसे हमेशा ।।१।।
चाह दाह न विषय, रखें समता धन ।
रत सदैव हित स्वपर एक संपादन ।।
स्वार्थ त्याग जप, बिना खेद तप करते ।
सन्त-साध वे दुख समूह अपहरते ।।२।।
दिल न दुखाऊॅं, झूठ कभी ना बोलूॅं ।
बनता संतोषामृत हृदय भिजोलूँ ।।
उठा न लाऊॅं, वस्तु किसी की भूली ।
पर-नारिन सों रखूॅं बना के दूरी ।।३।।
करूँ सभी को क्षमा, न क्रोध करूॅं मैं ।
यौवन, चपला रमा, न लोभ करूँ मैं ।।
ईर्ष्या करूँ न, देख किसी को बढ़ते ।
करूँ घमण्ड न रिद्ध-सिद्ध गिर चढ़ते ।।४।।
मैत्री भाव रहे जग भर से मेरा ।
कृत दुर्जन लख हृदय न बरसे मेरा ।।
मेरा हृदय देख गुणियों को हरषे ।
दुखियन देख हृदय से करुणा बरसे ।।५।।
बने बुजुर्गों की सेवा कर आऊँ ।
रखूॅं दृष्टि कर्त्तव्य, कृतज्ञ कहाऊँ ।।
पा जश मानस क्यूॅं न हंस बनूॅं मैं ।
स्वयं कहें ‘गुन’ क्यूँ न उन्हें गुनूॅं मैं ।।६।।
आना हो लक्ष्मी आवे, या जावे ।
जिऊॅं शरद् शत या मृत्यु आ जावे ।।
अथवा कोई भय या लोभ दिखावे ।
मेरा पग, मग-न्याय न डिगने पावे ।।७।।
सुख में उडूॅं, न दुख में घबड़ा जाऊँ ।
गिरि, मशान, वन शून न भय खा जाऊॅं ।।
फूलों जैसा कांटों में रह लूॅं मैं ।
इष्ट-वियोग, अनिष्ट-योग सह लूँ मैं ।।८।।
सुखिया रहें सभी, न कभी घबड़ावें ।
जा-विधि राखे प्रभु ता-विधि रह जावें ।।
धर्म अहिंसा ध्वज लहराये घर-घर ।
चरित पताका लहरे करके फर-फर ।।९।।
अमृत झिरे नभ, ईति-भीति न फैले ।
रोग, मरी, दुर्भिक्ष न जॉं से खेले ।।
नृप, पुर-परिजन न्याय-नीति न खोवें ।
वस्तु स्वरूप विचार ‘निरा-कुल’ होवें ।।१०।।
राग-द्वेष कामादिक जीते,
सब जग जान लिया ।
निस्पृह मोक्ष-मार्ग दिखला कर,
जग कल्याण किया ।।
ब्रह्मा, विष्णु, महेशा ।
बुध या कहो जिनेशा ।
मैं क्या ? गणधर भगवन् ने भी,
उसका ध्यान किया ।।१।।
कोस दूर विषयाभि-लाश से,
समता धन रखते ।
एक स्वपर हित साधन में जो,
नित् तत्पर रहते ।।
बिना खेद तप साधा ।
जप निःस्वार्थ अराधा ।
ऐसे ज्ञानी साधु जगत के,
दुख समूह हरते ।।२।।
बैठ उन्हीं की सत्संगत में,
पुण्य धन बटोरूँ ।
किसी जीव को नहीं सताऊँ,
झूठ नहीं बोलूॅं ।।
जी जीवन सन्तों सा ।
पिऊँ अमृत संतोषा ।
पर-धन, वनिता-पर न लुभाऊँ,
पाप सभी छोडूॅं ।।३।।
छोटा या मोटा हो गुस्सा,
नाक बिठा लूॅं ना ।
बढ़ती देख और, कर ईर्ष्या,
नाक कटा लूॅं ना ।।
करके मदद भुला दूॅं ।
सर पे अदद न लादूॅं ।
हा ! एकान्त पक्ष का चश्मा,
नाक सटा लूँ ना ।।४।।
मेरा नित्य सभी जीवों से,
मैत्री भाव रहे ।
दीन दुखी जीवों पर उर से,
करुणा स्रोत बहे ।।
कृत दुर्जन निरखूँ मैं ।
साम्य भाव रख लूँ मैं ।
गुणी जनों को देख हृदय में,
लहर प्रेम उमड़े ।।५।।
बोले बुरा-भला कोई या,
धन आवे, जावे ।
लाखों बरसों तक जीऊॅं या,
पाती-यम आवे ।।
लालच लोभ दिखावे ।
या कोई धमकावे ।
पग मेरा मग-न्याय कभी भी,
डिगने ना पावे ।।६।।
इठलाऊँ ना सुख में, दुख में-
कभी न घबडाऊँ ।
इष्ट वियोग, अनिष्ट योग में,
समता धर पाऊँ ।।
सदाचार की अर्चा ।
करूँ धर्म की चर्चा ।
दृष्टि न राखूँ कभी दोष ‘पर’
गुन गुनता आऊॅं ।।७।।
ईति-भीति व्यापें नहिं जग में,
झिरे अमृत सावन ।
धर्म-निष्ठ नृप जयकारों से,
गूॅंजे गगनांगन ।।
प्रजा अहिंसा पा ले ।
बेड़ा पार लगा ले ।
‘सहज-निराकुल’ सार्थक सु-मरण,
कर सॉंझन-सॉंझन ।।८।।
सिद्ध अरिहन्त रट लगाऊँ ।
सूरी उव-झाय सन्त ध्याऊँ ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
हमेशा सत्संगत पाऊँ ।।१।।
पराया धन न चुराऊॅं मैं ।
और वनिता न लुभाऊॅं मैं ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
किसी का दिल न दुखाऊॅं मैं ।।२।।
कान विष जिह्वा न छोडूॅं ।
कमरिया परिग्रह ना ओढूॅं ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
सभी पापों से मुँह मोडूॅं ।।३।।
नाक गुस्सा ना राखूॅं मैं ।
लोभ-लिप्सा ना राखूॅं मैं ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
भाव-ईर्ष्या ना राखूॅं मैं ।।४।।
रख चलूॅं ना परि-णति काली ।
कर चलूँ ना मायाचारी ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
कभी ना बनूँ अहंकारी ।।५।।
मित्रता रहे सभी जन से ।
दीन लख दृग् करुणा बरसे ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
उर सहजता समता परसे ।।६।।
भले अरि रोड़े करे खड़े ।
क्षमा कर दूॅं दृग् लिये भरे ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
देख गुणवान् प्रेम उमड़े ।।७।।
करूँ नेकी दरिया डालूॅं ।
देखते ही गुण अपना लूॅं ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
दृष्टि दोषों पर ना डालूॅं ।।८।।
चिर जिऊॅं या यम धमकावे ।
धन मिले या धन लुट जावे ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
न्याय मग पग न डगमगावे ।।९।।
कभी सुख में ना इतराऊॅं ।
कभी दुख में ना घबराऊॅं ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
किसी से भी ना भय खाऊॅं ।।१०।।
ईति न भीति हावी होवे ।
रोग दुर्भिक्ष मरी खोवे ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
नृत्य चौमास मोर शोभे ।।१२।।
धर्म करुणा दृग् रख तीते ।
भलाई में नृप निशि बीते ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
प्रजा का मन राजा जीते ।।१३।।
जीव जग सुखी रहे सारे ।
गूँज मंगल हो हर द्वारे ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
समशरण लागें जयकारे ।।१४।।
यम, नियम, संयम अपनावें ।
जन्म मानस फल सब पावें ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
हित ‘निराकुल’ सुख थम जावें ।।१५।।
सिद्ध अनन्त सभी ग्रन्थों की ।
करूँ वन्दना अरिहन्तों की ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
करूॅं सदा संगति सन्तों की ।।१।।
दिल न दुखाऊॅं कभी किसी का ।
धन न चुराऊॅं कभी किसी का ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
कड़वा, कड़ा न बोलूॅं तीखा ।।२।।
क्षितिज छोर परिग्रह, ना दौडूॅं ।
नार पराई दृग् ना जोडूॅं ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
पापों से मुख अपना मोडूॅं ।।३।।
अहंकार से भर ना जाऊॅं ।
क्रोध किसी पर कर ना आऊँ ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
गिर स्वय-मेव नजर ना जाऊॅं ।।४।।
रखूँ न ईर्ष्या भाव किसी से ।
रखूँ न लाग-लगाव किसी से ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
करूँ सरल व्यवहार सभी से ।।५।।
देख दीन दृग् करुणा बरसे ।
परिणत नित् मानवता परसे ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
हृदय देख गुणियों को हरसे ।।६।।
दुर्जन लिये दुराशय घूमें ।
कर दूॅं क्षमा, न क्षोभ करूॅं मैं ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
सबसे मैत्री भाव राखूॅं मैं ।।७।।
विरदावलि या दी गाली में ।
रक्खूॅं समता भाव सभी में ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं ।।८।।
दोष न निवस चलें आंखों में ।
गुन गुण, बनूॅं एक लाखों में ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
जो-वन आऊॅं बड़भागों में ।।९।।
जीतूॅं दाव या मृत्यु हरावे ।
भय या कोई लोभ दिखावे ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
पग मग-न्याय न डिगने पावे ।।१०।।
सुख में कभी न इतराऊॅं मैं ।
दुख में कभी न घबराऊॅं मैं ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
समझूॅं स्वयं, न समझाऊॅं मैं ।।११।।
चौमासे झिर पानी लागे ।
ईति भीति पग उलटे भागे ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
भगवत भक्ति ज्योत उर जागे ।।१२।।
धर्म अहिंसा डंका बाजे ।
न्याय नीति नृप हृदय विराजे ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
सु-मरण सांझ प्रजा मन साजे ।।१३।।
सुखी रहें जग जेते प्राणी ।
वॉंचें सुबह साँझ जिनवाणी ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
धार बहें, न करें मनमानी ।।१४।।
वस्तु स्वभाव विचार सदीवा ।
सह लें दुख संकट सब जीवा ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
बनें निराकुल अप्प प्रदीवा ।।१५।।
राग-द्वेष कामादिक जीते,
जिसने सब जग जाना ।
धका, बढ़ाया मोक्ष मार्ग पर,
बन पाछी पवमाना ।
कहो बुद्ध, जिन, ब्रह्म, विष्णु या,
शिव भोला भंडारी ।
उसे वचन मन काया पूर्वक,
सविनय ढ़ोक हमारी ।।१।।
जिन्हें न विषयों की अभिलाषा,
समता धन रखते हैं ।
निज पर हित साधन में निशि-दिन,
जो तत्पर रहते हैं ।।
बिना खेद तप, तपा जिन्होंने,
निस्वारथ जप साधा ।
श्रमण तीन कम नौ करोड़ वे,
मेंटें संकट-बाधा ।।२।।
करूँ सदा सत्संग उन्हीं का,
नित्य उन्हें ही ध्याऊॅं ।
उन ही जैसी चर्चा में यह,
चंचल चित्त रमाऊॅं ।।
पिऊॅं अमृत सन्तोष सदा मैं,
झूठ कभी ना बोलूॅं ।
पर धन वनिता पर न लुभाऊँ,
विष न दिश विदिश् घोलूॅं ।।३।।
कभी न ईर्ष्या भाव रखूॅं मैं,
रेख देख पर बढ़ती ।
करूॅं न क्रोध, लोभ, मद, माया,
बेलि-जन्म नभ चढ़ती ।।
औरों का उपकार करूॅं मैं,
बिना लगाये देरी ।
सरल सत्य व्यवहार रखूॅं मैं,
यही भावना मेरी ।।४।।
जीव जगत् जितने उन सबसे,
मैत्री भाव हमारा ।
गुणी जनों को देख हृदय में,
उमड़े सनेह धारा ।।
करुणा स्रोत बह चले उर से,
ज्यों दुखिया दिख जावे ।
दुर्जन-क्रूर कुमार्ग रतों पर,
क्षोभ न मुझको आवे ।।५।।
वृद्ध जनों की करके सेवा,
सुख पावे मन मेरा ।
होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं,
करूॅं न तेरा-मेरा ।।
दृष्टि न जावे कभी दोष पर,
बनते गुण गुन आऊॅं ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग भी,
समता से सह जाऊॅं ।।६।।
भय, लालच, शत शरद् जिऊॅं या,
मृत्यु अभी आ जावे ।
पग मेरा मग न्याय कभी भी,
रंच न डिगने पावे ।।
सुख में कभी न इतराऊॅं मैं,
ना दुख में घबड़ाऊॅं ।
मन अडोल निष्कंप बने दृढ़,
भय न किसी से खाऊँ ।।७।।
चौंसठ धार लगे चौमासे,
ईति भीति खो जावे ।
रोग मरी दुर्भिक्ष न फैले,
प्रज्ञा शांति सुख पावे ।।
शासन और प्रशासन होवे,
न्याय-निष्ठ बलशाली ।
होली प्रात मने रोजाना,
और रात दीवाली ।।८।।
सुख सम्पन्न रहें सब प्राणी,
दुखी न होवे कोई ।
रखें वीर जा विधि, ता विधि रह,
तीर लगे जग दोई ।।
घर घर चर्चा रहे धर्म की,
पाप द्वार यम लागे ।
वस्तु स्वरूप विचार ‘सहजता’,
हाथ सभी के लागे ।।९।।
राग-द्वेष जीत,
स्याद्वाद गीत,
जाना तिहु-लोक ।
वीर, ब्रह्म, बुद्ध,
कहो विष्णु, रूद्र,
उसे फर्श-ढ़ोक ।।१।।
विगत विषय आश,
धन समता पास,
रत परोपकार ।
निरत ज्ञान ध्यान,
मुनि दया निधान,
तिन्हें नमस्कार ।।२।।
कर इनका संग,
चढ़ा भक्ति रंग,
कर्म दूँ नशाय ।
दूॅं विसार क्रोध,
मद, माया लोभ,
हा ! दुखद कषाय ।।३।।
दृग्, न रखूँ खोट,
सर न रखूँ पोट,
तजूँ पाप पाँच ।
मुँह हिंसा मोड़,
दूॅं चोरी छोड़,
कहूँ सदा सॉंच ।।४।।
मुदित गुणिन देख,
दुरित कुधिन देख,
करूॅं क्षमा नाम ।
मित्र जगत् तीन,
रखूॅं दया दीन,
साधूॅं परिणाम ।।५।।
करूँ वृद्ध सेव,
रात-दिन सदैव,
भाव रख विनीत ।
जुड़ गुण बेजोड़,
दोष दूर छोड़,
धरूॅं धर्म प्रीत ।।६।।
जिऊँ कई साल,
या फिर तत्काल,
लागे यम दाव ।
लालच वश भीत,
मार्ग न्याय-नीत,
डिग न चले पाँव ।।७।।
विपिन वियावान,
भयावह मसान,
भय न रखूॅं पाल ।
इष्ट का वियोग,
या अनिष्ट योग,
होश लूँ संभाल ।।८।।
ईति भीति ह्रास,
जल झिर चौमास,
टल चले अकाल ।।
न्याय नीति वान,
धरती भगवान्,
रहे प्रजा-पाल ।।९।।
जगत् सभी जीव,
हों सुखी सदीव,
बह भगवत् धार ।
घर घर सद्-धर्म,
रग रग सद्-कर्म,
हो हृदय उदार ।।१०।।
वस्तु का स्वरूप,
अपना चिद्रूप,
लग चालूॅं घाट ।
सुख सहजो नन्त,
‘निरा-कुल’ वसन्त,
लग चाले हाथ ।।११।।
जै सिद्ध अनन्तों की ।
जै जै अरिहन्तों की ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
हो संगति सन्तों की ।।१।।
पर धन न चुरा लाऊँ ।
जा दिल न दुखा आऊॅं ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
धन सम-रसता पाऊँ ।।२।।
मैं झूठ नहीं बोलूँ ।
पर नार न दृग् जोडूॅं ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
पापों से मुंह मोडूॅं ।।३।।
नहिं बनूॅं अहंकारी ।
तज दूॅं मायाचारी ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
परिणति न रहे काली ।।४।।
राखूँ न डाह-ईर्ष्या ।
राखूँ न लोभ-लिप्सा ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
राखूँ न नाक गुस्सा ।।५।।
उर, देख गुणी हरसे ।
मन सहज भाव परसे ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
हो मैत्री जग-भर से ।।६।।
कृत दुष्ट भुला पाऊॅं ।
बस किये क्षमा जाऊॅं ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
दुख दीन बॅंटा आऊॅं ।।७।।
ना हो जुबां कतरनी ।
होऊँ नहीं की कृतघ्नी ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
सार्थक करूॅं सु-मरनी ।।८।।
गुण ग्रहण भाव राखूॅं ।
चुगली न कभी चाखूॅं ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
मर्यादा ना उलाघूॅं ।।९।।
पाऊॅं, या धन खोऊॅं ।
जीऊॅं, या चिर सोऊॅं ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
मग न्याय न च्युत होऊॅं ।।१०।।
घबड़ाऊँ नहिं दुख में ।
इतराऊॅं नहिं सुख में ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
बह पाऊँ विधि रुख में ।।११।।
झिर लागे चौमासे ।
ईति व भीति हिरासे ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
दुर्भिक्ष मरि विनाशे ।।१२।।
जन-जन हृदय विराजा ।
हो धर्म निष्ट राजा ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
पा जाये न्याय प्रजा ।।१३।।
दृग् ज्ञान चरित अर्चा ।
हो दया धरम चर्चा ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
हो परमार्थ समर्चा ।।१४।।
सब जीव सुखी होवें ।
प्रतिशोध भाव खोवें ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
भू धर्म पुण्य बोवें ।।१५।।
लख वस्तु स्वरूप सभी ।
दुख सहें, न कहें कभी ।
साध बारह भावना,
बन सुख ‘निरा-कुल’ पथी ।।१६।।
जय जय सिद्ध अनन्त ।
जयतु जयतु अरिहन्त ।।
ग्रन्थ जयतु निर्ग्रन्थ ।
है भावना हमार,
छूटे न आप दरबार ।।१।।
बोलूॅं बोल अमोल ।
कहूँ न कड़वे बोल ।।
चारित रखूँ अडोल ।
है भावना हमार,
रखूँ न दृग् पर-नार ।।२।।
लूँ चोरी मुख मोड़ ।
दान करूँ दिल खोल ।।
हटूॅं पंक्ति धन होड़ ।
है भावना हमार,
चढूॅं न गिर, ले भार ।।३।।
मेंटूॅं दुखियन पीर ।
बनूँ अहिंसक वीर ।।
निर्मद बनूँ गभीर ।
है भावना हमार,
करूँ घमण्ड किनार ।।४।।
रखूँ हमेशा बोध ।
करूँ कभी ना क्रोध ।।
तजूॅं कपट नव-कोट ।
है भावना हमार,
रखूँ सरल व्यवहार ।।५।।
तजूॅं लोभ से नेह ।
रह लूॅं देह विदेह ।
करूॅं न श्रुत संदेह ।
है भावना हमार,
बने करूँ उपकार ।।६।।
रखूँ गुण ग्रहण भाव ।
दोष छिद्र हा ! नाव ।।
धूप, समां हो छांव ।
है भावना हमार,
मन तरंग लूँ मार ।।७।।
होऊॅं त्रिभुवन मीत ।
क्षमा पात्र विपरीत ।।
लख गुण बनूॅं विनीत ।
है भावना हमार,
दीन पात्र दृग् धार ।।८।।
पुनि-पुनि लखूँ वसंत ।
या आवे वय अन्त ।।
डिगूॅं न न्यायिक पन्थ ।
है भावना हमार,
गिर सुमेर हो भाल ।।९।।
झिर लागे चौमास ।
रोग पलट लें श्वास ।।
ईति भीति हो ह्रास ।
है भावना हमार,
दम भर चले अकाल ।।१०।।
शासन न्याय प्रधान ।
हो नृप दया निधान ।
प्रजा रखे ईमान ।
है भावना हमार,
बने देश खुशहाल ।।११।।
चाहे अनिष्ट योग ।
या हो इष्ट वियोग ।।
सह लें सारे लोग ।
है भावना हमार,
वस्तु स्वरूप विचार ।।१२।।
सुखी रहें सब जीव ।
बा लें धर्म प्रदीव ।।
पालें व्रत शिव नींव ।
है भावना हमार,
हो सबका उद्घार ।।१३।।
अभिनन्दन जिन अरिहन्त ।
शत वन्दन सिद्ध अनन्त ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
सत्संग करूॅं नित सन्त ।।१।।
पर धन दृग् करूॅं न चार ।
रख चलूॅं न दृग् पर नार ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
दूॅं परिग्रह पोट उतार ।।२।।
मैं रगूॅं न हिंसा हाथ ।
मैं कहूँ न कड़वी बात ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
दूॅं साधर्मी का साथ ।।३।।
मैं करूँ न कभी गुमान ।
दूॅं मायाचार न मान ।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
दूॅं भुला न मैं एहसान ।।४।।
नहिं करूँ किसी पर क्रोध ।
नहिं रखूॅं भाव प्रतिशोध ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
तज लोभ, भजूॅं संबोध ।।५।।
हो सबसे मैत्री भाव ।
रक्खूॅं दुखियों पर छांव ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
कर चलूॅं न दुठ टकराव ।।६।।
संजोग सुगन्धी हेम ।
लख गुण उर उमड़े प्रेम ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
छा जाये दिश्-दश क्षेम ।।७।।
गुण गहूॅं सार्थ गुणकार ।
करके भूलूँ उपकार ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
दोषों को करूॅं किनार ।।८।।
चिर खेऊँ जीवन-नाव ।
या मृत्यु ले लगा दाव ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
मग न्याय डिगे न पांव ।।९।।
घबड़ा न चलूॅं दुख देख ।
इतरा न चलूॅं सुख लेख ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
घुटने न चलूॅं रुक टेक ।।१०।।
दुर्भिक्ष तके मुख हार ।।
चौमास लगे जलधार ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
रोगों की पड़े न मार ।।११।।
नृप न्याय नीति धनवान ।
हो निरत लोक-कल्याण ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
अन पूर्व, हो प्रजा प्राण ।।१२।।
चाहे हो इष्ट वियोग ।
या भले अनिष्ट सयोग ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
बन सहज सहें सब लोग ।।१३।।
सब पालें चरित सदीव ।
प्रकटा लें दया प्रदीव ।।
ऐ ‘री भावना ।
मेरी भावना ।
हो चलें सुखी सब जीव ।।१४।।
कर वस्तु स्वरूप विचार ।
सब सह लें कर्म प्रहार ।।
भा भावन चउ-चउ-चार ।
हित सौख्य ‘निराकुल’ न्यार ।।१५।।
राग देष कामादिक जीते
जान लिया संसार ।
निस्पृह मोक्ष मार्ग दिखलाकर,
किया बड़ा उपकार ।।
ब्रह्मा, विष्णु, महेशा ।
भले कहो तीर्थेशा ।
श्रद्धा सुमन चढ़ा चरणों में,
उसकी जय जयकार ।।१।।
जिन्हें न विषयों की अभिलाषा,
रखते धन सम-भाव ।
बीत रहे निशि वासर जिनके,
खे-कर निज-पर नाव ।।
धर्म अहिंसा केत ।
तप तपते बिन खेद ।
ऐसे सन्त हमारे ऊपर,
बना रखें निज छाँव ।।२।।
रहे सदा सत्संग उन्हीं का,
करूँ उन्हीं का ध्यान ।
एक उन्हीं सी चर्चा अपना,
साधूॅं निज कल्याण ।।
बोलूँ कभी न झूठ ।
मीठा कहूँ अनूठ ।
लूट मचाऊॅं, क्यों धन छीनूॅं,
दश फिर अन धन प्राण ।।३।।
रावण हस्र देख पर तिय से,
कभी न जोडूॅं आंख ।
तिष्णा तजूॅं, पीठ पीछे क्या ?
अपना आगे नाक ।।
सब भावी भगवान् ।
अभयदान वरदान ।
रंग गुलाल न कम, जाने क्यूँ ?
खेलूॅं खूनी फाग ।।४।।
नहीं किसी पर क्रोध करूँ मैं,
दशा देख तुंकार ।।
अहंकार का भाव न रक्खूॅं,
नीचे ऊंट पहार ।।
एका सुख संतोष ।
इक मत सुदूर कोस ।
मायाचार काठ की हांडी,
चढ़े न दूजी बार ।।५।।
रहें मित्रता सब जीवों से,
आऊॅं सबके काम ।
करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,
साधूॅं सु…मरण शाम ।
उमड़े प्रेम तुरन्त ।
देखत ही गुणवन्त ।
दुर्जन क्रूर कुमार्ग रतों के,
सह लूॅं विघ्न तमाम ।।६।।
होऊॅं नहीं कृतघ्न कभी मैं,
महँगी पापन प्रीत ।
नेकी कर दरिया में डालूॅं,
मिले, पुण्य लूँ क्रीत ।।
गुण गुन लूँ बेजोड़ ।
सुन औ’…गुण दूॅं छोड़ ।
देख सामने अपने हारूॅं,
कभी न जाऊॅं जीत ।।७।।
दुख में कभी न घबड़ाऊॅं मैं,
तम, लख किरण निढ़ाल ।
सुख में कभी न इतराऊॅं मैं,
फूल सांझ कब डाल ।।
चाहे इष्ट वियोग ।
या अनिष्ट संयोग ।
सहन-शीलता दिखलाऊॅं मैं,
वस्तु स्वरूप विचार ।।८।।
लाखों बर्षों तक जीऊॅं या,
दे यम धाबा बोल ।
नामी मोटा आसामी या
बिक चालूॅं बेमोल ।।
लालच लोभ प्रसंग ।
अथवा रॅंग भय रंग ।
डग मग-न्याय कभी ना होवे,
डगमग डामाडोल ।।९।।
सुखी रहें सब जीव जगत के,
दुख देखे यम-द्वार ।
बैर पाप अभिमान छोड़ जग,
गावें मंगलाचार ।।
दूर-दूर तक क्षेम ।
रहे परस्पर प्रेम ।
न सिर्फ घर-घर, रग-रग होवे,
करुणा धर्म प्रचार ।।१०।।
ईति भीति व्यापें नहिं जग में,
लागे झिर चौमास ।
रोग मरी दुर्भिक्ष न फैले,
फैल चले विश्वास ।।
धर्म निष्ठ सम्राट ।
रक्खे हृदय विराट ।
पा राजा से न्याय प्रजा जन,
भरें ‘निरा-कुल’ श्वास ।।११।।
अनंतानन्त सिद्ध भगवन्त ।
विराजें मन्दिर मन अरिहन्त ।
भावना मेरी, हों आदर्श,
अहिंसक ग्रन्थ, दिगम्बर सन्त ।।१।।
रंगा चालूॅं न हिंसा हाथ ।
नार ‘पर’ धन न करूॅं दृग् पात ।
भावना मेरी, कहूॅं न झूठ,
कमाता ही न रहूॅं दिन-रात ।।२।।
क्रोध से तोडूॅं मैं संबंध ।
छुपाये रखूँ न हृदय घमण्ड ।
भावना मेरी, करूँ न लोभ,
रखूँ छल कपट प्रवेश न सन्ध ।।३।।
रहे मैत्री जन-जन जग-तीन ।
क्षमा कर दूॅं, लख कृत मति-हीन ।।
भावना मेरी, उमड़े प्रेम,
देख गुण, डबडब दृग् लख दीन ।।४।।
हृदय कर जाये ना घर द्रोह ।
गुण भजूॅं, तज दूॅं दोष गिरोह ।
भावना मेरी, सहज सयत्न,
विनाशूॅं राग-द्वेष व्या-मोह ।।५।।
जिऊँ चिर या मर चलूॅं तुरंत ।
भले भय-लोभ प्रसंग दुरन्त ।
भावना मेरी, किन्तु जिनेश !
कभी डिग चलूॅं न न्यायिक पन्थ ।।६।।
सुख न इतराऊॅं उड़ा अबीर ।
दुख न घबड़ाऊॅं, ले दृग् नीर ।
भावना मेरी, योग-वियोग,
कहूॅं ना, करूॅं सहन धर धीर ।।७।।
लगे झिर पानी चातुर्मास ।
भरे दुर्भिक्ष न अट्टाहास ।।
भावना मेरी, टिकें न रोग,
पग उलट जा दीखें यम पास ।।८।।
छा चले खुशहाली चहुं-ओर ।
धर्म की चर्चा हो घर-दोर ।
भावना मेरी, ‘गुन’ फल-फूल,
वृक्ष-से चलें सभी कुछ न्योर ।।९।।
प्रजा जन चलें थाम नृप हाथ ।
चले नृप न्याय-नीति के साथ ।
भावना मेरी, पहले सत्य,
कुटुम, धन, पैसे हों फिर बाद ।।१०।।
‘निरा-कुल’ सुख पाने इस बार ।
सहजता कर पाने गलहार ।
भावना मेरी, सह लें कष्ट,
सभी जन वस्तु स्वरूप विचार ।।११।।
जीते हैं जिसने राग द्वेष,
जाना है जिसने जग सारा ।
निस्पृह सब जीवों के हित में,
बरसाई ज्ञान अमृत धारा ।।
जिन, बुद्ध, वीर, हरि, हर, ब्रह्मा,
या कहो उसे त्रिभुवन त्राता ।
श्रृद्धा से उसके चरणों में,
हम झुका रहे अपना माथा ।।१।।
अभिलाषा जिन्हें न विषयों की,
रखते समीप समता धन हैं ।
निज पर हित साधन में तत्पर,
निश्चल बालक जैसा मन हैं ।।
नवकार सतत स्वाध्याय चले,
बिन खेद तपस्या करते हैं ।
वे नग्न दिगम्बर साधु सन्त,
ध्याते ही संकट हरते हैं ।।२।।
उन सहज निराकुल सन्तों सी,
परिणती मेरी सन्तोषी हो ।
बस ज़ुबां न रहे, वसे रग-रग,
सन्देश ‘जिओ जीनो भी दो’ ।।
पर धन पर नार लुभाऊँ ना,
हित मित बोलूॅं, मिश्री घोलूॅं ।
मैं झूठ न बोला करूॅं कभी,
न ज्यादा लूॅं, न कम तोलूॅं ।।३।।
अंगार जले, फिर जला रहा,
यह देख क्रोध से मुख मोडूॅं ।
माछी सिर धुन, मल हाथ रही,
यह देख लोभ लालच छोडूॅं ।।
क्यों सिद्ध करूॅं करके ईर्ष्या,
वह बड़ा, और मैं हूॅं बौना ।
क्यों ना मैं सक्षम कहलाऊॅं,
करके तर दृग् भीतर कोना ।।४।।
जग जितने जीव सभी उन पर,
इक मैत्री-भाव रहे मेरा ।
लख दीन दरिद्री दुखिया जन,
उर करुणा स्रोत बहे मेरा ।।
देखूँ गुणियों को रीझ चलूँ,
उर मेरे प्रेम उमड़ आवे ।
दुर्जन को देख न खींज चलूॅं,
जल पड़ कब हेम जंग खावे ।।५।।
भूलूॅं उपकार ना औरों का,
नेकी करके दरिया डालूॅं ।
गुण गुनूॅं गुणित क्रम ले करके,
दोषों पे न नजरिया डालूॅं ।।
संयोग-वियोग अनिष्ट-इष्ट,
धर समता सब कुछ सह लूॅं मैं ।
जिस-विध राखें महावीर प्रभु,
विध-उसी निरा-कुल रह लूॅं मैं ।।६।।
धन खोवे या अपना होवे,
चिर जागूॅं या चिर सो जाऊॅं ।
भय दिख जावे या लोभ भले,
मग न्याय न डगमग हो जाऊॅं ।।
ना घबड़ाऊॅं दुख समय देख,
सुख समय देख ना इठलाऊॅं ।
मन रहे अडोल अकंप सदा,
भुवि, दिवि, पाताल न भय खाऊॅं ।।७।।
सब जीव निरोगी रहें सुखी,
हो घर-घर धर्म-दया चर्चा ।
रह देह विदेही रहें सभी,
हो रग-रग शर्म-हया अर्चा ।।
चौमास बुझायें प्यास मेघ,
जश लें फसलें फल फुलवारी ।
ले उड़ा शान्ति-कापोत प्रजा,
दुर्भिक्ष न फैल चले मारी ।।८।।
माने अपने को जन सेवक,
दे न्याय प्रजा-जन को राजा ।
धुन दिव्य गुने, न सुने केवल,
स्वर ‘सत्यमेव जयते’ गाजा ।।
लख वस्तु स्वरूप सहजता रख,
बन सन्त, बनूॅं फिर अरिहन्ता ।
अर होता कब, फिर के आना,
बनकर के शिव राधा कन्ता ।।९।।
=दोहा=
नाम मात्र है कब जहां,
आकुलता का काम,
सार्थक सु-मरण कर लगूॅं,
तीर ‘निरा-कुल’ धाम ।।
मेरी भावना
(१)
खो दुख ।
हो सुख ।।
खिल खुल ।
लें गुल ।।१।।
गुम हो ।
गम ‘गो’ ।।
जश लें ।
फसलें ।।२।।
खो ‘धी’ ।
ओछी ।।
हो ‘भी’ ।
ज्योती ।।३।।
हो गिर् ।
कोकिल ।।
खो हा !
धोखा ।।४।।
हु…नर ।
हो नर ।
रोरी ।
हो’री ।।५।।
तव मम ।
हो गुम ।।
हो ‘धी’ ।
कोरी ।।६।।
मेरी भावना
(२)
दुख छीजे ।
सुख सीझे ।।
चौमासे ।
जल बरसे ।।१।।
तरु झूलें ।
नभ छू लें ।।
लेके कण ।
भू दे मन ।।२।।
गो…रव हो ।
गौरव गो ।।
पिक मैना ।
हों बैना ।।३।।
क्षण ठहरें ।
मन लहरें ।।
हों भींजी ।
दृग् तींजी ।।४।।
खुशबू गुल ।
पायें खुल ।।
गुस्ताखी ।
लें माफी ।।५।।
मेरी भावना
(३)
विघटे तम घोर ।
प्रकटे सुख भोर ।।
हाथों को जोड़, भावना मोर ।।१।।
बोली पिक बोल ।
हो’री चित् चोर ।।
हाथों को जोड़, भावना मोर ।।२।।
पर पीर बटोर ।
भींजे दृग् कोर ।।
हाथों को जोड़, भावना मोर ।।३।।
झुक झूमे मोर ।
सुन बादल शोर ।।
हाथों को जोड़, भावना मोर ।।४।।
मेरी भावना
(४)
सब जन रहें सुखी ।
रहे न कोई दुखी ।।
नहीं कोई प्राणी ।
बरसे बस पानी ।।१।।
होले जग बोले ।
गर्म सूर्य हो ले ।।
भीतर दिल मुट्ठी ।
रह चाले सृष्टी ।।२।।
‘तव-मम’ होवे गुम ।
वसुधा बने कुटुम ।।
दुआ दवाई लें ।
रोग विदाई लें ।।३।।
झूठ-धूल हो क्षण ।
मूठ, धूल-मोहन ।।
झुके भरे गागर ।
नदी मिले सागर ।।४।।
खो अनबन जाये ।
गाँठ न मन पाये ।।
अँखियन रहे शरम ।
मरहम हों मर-हम ।।५।।
मेरी भावना
(५)
हरी भरी हो ।
धरा सुखी हो ।।
कोई पल-भर भी न दुखी हो ।।१।।
जैसे भँवरा ।
काले बदरा ।।
समय-समय आ, हर लें दुखड़ा ।।२।।
फल के दाता ।
विरले छाता ।।
छुयें आसमाँ, वृक्ष विधाता ! ।।३।।
जल-कल गाये ।
कल-कल भाये ।।
बिन्दु सिन्धु पा दृग्-जल जाये ।।४।।
मृदा-गगरिया ।
बाँस-मुरलिया ।।
बने, एक पा शिल्पी नजरिया ।।५।।
‘पर’ पा जाये ।
गगन दिखाये ।।
शान्ति परेवा ध्वज फहराये ।।६।।
नीचे नैना ।
तीजे नैना ।।
देख पीर-पर भींजे नैना ।।७।।
धी-मय वैना ।
धीमे वैना ।।
हो तर मिसरी घी-में वैना ।।८।।
उड़ें न तोते ।
नजूम तोते ।।
हो, लें राम-राम रट तोते ।।९।।
झूठ किनारे ।
लूट किनारे ।।
लगे आपसी फूट किनारे ।।१०।।
जलन दिलों से ।
चुभन गुलों से ।।
कोस दूर हो मन गहलों से ।।११।।
हा ! हा !! मारीं ।
हा ! बीमारीं ।।
आप आप हों यम को प्यारीं ।।१२।।
सुलझे उलझन ।
उलझे अनबन ।।
चढ़े न सिर पैसों की खनखन ।।१३।।
आत्म प्रशंसा ।
‘खोवे’ हिंसा ।।
बनें आत्म-सर हंसा इंसाँ ।।१४।।
मेरी भावना
(६)
चहुं-ओर हरियाली हो ।
रोजाना दीवाली हो ।।
ना मचे खून की होली ।
हो दया-क्षमा हमजोली ।।१।।
सोवे ना कोई भूखा ।
देवे ना उत्तर रूखा ।।
चुगली ना कोई खावे ।
रस्ते से आवे जावे ।।२।।
जा लगे वृक्ष गगनॉंगन ।
आँखें हों सबकी पावन ।।
मन गाँठ न कोई राखे ।
मुख और न कोई तॉंके ।।३।।
झिर समय समय पे लागे ।
जग रवि से पहले जागे ।।
हो बोल घोल मिसरी के ।
पर-पीर देख दिल चीखे ।।४।।
खो जाये जलन दिलों से ।
सब अपने रहे भरोसे ।।
हर चूनर टकें सितारे ।
हो जायें वारे न्यारे ।।५।।
मेरी भावना
(७)
डग-डग हरियाली हो ।
घर-घर खुशहाली हो ।।
है भावना-हमारी,
पल-पल दिवाली हो ।।१।।
घटा समय पे छाये ।
घाम कहर न ढ़ाये ।।
है भावना हमारी,
सहन शीत हो जाये ।।२।।
पर-पीड़ा तर नैना ।
हों कोयलिया वैना ।।
है भावना-हमारी,
सर चढ़ बोले ‘मैं’ ना ।।३।।
रहे न कोइ परेशाँ ।
हो सब कुछ ना पैसा ।।
है भावना-हमारी,
मन हो, मुनि-मन जैसा ।।४।।
सोती रहे उदासी ।
हो प्रतिभा…रत वासी ।।
है भावना-हमारी,
माँ हो, काबा-काशी ।।५।।
जलन दिलों से गुम हो ।
चुभन गुलों से गुम हो ।।
है भावना हमारी,
सारी धरा कुटुम हो ।।६।।
मेरी भावना
(८)
हर कोई सुखी रहे ।
कोई ना दुखी रहे ।।
टलें महामारियाँ ।
फलें न बीमारियाँ ।।१।।
चहुं-दिशा हरी-हरी ।
लगे समय पे झड़ी ।।
गुम कहीं गुमान हो ।
गुम न स्वाभिमान हो ।।२।।
नेक इक दिशा चुने ।
कोई ना नशा चुने ।।
थमे पश्चिमी पवन ।
गुमे दिलों से जलन ।।३।।
ज्ञान तलस्-पर्श हो ।
हर कोई आदर्श हो ।।
चहक भरे घौंसले ।
हों बुलंद हौंसले ।।४।।
मिजाज न गरम रखे ।
हर कोई शरम रखे ।।
दायीं ओर ऽनेक तिल ।
जन सभी हों नेक दिल ।।५।।
मोती सीप-सीप हो ।
ज्योति दीप-दीप हो ।।
हर कोई दिखे शिखर ।
कोई ना गिरे नजर ।।६।।
तैरते दिखे न घर ।
तैरते दिखे मगर ।।
हर कोई दयाल हो ।
कोई न कंगाल हो ।।७।।
नाव जल उलीच ले ।
गाँव शहर सींच दे ।।
हर कोई कला रखे ।
शिकवा न गिला रखे ।।८।।
रोज महोत्सव-क्षमा ।
रहे थमा आसमाँ ।।
यानी अमन-चैन हो ।
दिवस हो या रैन हो ।।९।।
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